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आतंकवादियों ने पाकिस्तान में हजरत शाहबाजकलंदर की दरगाह में 100 से अधिक लोगों की जान ले ली। इसके बावजूद करीब-करीब पूरा इस्लामी जगत आतंकवाद की निंदा करने से बच रहा है। क्या इस्लामी जगत की चुप्पी आतंकवादियों का हौसला नहीं बढ़ा रही जो चुप हैं, वे भी कसूरवार हैं
अरशद फरीदी
पाकिस्तान के सहवान में झूले लाल हजरत शाहबाज कलंदर की दरगाह पर हुए आतंकवादी हमले में 100 से ज्यादा श्रद्धालु मारे गए। यह न तो अपने किस्म की पहली वारदात है, और न आखिरी। 'रहिमन वे नर मर चुके, जो कछु मांगन जाएं, उनते पहिले वे मुए, जिन मुख निकसत नाएं।' जो मर गए उन्हें तो अब वापस इस दुनिया में नहीं लाया जा सकता, लेकिन कम से कम हमारी नजर में, वे लोग भी इस दुनिया में किसी काम के नहीं रहे हैं, जो बेकसूरों के इस कत्लेआम को किसी न किसी ढंग से जायज ठहराने की कोशिश करते हैं। जैसे दहशतगर्द तो हर मुल्क में और हर मजहब में हैं (और इसलिए यह तो होता ही रहता है), या कत्ल गलत है, लेकिन इबादतगाह पर रक्फ (गीत-संगीत) भी गलत है, या यह कि दरगाहों को अपनी सुरक्षा का इंतजाम रखना चाहिए था (वरना तो यह होगा ही) या यह कि बेकसूरों का कत्ल करना तो हराम है(और बात खत्म)। या, जैसा कि पाकिस्तानी पंजाब के गृह मंत्री राना सनाउल्लाह ने कहा, ''अगर वे वहां न जाते, तो आज जिंदा तो होते।'' या वे लोग, जो इस कत्लेआम के लिए भारत, अफगानिस्तान, इस्रायल और अमेरिका तक के तमाम तरह के षड्यंत्रों की कहानियां सुना रहे हैं। हम इन लोगों को बद्दुआ तो नहीं देते, लेकिन यह जरूर कहते हैं कि इनके कारण हमें शर्म और अफसोस होता है। शांति के, और सभ्यता के, असली कातिल यही लोग हैं।
सच आपको स्वीकार करना ही होगा। आप हर बड़ी वारदात पर न आंखें बंद कर सकते हैं, न बहानेबाजी करके बच सकते हैं। अफसोस कि इस्लाम के ही कुछ फिरकों के नेता, आतंकवाद की तो आलोचना कर देते हैं, लेकिन वे खुलकर उसके पीछे की सोच की आलोचना करने से कन्नी काट जाते हैं। आप आतंकवाद को गलत मानें, और उसके पीछे की सोच को सही मानें, यह कौन-सी समझदारी है? अगर कोई कत्लेआम को गलत समझता है, उसकी ईमानदारी से आलोचना करता है, तो उसमें उस विचारधारा को भी गलत ठहराने और उसकी आलोचना करने की जुर्रत होनी चाहिए। इसकी नौबत आ चुकी है, आप इसे कल-परसों तक के लिए, या अगली वारदात तक के लिए नहीं टाल सकते।
और यह इस शुतुरमुर्गियत का ही नतीजा है कि खासतौर पर पाकिस्तान में, इस हिंसा को जायज ठहराने वाली सोच सरकार, फौज और वकीलों तक पर हावी हो चुकी है। आज औसत पाकिस्तानी की नजर में तकरीबन 99 फीसदी पाकिस्तानी मशरिक हैं, और इस नाते वाजिबुल कत्ल हैं। आखिर कहां जाना चाहते हैं आप?
