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नानाजी ने आजीवन अपने व्यवहार और कर्मों से आदर्श प्रस्तुत किया। आज जब नेता सत्ता के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं, वहीं नानाजी ने पहले चुनाव लड़ने से मना कर दिया था। जे.पी. के कहने पर उन्होंने चुनाव लड़ा और जीते भी, लेकिन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के आग्रह पर भी मंत्री बनना स्वीकार नहीं किया।
परिवार एवं जन्म
मराठवाड़ा के तत्कालीन परभणी जिले में एक गांव था कडेाली (अब यह हिंगोली जिले का हिस्सा है। इस छोटे-से गांव में श्री अमृतराव देशमुख अपनी धर्मपत्नी राजाबाई, तीन पुत्रियों और एक पुत्र के साथ रहते थे। इस परिवार की सामाजिक प्रतिष्ठा काफी थी, परंतु आर्थिक हैसियत कमजोर। अक्षर ज्ञान से वंचित और लोकज्ञान में दक्ष इस दंपती के घर 11 अक्तूबर, 1916 को एक पुत्र ने जन्म लिया। पांचवीं संतान। नामकरण हुआ चंडिकादास। शैशवास्था में ही यह बालक अनाथ हो गया। बड़े भाई आबाजी देशमुख ने लालन-पालन किया। आसपास विद्यालय नहीं था। 11 वर्ष की आयु तक अक्षर-ज्ञान से दूर इस बालक ने रिसोड़ नामक जगह पर पढ़ाई शुरू की। विद्यालय के शिक्षक चंडिकादास की मेधा से प्रभावित हुए। यहीं पढ़ाई के दौरान उनका परिचय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से हुआ। आठवीं कक्षा के पश्चात् उन्हें रिसोड़ छोड़कर वाशिम आना पड़ा। आश्रय मिला पुराने परिचित पाठक परिवार में। पाठक परिवार संघ से जुड़ा था। वाशिम में डॉ. हेडगेवार आते रहते थे। संपर्क बढ़ा। चंडिकादास और प्रभावित हुए तथा संघ-कार्य में रम गए। यही चंडिकादास बाद में नानाजी देशमुख बने।
शिक्षा-दीक्षा
1937 में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए बाहर जाना था, पर इसके लिए साधनों का अभाव था। पाठक परिवार के आबा पाठक और चंडिकादास ने तय किया कि वे शहर से फल-सब्जी आदि खरीदकर थोड़ा मुनाफा लेकर संपन्न परिवारों में पहुंचाएंगे। इस तरीके से धन इकट्ठा होगा और आगे की पढ़ाई करेंगे। दोनों मित्र संघ कार्य के संग-संग इसे करने लगे। दो वर्ष में उनके पास कुछ पैसे जमा हो गए। आगे की पढ़ाई के लिए वे राजस्थान के पिलानी जिला कॉलेज के लिए चले। साथ में और दो किशोर थे— बाबा सोनटक्के एवं बाजीराव देशमुख। इन चारों मित्रों के लिए यह नई जगह थी। यहां इन्हें पढ़ाई करनी थी और साथ में संघ कार्य भी।
पिलानी की एक घटना उल्लेखनीय है। इसके माध्यम से ज्ञात हुआ कि भविष्य में चंडिकादास सामाजिक कर्म में संलिप्त होंगे। कॉलेज के संस्थापक सेठ घनश्याम दास बिड़ला ने चंडिकादास की योग्यता, कर्मठता, आत्मविश्वास और विश्वसनीयता से प्रभावित होकर प्राचार्य सुखदेव पाण्डेय से कहा कि मैं इस युवक को अपना निजी सहायक बनाना चाहता हूं। इस एवज में उन्होंने उसे प्रतिमाह 80 रुपए वेतन एवं भोजन, आवास की सुविधा देने की इच्छा जताई। चंडिकादास की आर्थिक स्थिति एवं उस देश-काल के लिहाज से यह प्रस्ताव आकर्षक था। पर उन्होंने बिड़ला का यह प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया। दरअसल, उनके मन में भावी जीवन की रूपरेखा तय होने लगी थी।
