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मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की विकास रथ यात्रा का एजेंडा पार्टी को मजबूत दिखाना था पर इसने उलटे सिरफुटौबल के जारी रहने के संकेत दिए हैं। सपा चुनावी भंवर में गोते खाती दिख रही है
यात्रा शुरू पर पहिये थमे
आखिरकार ना-नुकर करते सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव और पार्टी की उत्तर प्रदेश इकाई के अध्यक्ष शिवपाल सिंह यादव 3 नवंबर से शुरू हुई मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की विकास रथ यात्रा में शामिल तो हुए, मगर इस दौरान जो कुछ हुआ, उससे यही संदेश गया कि पार्टी में नेताओं के दिल अभी मिले नहीं हैं। यात्रा की शुरुआत से पहले हुए समारोह में मुख्यमंत्री और शिवपाल समर्थक कार्यकर्ताओं के बीच जमकर मारपीट हुई तो अपने संबोधन के दौरान अखिलेश ने शिवपाल का नाम तक लेना गवारा नहीं किया। उलटे पार्टी से निष्कासित किए गए नेताओं के जमावड़े के साथ यात्रा पर निकले अखिलेश ने फिर से शिवपाल को खुली चुनौती दे दी। रथ यात्रा से संबंधित वीडियो और पोस्टर तक में मुख्यमंत्री ने शिवपाल को जगह देने में पूरी तरह से परहेज बरता है।
पार्टी से निष्कासित अखिलेश के चाचा प्रोफेसर रामगोपाल यादव 5 नवंबर को रथ यात्रा से जुड़े। यात्रा शुरू करने से एक दिन पहले मुख्यमंत्री अखिलेश ने यह कहकर विरोधी खेमे और पार्टी संगठन के महागठबंधन के प्रयास की खुली आलोचना की कि ''पता नहीं पार्टी और संगठन सरकार के कामकाज पर भरोसा क्यों नहीं कर रहा। अब चाहे जो हो, मैं किसी की नहीं सुनुंगा और अपने फैसले भी खुद करुंगा।'' मुख्यमंत्री का यह बयान ऐसे समय में आया जब घर में मचे महाभारत के बीच सपा सुप्रीमों मुलायम सिंह ने बिहार की तर्ज पर भाजपा विरोधी महागठबंधन बनाने की पहल कर दी है। बीते हफ्ते इस क्रम में शिवपाल की जदयू अध्यक्ष शरद यादव, राष्ट्रीय लोकदल अध्यक्ष अजित सिंह और कांग्रेस के रणनीतिकार प्रशांत किशोर से मुलाकात के बाद 1 नवंबर की देर रात खुद मुलायम ने प्रशांत किशोर से मुलाकात की। अखिलेश की विकास रथ यात्रा की तरह ही महागठबंधन की कोशिश भी ऐसे समय में शुरू हुई जब उत्तर प्रदेश में सपा और सरकार में दूर दूर तक तालमेल नजर नहीं आ रहा। अखिलेश ने न सिर्फ शिवपाल समर्थक मंत्रियों को मंत्रिमंडल से बाहर कर दिया, बल्कि सपा प्रमुख की सलाह को दरकिनार करते हुए अपने चार्चा को लगातार दूसरी बार सरकार से बाहर का दरवाजा दिखा दिया।
बतौर राज्य अध्यक्ष शिवपाल मुख्यमंत्री समर्थक नेताओं और मंत्रियों को चुन-चुनकर पार्टी से बाहर निकाल रहे हैं तो दूसरी ओर मुख्यमंत्री इन मंत्रियों और नेताओं के साथ मजबूती से खड़े हैं। यह कलह कितने अंदर तक पैठ गई है, इसका अंदाजा पार्टी से निष्कासित प्रो. रामगोपाल यादव के बयान से लगता है। उनका कहना है कि राज्य में बस अखिलेश ही चुनाव जीत सकते हैं, मगर नेताजी (मुलायम सिंह यादव), असली सिक्के की जगह खोटे सिक्के को भाव दे रहे हैं। विधानसभा चुनाव हवा में उड़ने वाले नेताओं को इसका एहसास करा देगा। कुनबे के महाभारत के चरम पर पहुंचने के बीच अखिलेश ने रथ यात्रा के जरिए अपनी सियासी ताकत दिखाई तो 5 नवंबर को पार्टी के रजत जयंती समारोह में शिवपाल शक्ति प्रदर्शन की तैयारी के साथ उतरे। इस दौरान लगे पोस्टरों से मुख्यमंत्री का नाम और चेहरा दोनों ही गायब रहे। भले ही शिवपाल अखिलेश की रथ यात्रा में शामिल होने पर मजबूर हुए हों, मगर यह कह कर कि वे मुख्यमंत्री के अधीन नहीं हैं, उन्होंने टकराव जारी रहने का संदेश दिया।