हजरत शाहबाज कलंदर की दरगाह पर हुए बम विस्फोट के ठीक पांच दिन बाद 21 फरवरी को खैबर पख्तूनखां में हुए आत्मघाती हमले में कई बेगुनाह लोग मारे गए। खानकाह बदायूं के चश्मोचिराग उसैदुलहक कादरी का 4 मार्च, 2014 में इराक में कट्टरवादियों ने कत्ल कर दिया था। विद्वान नासिर अब्बास मुल्तानी और अमजद साबरी को भी सूफी होने की सजा दे दी गई। आज कौन नहीं है आपका दुश्मन? शिया, सूफी, और हकीकत में सारे गैर पंजाबी? पेशावर की तिराहा घाटी में हाजरा कबीले के तकरीबन 200 लोगों को फिदायीन हमलावर ने अपना शिकार बना दिया। वे लोग वहां हाट में खरीदारी करने आए थे। वजह? वे शिया थे, हाजरा थे, अमनपसंद हैं, लड़ाकू नहीं हैं, उनके पीछे कोई बड़ा लड़ाकू मिलिशिया नहीं है, और वाजिबुल कत्ल होने के लिए बस इतना काफी है। पाकिस्तान ने किसी वारदात से कोई सबक नहीं लिया और इस बर्बर हमले की जांच करने की जहमत तक नहीं उठाई। उलटे सारे सबूत अगले दिन साफ कर दिए गए। जैसा बेनजीर भुट्टो की हत्या होने के बाद फौज ने किया था। वारदातों की जांच होती है, लेकिन सिर्फ सबूत खत्म करने और लोगों की आंखों में धूल झोंकने के लिए।
सच से मुंह छिपाने का सबसे अच्छा तरीका है, दूसरों पर दोष मढ़ना। बच्चा-बच्चा जानता है कि कातिल कौन है, और पाकिस्तानी हुकूमत हमलों का दोष भारतीय एजेंसी और अफगानिस्तान में सक्रिय कट्टरवादी गुटों को देने में मुब्तिला है। पाकिस्तान के अधिकतर सियासी नेता आतंकवादियों से रहमदिली से पेश आने की वकालत करते देखे जा सकते हैं। वे हाफिज सईद जैसे आतंकवादी सरगना को समाज-सेवक और समाज-सुधारक का तमगा देने में कतई गुरेज नहीं करते। जिस आईएसआई ने हजारों युवकों को हथियार चलाने का प्रशिक्षण देकर, कत्ल को जरूरी बताने वाली मानसिकता देकर आतंकवादी बनाया है, वह किससे मुंह छिपा रही है?
सारा दोष उन्हीं का नहीं है, जो आतंकवाद की विचारधारा को सही मानते हैं। इस्लामिक विद्वान और सूफी संत भी आतंकवाद जैसे गंभीर मसले पर उस हद तक विरोध नहीं जताते, जिसकी जरूरत है। ज्यादातर विद्वान एक तयशुदा बयान फिर एक बार जारी कर और विरोध जताकर खानापूर्ति कर लेते हैं। अगर अब्दुल वहाब ने कुछ कहा था, तो उनके पिता ने और उनके भाई- शेख सुलेमान इब्न अब्द-अल वहाब ने भी कुछ कहा था। दरअसल, पूरी किताब ही लिखी है। लेकिन हम उसकी भी नजीर नहीं दे पाते हैं।
पाकिस्तानी पंजाब के गवर्नर सलमान तासीर को कत्ल करने वाला उन्हीं का बेवफा गनर वहाबी नहीं था, लेकिन कत्लपरस्त था। दरअसल, कट्टरवादी विचारधाराओं के फैलने की कई वजहें हो सकती हैं। उन पर बहस करना अपनी जगह है, पर इंसानियत और अमन को फौरन बचाना उससे ज्यादा अहम है। बेहद जरूरी है कि इस कट्टरवाद को रोकने के लिए भारत और पाकिस्तान में सूफी मदरसों की कतार खड़ी कर दी जाए जिससे युवा वर्ग और कम से कम नई पीढ़ी अपनी पुरानी सूफी परंपरा की तालीम