समाज-कार्य की नींव और संघ
1940 में चंडिकादास संघ की प्रथम वर्ष शिक्षा के लिए नागपुर गए। वहां डॉ. हेडगेवार का अंतिम भाषण सुना। परिणामस्वरूप तय कर लिया कि आगे पढ़ाई नहीं करनी और पूर्णकालिक कार्यकर्ता के रूप में कार्य करना है। डॉ. हेडगेवार के अलावा बाबा साहेब आप्टे से भी वे बेहद प्रभावित थे। इसलिए उन्होंने आप्टे साहब से अपने लिए कार्य पूछा। आप्टे साहब ने उन्हें भाऊ जुगादे के साथ संघ कार्य के लिए आगरा भेज दिया। तब उनकी उम्र 24 साल थी। इसी दौरान पं़ दीनदयाल उपाध्याय कानपुर से बी़ ए़ उत्तीर्ण कर एम़ ए. की पढ़ाई के लिए आगरा आ गए थे। दीनदयाल जी भी संघ के एक अच्छे कार्यकर्ता बन चुके थे। अत: तीनों कार्यकर्ता एक कमरे में रहने लगे। साथ रहने से इनकी दोस्ती प्रगाढ़ हुई, जो जीवनभर कायम रही। आगरा में कुछेक माह रहने के बाद चंडिकादास को गोरखपुर भेजा गया। वे अपने कार्य में जुटे रहे। देश आजाद हुआ पर साथ ही इसके दो टुकड़े भी हुए। भारत और पाकिस्तान दोनों देशों में गहरा तनाव व्याप्त था। 30 जनवरी, 1948 को नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी की हत्या कर दी। नानाजी पर आरोप लगा कि उन्होंने महंत दिग्विजयनाथ से नाथूराम गोडसे की मुलाकात कराई और पिस्तौल दिलवाई। परिणामत: नानाजी गिरफ्तार कर लिए गए। जेल से छूटने के पश्चात् वे लखनऊ आ गए। यहां रहते हुए भी गोरखपुर के कार्यकर्ताओं से उनका जीवंत संपर्क बना रहा। वे उनके सुख-दु:ख में भी भागीदार रहते थे। ऐसे ही एक कार्यकर्ता थे कृष्णकांत, जो प्रचारक जीवन से गृहस्थ जीवन में प्रवेश करना चाहते थे। जीविकोपार्जन के लिए उन्हें कोई मार्ग सूझ नहीं रहा था। नानाजी ने उनका विवाह आयोजित कराया और पति-पत्नी दोनों की शिक्षा एवं संस्कारक्षमता का उपयोग करने के लिए शिशु पाठशाला की कल्पना की। नामकरण किया सरस्वती शिशु मंदिर। पहला सरस्वती शिशु मंदिर गोरखपुर में 1949 में नानाजी के मार्गदर्शन में प्रारंभ हुआ।
राजनीति के क्षेत्र में पदार्पण
1952 में पहला आम चुनाव होना था। संघ ने 'भारतीय जनसंघ' में काम करने के लिए पं़ दीनदयाल उपाध्याय और नानाजी को भेजा। उन्होंने जनसंघ के सांगठनिक विस्तार और विकास के लिए दीनदयाल जी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर कार्य किया। जनसंघ का काम करते हुए लालबहादुर शास्त्री, डॉ. राममनोहर लोहिया, डॉ. संपूर्णानंद, चौधरी चरण सिंह सरीखे नेताओं से उनके संबंध विकसित हुए। दीनदयाल जी की हत्या के पश्चात् भी वे अपने मिशन में पूरी दृढ़ता से जुटे रहे।
दीनदयाल शोध संस्थान की स्थापना
