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आजकल एक प्रश्न हवा में तैर रहा है— क्या आतंकवाद के विरुद्ध भारत और पाकिस्तान की एक-सी सोच संभव है?
दूर की कौड़ी लगती यह संभावना अचानक पाकिस्तान की एक पहल के कारण चमकने लगी है।
पाकिस्तान सरकार द्वारा आतंकी सरगना हाफिज सईद और उसके चार साथियों को आतंक निरोधी अधिनियम के अंतर्गत घर में नजरबंद कर दिया गया। इसके बाद सीमा के दोनों ओर घुमड़ती सराहनाओं ने एक कदम और आगे बढ़ते हुए काल्पनिक सदिच्छाओं का रूप लेना शुरू किया।
विश्वास कीजिए, सदिच्छाओं को काल्पनिक कहने में कटुता का भाव नहीं है। जरा भी नहीं। यह तो व्यवहार है जिसने घाव दिए हैं, और गहरे सबक भी।
जहां मुस्लिम बच्चों को अन्य धर्म, पंथ, संप्रदायों के बारे में नफरत के ककहरे प्राथमिक कक्षाओं से ही पढ़ाए जाते हों, जहां का मुख्य समाज अपने ही अल्पसंख्यकों को चट करने में लगा हो, जिस भूखंड पर लोग अपने ही पुरखों-महापुरुषों की कीर्तिगाथाएं भुलाकर विदेशी आक्रांताओं के झांझ बजाते झूमें, उनसे अपनी नस्ल का रिश्ता जोड़ते हुए हम शर्म नहीं गर्व का अनुभव करें, वहां सदिच्छाओं की गुंजाइश कहां दिखती है?
फिर आतंकवाद के 'पालने' को सदिच्छाओं की 'लोरियां' सुनाने का मतलब! ऐसा नहीं कि पाकिस्तान के बारे में यह कुछ ज्यादा ही कड़वी बात है। ऐसा भी नहीं है कि यह सब पहली बार और सिर्फ भारत में कहा जा रहा है। पाकिस्तान में भी सेना, सरकार और कठमुल्लों को खरी-खरी सुनाने वाले कुछ स्वर उठ रहे हैं।
मानवता को शर्मिंदा करने वाली, विश्व को डराने वाली पाकिस्तान की स्याह तस्वीर इसके बारे में भविष्य के गुलाबी सपने बुनने से रोकती है। खुद पाकिस्तान के लोग पाकिस्तान के सुनहरे तो क्या, भविष्य को लेकर आश्वस्त नहीं हैं। यू-ट्यूब देखिए, पाकिस्तानी मीडिया में चल रही बहसों को खंंगालिए… पाकिस्तान खुद अपने भविष्य को लेकर डरा हुआ है मगर लीक बदलने को फिर भी तैयार नहीं। इस बात को मानने में हिचक क्यों होनी चाहिए?
सो, ऐसे में कोई गुलाबी सपना, सीमा पर मोमबत्तियों का कोई जमावड़ा, किसी तरह की कोई जल्दबाजी अब नहीं।
हम कितनी बार अपने हाथ जलाएंगे?
सिर्फ नजरबंदी मत देखिए, सिंध में लाल शाहबाज कलंदर की सूफी दरगाह पर आत्मघाती धमाका, खैबर पख्तूनख्वा के चारसद्दा में अदालत पर आतंकी हमला, लाहौर के रक्षा ब्लॉक के भीतर बम विस्फोट… यह सब भी तो इसी सप्ताह के भीतर घटी घटनाएं हैं! पाकिस्तान खदबदा रहा है। दहक रहा है। मगर जो आग उसने खुद लगाई, बढ़ाई है, यह आग उसे खुद ही बुझानी
भी होगी।
भारत क्यों, केवल इसीलिए शांति के सुनहरे सपने बुनने लगे कि जमात-उद-दावा का प्रमुख नजरबंदी में है! आतंकियों को सजा देने का संकल्प अगर पक्का है तो उसे जमीन पर उतरना होगा। आरामदायक नजरबंदी सलाखों और न्याय के फंदे में नहीं बदलती तो इसका क्या मतलब।
आतंक के खिलाफ अभियान सिर्फ सिंध धमाके की क्षणिक प्रतिक्रिया बनकर रह जाता है तो ऐसे अभियान का भी क्या मतलब?
आतंकियों के खिलाफ अगर कार्रवाई करनी है तो अभाव किसका है? साक्ष्यों का, हथियारों का या नीयत का? पाकिस्तान चलाए आतंक के विरुद्ध व्यापक अभियान। किसने रोका है! आतंक के खिलाफ उसके जर्ब-ए-अज्ब अभियान का दायरा सीमित न रहता तो दरगाह धमाके के बाद नए सिरे से रद्द-उल-फसाद नामक राष्ट्रव्यापी अभियान की जरूरत क्यों पड़ती?
अभियानों के नए सिरे से नामकरण की बजाय नए फैसले लेने और इस लड़ाई को अंजाम तक पहुंचाने की लड़ाई पाकिस्तान को दिखानी होगी। ये दावे पूरी तरह निराधार नहीं हैं कि हाफिज की नजरबंदी में भारत की चिंताओं की बजाय व्हाइट हाउस में बदलाव की धमक है।
पाकिस्तान अगर आतंक का खात्मा करने बढ़ रहा है तो यह अमेरिका को बताने या दुनिया को जताने की बात नहीं है। सबसे पहले उसे अपने पड़ोसी का भरोसा जीतना होगा। जहां रिश्तों में तल्खियां हों, वहां आंगन में आग लगने पर भी पड़ोसी बुझाने नहीं आते।
बम धमाकों में मारे गए निदार्ेषों के लिए
संवेदना सहित।
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