हासिल कर सरल सोच विकसित कर सके, जिससे वह आम मुसलमान को शांति, सम्मान और तरक्की के साथ जीने का बेहतर मौका मुहैया करा सके। जिससे उस पर शक की कोई निगाह न उठ सके और किसी को उससे खतरा न महसूस हो सके। जिससे वह खुद भी अपने पड़ोसी को शक, डर और शिर्क की नजर से दरयाफ्त करना बंद कर सके, जो सारी बीमारी की बिल्कुल शुरुआती जड़ है। सरकार को भी कुछ ऐसी नीतियां बनाने की आवश्यकता है जिससे कोई भी नौजवान बहकावे में आकर अपराध और आतंकवाद की तरफ न जाए। सरकार को युवाओं को शिक्षा के साथ-साथ उनके रोजगार के लिए सार्थक पहल करने की जरूरत है। यह साफ है कि यह काम बिरादरी के भीतर से भी तभी हो सकेगा, जब इसकी तरफ मदद का संस्थागत हाथ बढ़े। दरगाह हजरत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के सज्जादानशीन दीवान सैयद जैनुल आबेदीन अली खान के आतंकवादी हमलों के संबंध में विचार हैं कि यह पाकिस्तान के सूफियों पर नहीं, बल्कि आध्यात्मिक चिंतन और विचारधारा पर हमला है, हिंसक विचारधारा द्वारा मानवता का संदेश आम करने वाले विचारों को दबाने की साजिश है। इसके लिए पाकिस्तान समर्थित आतंकवादी संगठन जिम्मेदार हैं। लेकिन सचाई यह है कि ये संगठन पाकिस्तान के लिए भी खतरनाक हो चुके हैं। इन आतंकवादी संगठनों के खिलाफ सख्त कदम उठाने की जरूरत है। पैगंबर मोहम्मद , अहले बैत और चारों खलीफाओं के बाद इस्लाम का सही संदेश सूफियों द्वारा फैलाया गया है। सूफियों ने हमेशा मानवता का पाठ पढ़ाया है। जिन सूफियों ने हमेशा प्यार और राष्ट्रीय एकता का संदेश दिया, आज उन्हीं की दरगाहों पर, हिंसक विचारधारा के लोग खून-खराबा कर रहे हैं। इस हमले से यह भी स्पष्ट हो गया है कि आईएसआईएस की क्या योजना है। अपनी दहशत फैक्ट्री को बरकरार रखने के लिए उसे किसी न किसी इंसान का खून रोजाना बहाना ही है। ऐसी फितरतों को मजहब से नहीं जोड़ा जा सकता। आतंकवादी आखिर आतंकवादी ही होता है, यह हमारे देश और सभी देशों के लिए खतरा है। उन्होंने भारत सरकार से भी भारत में मौजूद दरगाहों की सुरक्षा सुनिश्चित करने का आग्रह किया है, ताकि गरीबनवाज की दरगाह की तर्ज पर दोबारा कोई आतंकवादी हमला किसी और दरगाह पर न हो। दायरा हजरत वसी, सासाराम के सज्जादा नशीन प्रोफेसर हुसैन हक चिश्ती ने कहा कि आतंकवाद के पंख तो बहुत दिनों से निकले हुए हैं, और न जाने किस मकसद के तहत दुनियाभर में रक्तपात जारी है, वे शायद इतिहास से अनभिज्ञ हैं, उन्हें मालूम नहीं कि आंदोलनों को तो कुचला जा सकता है, लेकिन फिक्र की गर्दन नहीं मारी जा सकती—रहस्यवाद आंदोलन नहीं है, बल्कि एक प्रवृत्ति है। लाल शाहबाज कलंदर और उनके जैसे सैकड़ों सूफियों और इन केंद्रों में हजारों साल से जारी फकीर जीवनशैली का ऐसा रूप है, जो सभी दिलों मे उतर चुका है। इंसान सदियों से अपनी आत्मा की शांति की खातिर सूफियों और इन आध्यात्मिक