अपने साथी की स्मृति में नानाजी ने 1972 में 'दीनदयाल शोध संस्थान' की स्थापना की और कालांतर में हिंदी और अंगे्रजी में 'मंथन' नामक त्रैमासिक शोध-पत्रिका शुरू की। अपनी विचारधारा और संगठन की सीमाओं का अतिक्रमण कर नानाजी अपने दौर के हर बड़े आंदोलन से जुड़ते थे। शर्त यह रहती थी कि उस आंदोलन का मकसद जनकल्याण और राष्ट्र को सुदृढ़ करना हो। वे महात्मा गांधी के अनन्य अनुयायी आचार्य विनोबा भावे के 'भूदान आंदोनल' में भी शामिल हुए। नानाजी एक तरफ राजनीतिक हस्तक्षेप के जरिए परिवर्तन की जमीन तैयार कर रहे थे, तो साथ ही रचनात्मक कार्य के लिए भी सोचते-विचारते रहते थे। इंडियन एक्सप्रेस के स्वामी रामनाथ गोयनका के माध्यम से वे जयप्रकाश नारायण से जुड़े। जे़ पी. के अतीत और वर्तमान ने नानाजी को बेहद प्रभावित किया। आपातकाल के दौरान जे़ पी. की व्यक्तिगत सत्ता पाने की कामना से रहित होकर संघर्ष और चिंता ने नानाजी के मन में उनके प्रति श्रद्धा पैदा की। तिहाड़ जेल में रहते हुए नानाजी का संपर्क चरण सिंह, प्रकाश सिंह बादल आदि विपक्षी नेताओं से हुआ। करीब 17 माह के कारावास में वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि देश का पुनर्निर्माण राजशक्ति से नहीं, अपितु लोकशक्ति से होगा। राजनीतिक संस्कृति विकृत होती जा रही थी। इसे जे़ पी. के साथ नानाजी भी महसूस कर रहे थे।
रचनात्मक कायार्ें की ओर
17 फरवरी 1977 को इंदिरा गांधी ने लोकसभा चुनाव की घोषणा कर सबको चौंका दिया। तीन दिन के भीतर 20 फरवरी को जनसंघ, कांग्रेस संगठन, भारतीय लोकदल, सोशलिस्ट पार्टी सहित सभी प्रमुख विपक्षी दलों ने जनता पार्टी का गठन कर और उसमें अपना विलयकर एक चुनाव चिन्ह पर चुनाव में उतरने का फैसला किया। नवगठित जनता पार्टी के अध्यक्ष चंद्रशेखर और चार महामंत्रियों में एक नानाजी बनाए गए। नानाजी ने चुनाव नहीं लड़ने का निर्णय किया था परंतु जे़ पी. के आदेश पर वे उत्तर प्रदेश के बलरामपुर क्षेत्र से प्रत्याशी बने और बलरामपुर की रानी राजलक्ष्मी को चुनाव में हराया। इस आम चुनाव में जनता पार्टी की जीत हुई पर साथ ही आंतरिक सत्ता संघर्ष भी आरंभ हो गया। ऐसे में नानाजी एक साथ तीन मोर्चों पर सक्रिय हुए। एक, दीनदयाल शोध संस्थान को एक प्रभावकारी बौद्धिक केंद्र बनाना। दो, जनता पार्टी के अंदरूनी सत्ता कलह को समाप्त कर सरकार को जे़ पी. के सपनों की पूर्ति का माध्यम बनाना। तीन, स्वयं के लिए गैर राजनीतिक रचनात्मक कार्य की भूमिका निश्चित करना। राजनीति की चरित्रगत गिरावट ने उनके मन में वितृष्णा पैदा की। सत्ता प्राप्त करने के लिए छीना-झपटी और षड्यंत्रों को देख उन्होंने तय किया कि परिवर्तन के लिए समाज के कमजोर लोगों को सशक्त बनाने हेतु रचनात्मक कार्य को माध्यम बनाना है।
प्रधानमंत्री मोरारजी भाई ने नानाजी से केंद्र सरकार में उद्योग मंत्रालय का दायित्व संभालने का आग्रह किया। पर नानाजी ने यह कहते हुए विनम्रतापूर्वक उसे अस्वीकार कर दिया कि वे जनता के बीच सामान्य कार्यकर्ता के रूप में काम करना चाहते हैं।
राजनीति से संन्यास
