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'हिन्दुस्तान टाईम्स' का श्री नेहरू को मुंहतोड़ उत्तर
प्रेस न चिल्लाता तो देश को चीनी आक्रमण का पता भी न चलता
पाञ्चजन्य
वर्ष: 13 अंक: 12, 5 अक्तूबर ,1959
प्रधानमंत्री की अपनी सरकार के आलोचकों के प्रति भावुकता बढ़ती जा रही है। चण्डीगढ़ में पहली बार ही नहीं-उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहते हुए भी यह प्रकट किया है कि जो उनकी नीतियों में दोष निकालते हैं वे बड़े पूंजीपतियों के बेईमान जरखरीद गुलाम है और उनकी दृष्टि मक्खन चुपड़ी रोटी की ओर लगी रहती है। यह एक गंभीर आरोप है जिसका गंभीर उत्तर दिया जाना आवश्यक है विशेषकर क्योंकि निकट भविष्य में सरकारी नीतियां एवं प्रेस का व्यवहार प्रधानमंत्री को अपना यह आरोप दोहराने के अनेक अवसर प्रदान करेगा।
अच्छा हो कि पं. नेहरू यह स्मरण कर लें कि एक वर्ष पूर्व तक उन्हें भारत में ऐसा प्रेस प्राप्त था जो उतना अधिक कर्त्तव्यपरायण था जितना कहीं भी कम्युनिस्ट साम्राज्य के बाहर हो सकता है। इसके कारण ढूंढना कठिन नहीं है। प्रथम स्वतंत्रता के तुरन्त उपरान्त के अति कठिन काल में प्रेस की यह इच्छा स्वाभाविक नहीं रही कि यह सरकार के कार्यों के बारे में जल्दी मत प्रकट करे। दूसरे, बड़ा व्यापारिक वर्ग सरकार को रुष्ट करने में रुचि नहीं रखता था। और सबसे महत्वपूर्ण कारण था शासन के सर्वोच्च शिखर पर आसीन व्यक्ति (नेहरू) के महान गुण और जन-दृष्टि में उसकी निर्विवाद प्रतिष्ठा। पं. नेहरू का व्यक्तित्व बड़ा जादू भरा है, उनमें अपने उद्देश्य के प्रति अटूट निष्ठा है और प्रामाणिकता का अभेद्य भाव है। संभवत: संसार में इस प्रकार का कोई दूसरा उदाहरण नहीं है जिसने ख्याति पायी हो और उसे इतने लंबे काल तक अपनी व्यक्तिगत और सार्वजनिक प्रतिष्ठा के साथ कभी समझौता न करते हुए भी बनाए रखा हो।
ऐसे व्यक्ति की आलोचना करना सरल कार्य नहीं है। भारत के वातावरण में जहां धर्म, परम्परा और सामाजिक तहें सब मिलकर रूढि़वादी श्रद्धा को जन्म देती है, यह कार्य बिना किसी मूलभूत निष्ठा के नहीं हो सकता। जहां तक मूर्तिपूजा का यह पक्ष है पं. नेहरू का अभी भी बहुत आदर है। इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए। इसी का अनिवार्य परिणाम यह भी हुआ है कि इसके तथा अब तक पं. नेहरू के आलोचना से परे रहने के कारण श्री नेहरू की व्यक्तिगत लोकप्रियता और राजनीतिक निर्णय के अंतर की समझने वाला विवेक धुंधला पड़ गया है। यदि श्री नेहरू अभी भी समझते है कि जनमानस पर उनके अधिकार का उनकी सरकार की नीतियों से गहरा संबंध है तो निश्चित ही वे जनभावनाओं के रूप में नहीं है। पं. नेहरू स्वयं को अपनी आलोचना के मूलस्रोत के बारे में भ्रम में न रखें। निस्संदेह हमारे बीच में भी वैसे ही जरखरीद गुलाम है जो अपने मालिकों के तुच्छ हितों की सेवा करेंगे, जैसे कि पं. नेहरू केमण्डल में हैं जो अपने स्वतंत्र मत के विरोध में भी उनकी हां में हां मिलाते हैं। कुछ मामलों पर जिन पर पं. नेहरू और प्रेस के बीच बड़ी झड़प हुई है जैसे तिब्बत, चीन और राज्य व्यापार आदि, श्री नेहरू देश के मत के साथ एकरूप नहीं है। मेरी इच्छा है कि कभी वे उड़ते-उड़ते सुन लें-क्योंकि वे कभी प्रत्यक्ष अपने कानों से तो सुन ही नहीं सकते-कि अनेक कांग्रेसजन यहां तक कि स्वयं उनके अपने मंत्री भी अपने आत्मीय क्षेत्रों में क्या कहते है! प्रधानमंत्री का प्रेस पर आक्रमण इसलिए भी न्यायपूर्ण नहीं है क्योंकि उन्होंने ऐसे कई प्रश्नों पर जिनके बारे में सबसे कड़ी आलोचना की जा रही थी, अपनी नीतियों में महत्वपूर्ण सुधाार कर लिए है।