केंद्रों से जुड़ा हुआ है और इन केंद्रों से केवल गंगा-जमुनी नहीं बल्कि इंसानी तहजीब के ऐसे रंगीन शिगूफे फूटते हैं जो इंसानी अस्तित्व को सुगंधित भी बनाते हैं और ताजा भी रखते हैं। नई दिल्ली में संसद मार्ग स्थित जामा मस्जिद के इमाम और खतीब मौलाना मुहिबुल्ला नदवी ने कहा कि पूरी दुनिया में प्रेम और मानवता के संदेश को आम करने में सूफियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। लोग अपने रब से प्यार करें और अपने अल्लाह से जुड़े, इसका रास्ता सूफियों ने दिखाया। कुरान के इस पैगाम को और मानवता के संदेश को घर-घर तक पहुंचाने वाली सूफी धारा पर हमला किए जाने वाली तंजीमें मानवता के विरुद्ध खड़ी होकर इस्लाम के बुनियादी सिद्धांतों को तार-तार कर रही हैं। उनका कहना है कि इस्लाम में दहशतगर्दी का कोई स्थान नहीं है। इस्लाम की गलत व्याख्या कर रहे लोगों को अल्लाह कभी माफ नहीं करेगा। पयामे इंसानियत के अध्यक्ष डॉ. राशिद सलीम आदिल ने भी दरगाहों पर हो रहे आतंकवादी हमलों की कड़ी निंदा की और इसके लिए एकजुट होकर आवाज बुलंद करने और आंदोलन चलाने की बात कही। उन्होंने कहा कि ये आतंकवादी किसी भी मसलक या फिरके से हों और कुछ भी कहते हों, लेकिन तथ्य यह है कि इस्लाम में इंसानियत का रक्तपात करने की अनुमति नहीं दी गई है। आतंकवाद से बंदूक की नोक पर मुक्ति नहीं पाई जा सकती। इसका एकमात्र इलाज है सूफीवाद का प्रचार और प्रसार। (लेखक नई दिल्ली से प्रकाशित उर्दू दैनिक मेरा वतन के संपादक हैं)
हलाल के ठेकेदारों का बहिष्कार कीजिए
जब कभी मैं सूफियत पर लिखता हूं और यह जिक्र कर देता हूं कि रूमी ने नाच-नाच के खुदा को पाया तो एक बहुत बड़ा तबका मेरी इस बात का विरोध करता है। वे साबित करने के लहजे में कहते हैं कि रूमी डांस नहीं करते थे। जब मैं पूछता हूं कि रूमी अगर नाचते नहीं थे, तो आपकी परेशानी क्या है? तो कहेंगे कि ''नौजबिल्लाह, इस्लाम में नाचना-गाना हराम है। आप कैसे एक अल्लाह के वली के बारे में यह लिख सकते हैं कि वह नाचते थे?''
जिस वक्त पाकिस्तान में शाह कलंदर की दरगाह पर हमला हुआ, वहां दरवेश नृत्य हो रहा था। हमेशा से सूफीवाद में नाचना और गाना (कव्वाली) प्रार्थना का एक अहम हिस्सा रहा है। जिन लोगों ने वहां बम विस्फोट किया है, उनके हिसाब से वहां हराम का काम हो रहा था। वही हराम काम जो रूमी करते थे। आप मार्क्सवादी हैं, नास्तिक हैं, मजहबी हैं या जो कुछ हैं, अपने फेसबुक दोस्तों की सूची ध्यान से देखिए। जो सीरिया के लिए आपको रोते मिलेंगे, पाकिस्तानी जहाज के गिरने पर जो दुआएं खैर करते मिलेंगे, वे ऐसे धमाके पर आपको कभी रोते नहीं दिखेंगे। आप उन्हें अपना दोस्त समझते हैं। उनके साथ बौद्धिक लड़ाई में सरकार या समाज का विरोध करते हैं और आपको लगता है कि वे आपके साथ किसी क्रान्ति का हिस्सा हैं। नहीं… ये लोग किसी भी