उनका यह विश्वास दृढ़ होता गया कि वर्तमान राजनीतिक प्रणाली के भीतर लोकशक्ति का जागरण और सर्वागींण विकास असंभव है। इस दिशा में कदम बढ़ाने के लिए उन्होंने 20 अप्रैल, 1978 को साठ साल से अधिक आयु के अनुभवी राजनीतिकों से आग्रह किया कि वे सत्ता से अलग होकर रचनात्मक कार्य में आएं। कोई नहीं आया। पर नानाजी निराश नहीं हुए। 8 अक्तूबर, 1978 को पटना में जेपी की उपस्थिति में उन्होंने एक ऐतिहासिक वक्तव्य देकर सत्ता राजनीति से संन्यास की घोषणा की। उन्होंने कहा कि अब वे चुनाव नहीं लड़ेंगे और आगे का जीवन रचनात्मक कार्य में लगाएंगे। 62 साल की आयु में नानाजी ने 54 एकड़ क्षेत्रफल का एक विशाल परिसर बनाया। जेपी और उनकी पत्नी प्रभावती देवी के नाम पर इसका नामकरण किया- 'जयप्रभा ग्राम'। 'हर खेत को पानी, हर हाथ को काम' का नारा देकर उन्होंने ग्रामीण जीवन के सर्वागींण विकास के लिए चार सूत्र निर्धारित किए- स्वावलंबन, शिक्षा, स्वास्थ्य एवं समरसता। रचनात्मक कार्य की दिशा में अग्रसर होते हुए नानाजी ने चित्रकूट में 'ग्रामोदय' योजना विकसित की ताकि आरंभिक से एम़ ए़ तक की शिक्षा प्राप्त युवा शहरों की ओर भागने की बजाय ग्राम्य जीवन अपनाने की दिशा में प्रवृत्त हों। उन्होंने चित्रकूट में आरोग्यधाम, उद्यमिता विद्यापीठ, गोपालन, वनवासी छात्रावास, गुरुकुल आदि प्रकल्पों की एक शृंखला ही खड़ी कर दी।
गोण्डा जिले में दो वर्ष के भीतर ही उन्होंने सिंचाई की कमी को दूर करने के लिए 27,000 से अधिक नलकूपों का निर्माण कर गोण्डा की खुशहाली का मार्ग प्रशस्त किया। गोण्डा प्रकल्प की सफलता की सर्वत्र सराहना हुई। उसके बाद नानाजी ने बीड़ में गुरुकुल एवं नागपुर में बाल जगत के सर्वागींण विकास हेतु कार्य प्रारंभ किया। 1990-91 में भगवान राम की तपोभूमि चित्रकूट ने उन्हें आकर्षित किया और उन्होंने अपना शेष जीवन इसी पवित्र भूमि में विविध प्रयोग करते हुए बिताने का संकल्प ले लिया। चित्रकूट में ग्रामोदय विश्वविद्यालय उन्हीं की प्रेरणा से स्थापित हुआ। सरकार की तरफ से कुलाधिपति पद सुशोभित करने का आग्रह किया गया, जिसे उन्होंने स्वीकार किया। पर राजनीति के बढ़ते हस्तक्षेप से क्षुब्ध होकर उन्होंने कुलाधिपति पद से त्यागपत्र देकर चित्रकूट में ही शिक्षा, स्वास्थ्य, संस्कार और आर्थिक स्वावलंबन के विविध प्रयोग प्रारंभ किए।
नानाजी के कार्य से प्रभावित होकर भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने दीनदयाल शोध संस्थान को चार कृषि विज्ञान केंद्रों गोण्डा, चित्रकूट, मझगवां एवं बीड के संचालन का दायित्व दिया। साथ ही मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने भी तीन जनशिक्षण संस्थान गोण्डा, चित्रकूट एवं बीड में संचालन का दायित्व सौंपा।
नानाजी के रचनात्मक अवदानों को ध्यान में रखकर राष्ट्रपति ने उन्हें 1999 में राज्यसभा के लिए नामित किया ताकि पूरे देश को उनके अनुभव और तप का लाभ मिले। राष्ट्र ने उनके प्रति सम्मान देते हुए पद्मभूषण से सम्मानित भी किया। 27 फरवरी, 2010 को नानाजी महाप्रयाण कर गए और छोड़ गए विराट आदर्श। -प्रतिनिधि
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