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वह शहर, जिसकी आबादी के 100 में 80 मुसलमान थे, उसी में बाद में दंगा फसाद और लूट पाट शूरू हो गया और आतंक फैल गया। इस शहर की पुलिस का दूसरे दर्जे का अफसर एक हिन्दू था। वह रात भर के लिए हमें अपने घर रखकर हमारी रक्षा करना चाहता था। पर हम उस सत्ता द्वारा रक्षा नहीं चाहते थे। उस रात हमने देखा और अनुभव किया कि अल्पमत पर बड़े बहुमत का आतंक कैसा हो सकता है। वहां की घटनाओं का मुझ पर जबरदस्त प्रभाव पड़ा। मुझे याद है कि मैंने एक नाटकीय बयान दिया था कि ऐसी चीजों को अब बिल्कुल नहीं बरदाश्त किया जा सकता और एक रास्ता निकालना चाहिए। परिस्थितियों की वास्तविकताओं से हम अनभिज्ञ थे और हमारे पास कम से कम मेरे पास उस परिस्थिति में कैसे अमल किया जाए, इसकी कोई योजना न थी।
एक हास्यास्पद प्रयास
मैंने एक हास्यास्पद कोशिश की। अब वह मुझे पहले दरजे का मजाक दिखता है। चटगांव शस्त्रागार पर छापा मारने वाला एक बहादुर, जो सोसलिस्ट पार्टी में शरीक हो गया था, उसे मैंने दूर दिल्ली भेजा कि वह जाकर उस आदमी से मिले जो अब देश का प्रधानमंत्री है। मैंने सहज परेशानी और गुस्से में उनको लिखा होगा। पहले तो लगा कि श्री नेहरू तैश में आगये है और उसी गर्मर्ी में कहने लगे कि इस संकट और परेशानी की हालत में चटगांव शस्त्रागार पर हमला करने वाले बहादुरों को भी बदलाना होगा कि वे क्या करें? जब मेरे दूत ने पूछा कि उनका सुविचारित उत्तर क्या है? तो श्री नेहरू ने कहा कि फिर एक बार बात करना और मौलाना आजाद से भी बात कर लो।
ऊपर से तैश, अंदर खोखले-पहला और प्रारम्भिक तो एक तौर तरीका, बात करने का एक लहजा तथा एक निरर्थक उबाल साबित हुआ। इससे (सुनने वालों में गलत ख्याल पैदा हो जाता है कि शायद एक (नेताओं के मन में) भीतर कुछ गंभीर और मजबूत बात है।
शोषितों-वंचितों को संरक्षण मिले
''समाज रचना में मकड़ी के पुराने
जालों को झाड़-पौंछकर समाज को युग के अनुकूल नया मोड़ देना चाहिए। समाज के सभी घटकों में परस्पर सामंजस्य रखकर धैर्यपूर्वक अभीष्ट मार्ग पर चलते रहना आवश्यक है। किसी भी पक्ष में छोर की भूमिका लेने से सभी की हानि होगी। सामाजिक समस्याओं का समाधान करना रेशम के धागों की गुत्थी सुलझाना है। तलवार लेकर 'गर्जियन नॉट' को काट डालने का मार्ग उचित नहीं है। सदियों से शोषित, पीडि़त, दलित और फलस्वरूप पिछड़ी अवस्था में रहने वाले समाज को शेष समाज की बराबरी की सुविधाएं एवं संरक्षण देना उचित नहीं है। सदियों से शोषित, पीडि़त, दलित और फलस्वरूप पिछड़ी अवस्था में रहने वाले समाज को शेष समाज की बराबरी की सुविधाएं एवं संरक्षण देना उचित ही है और वैसा करते समय प्रगत वर्ग शिकायत करते हैं तो वह सामाजिक एकात्मता के अभाव का ही लक्षण माना जाएगा।''
—पं. दीनदयाल उपाध्याय (विचार-दर्शन, खण्ड-1, पृ. 51)
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