क्रान्ति में कभी आपके साथ नहीं होते हैं। आज इनके लिए नाचना-गाना, खुश होना हराम है और आप उसे नजरअंदाज कर देते हैं, मगर यकीन मानिए कल को यही उस फतवे पर भी ईमान ले आएंगे, जिसमें कहा जाएगा कि 'क्रान्ति' हराम है। फिर भी आप नाचने वाले सूफियों की तरह इनके वाजिबुल कत्ल हो जाएंगे। इसलिए आतंकवादियों का सीधे तौर पर आप कोई बहिष्कार नहीं कर सकते हैं। लेकिन ये जो हराम और हलाल के ठेकेदार हैं, उन्हें लात मार कर अपनी दोस्ती के दायरे से बाहर कीजिए।
आप यह पूछिए कि 'कौन-कौन है जो यह मानता है कि सूफियों का मजार पर नाचना और गाना हराम है?' … जो भी बौद्धिक दलील देने आए उसे अलविदा बोलिए और उनका सामाजिक बहिष्कार भी कीजिए। आतंकवाद की सोच को आप ऐसे ही लगाम लगा सकते हैं। आप सीधे-सीधे तालिबान या आईएसआईएस से वार्तालाप नहीं कर सकते। उनकी विचारधारा को चाहने वाले आपको अपनी सूची में ही मिल जाएंगे। उनसे यहीं निबट लीजिए।
– ताबिश सिद्दीकी की फेसबुक वॉल से
लाल शाहबाज का महत्व
डॉ. रविप्रकाश टेकचंदाणी
सिंध को संतों, सूफियों, दरवेशों की भूमि की संज्ञा से विभूषित किया जाता है। सिंध की पाक मिट्टी में इतने दरवेशों का जन्म हुआ है जिसका प्रमाण हमें कण-कण में व्याप्त स्थानों, दरगाहों, धामों से मिलता है। संभवत: इसीलिए फारसी भाषा में एक कहावत प्रचलित है कि गर्मी, खाक, फकीर और मकबरा इन चारों से ही सिंध को पहचाना जाता है।
सिंध में सूफी संतों व दरवेशों का आगमन अरब शासकों के काल से ही प्रारंभ हो गया था। इन संतों व दरवेशों के दार्शनिक सिद्धांतों से स्थानीय जनता स्वयं को जोड़ लेती है। तत्कालीन वातावरण में व्याप्त कठोरता से दुखी मन स्वयं को इनके सान्निध्य में सुरक्षित महसूस करता है। आंतरिक शांति हेतु, मन की खुशी के लिए पीरों, फकीरों, सूफियों, संतों के मठों में, दरगाहों में विश्वास उत्पन्न करने लगता है। सूफी दर्शन के प्रभाव में आकर सिंध के हिंदुओं-मुसलमानों में एकता भाव बढ़ने लगता है। सूफी मत का सिद्धांत कहता है कि खुदा/हक या निर्माता एक ही है। इस संपूर्ण कायनात को जिसे निर्माता ने निर्मित किया है वह एक माया है जादू का खेल है तिलिस्म है। इस माया में जो विभिन्न रूप दिख रहे हैं उसके मूल में एक ही परमात्मा है। लगभग सभी सूफी संतों ने आम जनता को मजहबी किताबों में फंसने से सचेत करते हुए अंतर्मन की शुद्धता को प्राप्त करने का मार्ग दिखाया है।
अरब शासकों ने जब सिंध को अपने कब्जे में लिया उस काल में सिंध में सनातन हिंदू धर्म का अत्यधिक प्रभाव था। ब्रह्मा, विष्णु, महेश, वरुण, सूर्य, काली, दुर्गा, भवानी, शीतला देवी-देवता की पूजा होती थी। 