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भले ही भारतीय पत्रकारिता मानकेकर के जमाने की हल्की फफूंद से बढ़कर कोढ़ का रूप ले चुकी हो मगर यह मान लेना गलत होगा किउसकीताकत या साख कोई मायने नहीं रखती
विजय क्रान्ति
16नवंबर को प्रेस दिवस मनाया गया। प्रेस की आजादी को लेकर कई बार आवाजें उठी हैं, लेकिन कई बार यह भी देखा गया है कि आजादी की आड़ में मर्यादा का ध्यान नहीं रखा गया। आज पलटकर देखता हूं तो ध्यान आता है कि 1970-71 में पत्रकारिता का रास्ता पकड़ने के बाद मुझे जो पहली किताब पढ़ने को मिली, वह उस समय के जाने-माने पत्रकार और टाइम्स आफ इंडिया से सेवानिवृत्त संपादक डी़ आऱ मानकेकर का चर्चित उपन्यास 'नो माई सन नैवर' थी। किताब कहने को एक उपन्यास थी लेकिन इसमें उन्होंने अखबार के संपादकीय विभाग में होने वाली घटनाओं का एक कच्चा चिट्ठा पेश किया था जो उस समय की पत्रकारिता में घर कर रहे भ्रष्टाचार को बहुत बेबाकी के साथ बयान करता था। उपन्यास की लगभग पूरी कहानी संपादकीय विभाग के एक कनिष्ठ पत्रकार के आस-पास घूमती है जो तरक्की पाने के लिए अपनी सुंदर पत्नी का इस्तेमाल करता है और अखबार के मालिक के बैडरूम के रास्ते अपने सपने पूरे करता है। अखबार में अपनी नयी हैसियत का इस्तेमाल करके वह लाला जी के व्यापारिक हितों को भी साधने में करता है। आज मुझे पत्रकारिता में 45 साल हो चुके हैं। और यह मात्र संयोग नहीं था कि एक-दो साल पहले मुझे अपने एक पुराने सहयोगी और मशहूर टीवी पत्रकार प्रभात शुंगलू का ठीक ऐसा ही उपन्यास 'न्यूज़रूम लाइव' पढ़ने को मिला जिसमें उन्होंने अपनी आंखों देखे और भुगते अनुभवों के आधार पर टीवी न्यूज़रूम की भीतरी जिंदगी के खोखलेपन और नंगेपन को पूरी ईमानदारी और साहस के साथ पेश किया है। इसे पत्रकारिता के धंधे में नौकरी की क्षणभंगुरता का कमाल कहिए या मेेरे चंचल मन का बार-बार कुछ नया करने की इच्छा का नतीजा, नौकरियां छोड़ने, छूटने और पाने की इस श्रंृखला की इन दिनों तेरहवीं चल रही है। इसका एक फायदा यह रहा कि मुझे पत्रकारिता को प्रिंट, रेडियो और टीवी की भीतरी खोहों में से देखने के अलावा कॉरपार्ेरेट कम्युनिकेशन और पत्रकारिता शिक्षण की बाहरी खिड़कियों से भी देखने का अच्छा-खासा अवसर मिला है। इस काल में भले ही भारतीय पत्रकारिता में लगी हुई 'इन्फेक्शन' मानकेकर के जमाने की हल्की फफूंद से बढ़कर प्रभात शुंगलू के वक्त में कोढ़ का रूप ले चुकी है मगर इसके बावजूद यह मान लेना एकदम गलत है कि भारतीय पत्रकारिता अपनी ताकत या साख पूरी तरह खो चुकी है।
भारतीय पत्रकारिता का सिक्का आज भी दम के साथ खनखना रहा है। इस खनखनाहट का असली राज़ यह है कि किसी भी सिक्के की तरह भारतीय पत्रकारिता के सिक्के के भी दो चेहरे हैं। इस सिक्के में भी एक 'हैड' है और एक 'टेल' है। टीआरपी को लेकर चलने वाली चीख-चिल्लाहट और स्टूडियो लाइटों की चकाचौंध में खूबसूरत दिखने वाले चेहरों का ही कमाल है कि 'हैड' वाली जगह 'न्यूज़ टीवी' ने हथिया ली है।
इनके मुकाबले सिक्के की 'टेल' वाली तरफ अखबारों, पत्रिकाओं और टीवी की डेस्क पर काम करने वाले वे हजारों पत्रकार हैं जो लगभग गुमनामी में जी रहे हैं लेकिन अपने पत्रकारिता धर्म को पूरा रस लेकर निभा रहे हैं। उनके लिए तसल्ली की बात बस इतनी ही है कि वे सिक्के के उस पहलू के प्रतिनिधि हैं जो सिक्के की असली कीमत और ताकत का आईना है। सिक्के के 'हैड' पर न्यूज़-टीवी के कब्जा जमाने की जीत का ही नतीजा है कि स्क्रीन की चकाचौंध पर फिदा होने वाला भारतीय दर्शक आज बरखा दत्त-सिंड्रोम की गिरफ्त में आ चुका है। उसे टीवी स्क्रीन पर बड़े-बड़ों से बहस करती और किसी की भी टोपी उछालने वाली बरखा तो बहुत प्रभावित करती है। लेकिन वह बरखा के उस चेहरे को याद नहीं करना चाहता जो कुख्यात राडिया-टेप्स में बुरी तरह उघड़ गया था। यही वजह है कि टीवी के इस सम्मोहन में जकड़े हर माता-पिता का आज यही सपना है कि 'साड्डी पिंकी' भी एक दिन टीवी की नई बरखा बनेे। लेकिन सैंकड़ों ऐसे लड़के लड़कियां पहले से कतार में कटोरा लिए खड़े हैं जो न्यूज़ टीवी के न्यूज़रूम के भीतर चलने वाली राजनीति, गलाकाट प्रतिस्पर्धा, आर्थिक शोषण और यौन दुर्व्यवहार में टिक नहीं पाए।
मीडिया में घुसने और चकाचौंध में आने की यह अंधी दौड़ भारतीय मीडिया को जिस दिशा में ले जा रही है, उस पर समाज, सरकार और समाजशास्त्रियों सभी को समय रहते चेतना होगा, नहीं तो जिन मर्यादाओं के भीतर रहकर काम करने की मीडिया की एक छवि रही है उस पर दाग लगते देर न लगेगी। कुछ चिंताजनक संकेत तो मिलने भी लगे हैं।
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