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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जिसे आजकल लोग राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नाम से ज्य़ादा पुकारते हैं, से मेरा नाता तब का है जब मैं 10 साल का था और अपने शहर हिसार में रहता था। स्कूल के दिनों में मैं संघ के एक कार्यकर्ता से मिला था। वे प्रचारक तो नहीं थे, लेकिन संघ में बहुत सक्रिय थे। उन्होंने ही मुझे शाखा आने के लिए कहा और मैं पहली बार जब शाखा गया तो अकेला नहीं था, मेरे चचेरे भाई भी आए थे। सुबह पांच बजे ही शाखा में जाना अपने आप में बड़ा अनुभव था। हिसार में खासी ठंड पड़ती है और ऐसे में सुबह पांच बजे उठकर शाखा जाना बड़ा ही कष्टदायक महसूस होता था। कई बार मैं सोचता था कि इतनी जल्दी उठकर स्कूल जाने से पहले शाखा जाने की क्या जरूरत है। लेकिन जानने की अपनी आदत की वजह से मैंने शाखा की बैठकों में जाना शुरू किया। आज इस पड़ाव पर मुझे लगता है कि शाखा जाने का मेरा फैसला बिल्कुल सही था।
कई बार मैं नेताओं और दूसरे सामाजिक लोगों से संघ के बारे में कई तरह की बातों को सुनता हूं तो सोचता हूं कि क्या ये लोग कभी शाखा गए हैं, या फिर सुनी-सुनाई बातों पर अपने बयान दे रहे हैं। स्वयंसेवक होने के नाते मुझे मालूम है कि देश के प्रति जो सोच संघ की है, वह एक राष्ट्रवादी सोच है और देश को आगे बढ़ाने की सोच है। इसके लिए जितना काम संघ के विभिन्न संगठन कर रहे हैं वे अपने आप में सराहनीय हैं।
मैं छठी से दसवीं कक्षा तक लगातार शाखा जाता था और उसकी गतिविधियों में भाग लिया करता था। प्रचारक देशभक्ति की पौराणिक कहानियां सुनाया करते थे। वहां हम एक आकर्षक और रोमांचक दुनिया में पहुंच जाते थे। वह दुनिया आज की दुनिया से अलग थी। लेकिन अब जिस दुनिया में मैं जी रहा हूं या जो सोच रहा हूं, उसमें उस बचपन की दुनिया का बड़ा हाथ है। अपने देश को लेकर मेरे मन में जो प्रेम है, गर्व है और उसे आगे बढ़ाने की जो भावना है, ये सारी चीजें मैंने उन्हीं बचपन के दिनों में सीखी थीं।
एक मजेदार बात आपको बताता हूं। एक बार संघ के एक प्रशिक्षण शिविर में जाने के लिए मैंने अपने घर में एक तरह से आदेशों की अवहेलना भी की थी। मुझे याद है कि संघ का 15 दिन का एक प्रशिक्षण शिविर हिसार से कुछ दूर लगने वाला था। दादा जी किसी यात्रा पर थे और मेरे पिता जी भी पास नहीं थे। दोनों के नहीं होने से शिविर के लिए मैंने अपनी मां से अनुमति मांगी। उन्होंने शिविर के बारे में कुछ जानकारी लेने के बाद मुझे इसमें भाग लेने की मंजूरी दे दी। चूंकि मेरे पिता जी खुद संघ में सक्रिय रहे हैं। लिहाजा माता जी को इससे विशेष आपत्ति नहीं थी। लेकिन समस्या इसके बाद हुई जब यात्रा के लिए पैसे की जरूरत पड़ी। इस शिविर के लिए 30 से 50 रुपए का कुल खर्च था। मैंने दादा जी के भाई इंद्र प्रसाद जी से कुछ पैसे मांगे। हमारे परिवार में दादा जी पूरे कारोबार के मुखिया थे और गद्दी पर वही बैठा करते थे। चूंकि वे यात्रा पर थे, लिहाजा गद्दी पर उस समय दादा जी के भाई बैठे थे। मैंने उनसे शिविर के खर्चे के लिए पैसों की मांग की। लेकिन उन्होंने मुझे झिड़कते हुए कहा कि ये सब बेकार की बातें हैं और मैं इनमें अपना समय खराब कर रहा हूं। चूंकि मुझे मालूम था कि बोलने का लहजा, काम करने का तरीका और देश के बारे में जो सोच वे लोग रखते हैं, उस पर आगे बढ़ना जरूरी है। लिहाजा मैंने किसी तरह से अपने दोस्तों की मदद से पैसे का इंतजाम किया और शिविर में गया। लेकिन इस शिविर के बाद दादा जी के भाई के साथ मेरे संबंधों में कुछ कड़वाहट आ गई। ये मेरे लिए एक बड़ी घटना था। देश के निर्माण में मेरा सहयोग जो हो सकता है मैं और मेरे सभी संसाधन इसके लिए तैयार रहते हैं। इसी से प्रेरणा लेकर मैंने देश के सुदूर क्षेत्रों और गांवों में शिक्षा के कार्य में सहयोग करना शुरू किया। एकल विद्यालय एक ऐसी योजना है जिसके जरिए हम सुदूर गांवों के उन बच्चों को शिक्षित कर सकते हैं, जिन तक शिक्षा के साधनों का पहुंचना बहुत ही कठिन है। पिछले कुछ वर्षों में ही करीब 53,000 एकल विद्यालय काम कर रहे हैं। एकल विद्यालय एक शिक्षक पर आधारित है। जहां बहुत ज्य़ादा संसाधन नहीं है, वहां हम एक व्यक्ति को चुनते हैं जो कि शिक्षित हो, उसको बाकी गांव या इलाके को शिक्षित करने की जिम्मेदारी देते हैं और जो संसाधन चाहिए वह सब उपलब्ध कराते हैं।
(लेखक जी मीडिया समूह के चेयरमैन हैं।)
प्रस्तुति : दीपक उपाध्याय
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