10वीं सदी में डड्ेरेलाल (झूलेलाल) के अवतार के बाद वरुण देव की पूजा का प्रभाव बढ़ता है। इसी काल में गुरु गोरखनाथ तथा मच्छंदरनाथ अर्थात् नाथ पंथ का भी प्रचार प्रारंभ होता है। किंतु मुस्लिम शासकों ने इसी काल में एक ओर तलवार के जोर से गैर मुसलमानों को इस्लाम में लाना प्रारंभ किया तो दूसरी ओर सूफी संतों ने अपने मत के प्रचार-प्रसार से हिंदुओं को मुस्लिम बनाया। इसी कालखंड में सिंध की भूमि में कुछ महापुरुषों का जन्म होता है तथा कुछ बाहर से आते हैं। हिंदू ऐसे महापुरुषों को अवतारी पुरुष के रूप में देखते हैं और मुसलमान पीर के रूप में पूजते हैं। इन महापुरुषों से जुड़ी कुछ दंतकथाएं इन्हें आज समाज की आंखों का तारा बना देती हैं।
डड्ेरोलाल (झूलेलाल)
इस हिंदू महापुरुष का जन्म नसरपुर में सन् 950 में हुआ। उन्होंने मुस्लिम शासक मरखशाह के जुल्मों से हिंदुओं को स्वतंत्र कराया। इससे शांति का वातावरण बना है। इन्हें वरुण देव का अवतार माना जाता है। वर्तमान में वर्ष प्रतिपदा के दिन चेटी चंड के रूप में इनका जन्मोत्सव मनाया जाता है। मुसलमान झूलेलाल को जिंदापीर या ख्वाजा खिज के रूप में पूजते हैं।
लाल शाहबाज
इस काल में सिंध में अनेक सूफी संत, दरवेश हुए। इनमें लाल शाहबाज सिंध की हिंदू व मुस्लिम जनता के हृदय में राज करते हैं। लाल शाहबाज या कलंदर शाहबाज का पूरा नाम शेख उस्मान मरबंदी है। वह वास्तव में अफगानिस्तान के मरबंद शहर के निवासी थे जहां से वे मुल्तान पधारे। शेख मखदूम जलाल जहानियां वाले, शेख बहांड अल-दीन जकरिया मुल्तान वाले तथा फरीद्दुीन शष्करगंज इनके साथी थे। शेख उस्मान बाद में सेव्हण (शिव स्थान) में आकर बसे और लाल शाहबाज या कलंदर शाहबाज के नाम से प्रसिद्ध हुए। इन्होंने अपने जीवनकाल में अनेक करिश्मे दिखाए जो आज भी सिंध में दंतकथाओं के रूप में प्रसिद्ध हैं। एक कथा के अनुसार शेख उस्मान ने बाज का रूप धारण करके अपने देास्त को मौत के मुख से बचाया था इसीलिए इनका नाम शाहबाज पड़ा। एक बार यह खौलते तेल की कढ़ाई से जीवित बाहर निकल आए और उनका रंग लाल हो गया। उसके बाद वे लाल रंग का वस्त्र धारण करने लगे इसलिए इन्हें लाल शाहबाज पुकारा जाता है। सेव्हण (सिंध) में लाल शाहबाज का मकबरा है, जहां पर एक पत्थर लगा है। उस पर लिखा हुआ है कि यह दरवेश 1143 ईस्वी में मरबंद में जन्मे तथा सेव्हण में 1252 ई. में इस माया लोक को त्याग दिया।
इनके मकबरे पर एक विशाल मेला लगता है। इस मेले में अपनी मन्नतें पूरी करवाने हेतु हिंदू व मुस्लिम समाज के लोग आते हैं। वे सूफीमय वातावरण में स्वयं को प्रफुल्ति महसूस करते हैं। हिंदू लाल शाहबाज को राजा भर्तृहरि का अवतार मानते हैं। लाल शहबाज के मकबरे पर सभी लोग आकर गीत-साज के साथ मस्ती में झूमते हैं, गाते हैं और रुहानी आनंद को प्राप्त करते हैं। इस दरगाह के महत्व को लोग आज भी बखूबी मानते हैं। सच तो यह है कि लोगों की आस्था और श्रद्धा कम भले हो जाए, खत्म नहीं होती।
(लेखक राष्ट्रीय सिंधी भाषा विकास परिषद के निदेशक हैं)
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