सवाल उठता है कि भाजपा के विरोध में बिहार की तर्ज पर महागठबंधन की सपा की कोशिश और अखिलेश की 'एकला चलो रे' की तर्ज पर निकाली गई विकास रथ यात्रा के आखिर क्या राजनीतिक निहितार्थ हैं? जवाब बेहद सीधा-सा है। निश्चित हार सामने देख अखिलेश की कोशिश इस रथयात्रा के जरिए पार्टी में सर्वमान्य नेता के रूप में उभरने की है। वहीं सपा अपनी और अखिलेश सरकार की नाकामियों को छिपाने और विधानसभा चुनाव में दिख रही स्पष्ट हार को टालने के लिए 'सेकुलरवाद पर खतरे' का हौवा खड़ा करने की जुगत में है। उसे लगता है कि हमेशा की तरह भाजपा के सत्ता में आने का भय दिखाकर न सिर्फ विपक्ष को गोलंबद किया जा सकता है, बल्कि मुस्लिम मतों का भी महागठबंधन के पक्ष में धु्रवीकरण करा कर अपनी डूबती सियासी नैया को बचाया जा सकता है। राज्य में सपा और बसपा के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती यह साबित करना है कि सियासी संग्राम की मुख्य धुरी बन चुकी भाजपा के साथ सिर्फ वही मुख्य मुकाबले में हैं।
यही कारण है कि कभी 'एकला चलो रे' का नारा देने वाली सपा कुनबे में जारी संग्राम के बीच किसी भी तरह जोड़-तोड़ कर भाजपा के खिलाफ एक महागठबंधन खड़ा कर लेना चाहती है, जिससे यह सियासी संदेश दिया जा सके कि भाजपा के खिलाफ मुख्य मुकाबले में बसपा नहीं, सिर्फ वही है।
सवाल उठता है कि क्या बिहार की तर्ज पर उत्तर प्रदेश में भाजपा के विरोध में महागठंधन की गुंजाइश है? और यह भी कि अगर सपा की कोशिशें रंग लाईं और विपरीत विचारधारा वाले दलों का बेमेल गठबंधन हो भी गया तो इसका सियासी परिणाम आखिर क्या होगा? कांग्रेस सपा के साथ जाना चाहेगी या बसपा के साथ? सबसे पहले तो उत्तर प्रदेश में बिहार की तर्ज पर महागठबंधन संभव ही नहीं है। बिहार में दो बड़ी सियासी ताकतों जदयू और राजद ने हाथ मिलाया था, जबकि उत्तर प्रदेश की दो बड़ी सियासी ताकतों सपा और बसपा में इस तरह के तालमेल की दूर-दूर तक संभावना नहींं है। बिहार के उलट उत्तर प्रदेश के दोनों तथाकथित सेकुलर सियासी दल सपा और बसपा अधिक से अधिक कांग्रेस, रालोद सहित छोटे और आधारहीन दलों का साथ हासिल कर सकते हैं। फिर बिहार में भाजपा को जदयू के साथ सरकार में शामिल होने का खामियाजा भुगतना पड़ा, जबकि उत्तर प्रदेश में बीते डेढ़ दशक में सपा और बसपा ने प्रत्यक्ष तो रालोद और कांग्रेस ने परोक्ष रूप से सत्ता सुख भोगा है। खासतौर से पहले बसपा और फिर सपा के शासनकाल में राज्य के लोग प्रशासनिक अराजकता, गुंडागर्दी, पिछड़ेपन और जाति की राजनीति का बेशर्म नाच देख चुके हैं।
2014 के चुनाव परिणामों ने दिखा दिया था कि आम जनमानस में जाति की घृणित राजनीति के इतर विकास और रोजगार की भूख बढ़ी है। यही कारण था कि इस चुनाव में बसपा का मुख्य जनाधार दलित बिरादरी बुरी तरह बंटी, जबकि सपा को अन्य पिछड़ी जातियां तो छोडि़ये यादव बिरादरी में ही सेंध की मार झेलनी पड़ गई। जहां तक कांग्रेस का सवाल है तो उसके सामने जल्द ही बसपा के रूप में भी एक विकल्प सामने आ सकता है। ऐसी स्थिति में कांग्रेस अधिक सीट देने वाले दल के साथ खड़ा होना चाहेगी। 1 नवंबर की देर रात जब कांग्रेस के चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर सपा प्रमुख मुलायम सिंह से मिले, इसकी बानगी साफ दिखाई दी। प्रशांत ने न सिर्फ कांग्रेस के लिए कम से कम 125 सीटें मांगीं, बल्कि अखिलेश को चुनावी चेहरा बनाने की भी शर्त रख दी। दरअसल बेमेल विचारधारा वाले दलों के महागठबंधन की कोशिशों ने राज्य में अपना आधार बुरी तरह गंवा चुकी कांग्रेस को बिहार की तर्ज पर ही बड़ा सियासी मौका दिया है। चूंकि उसके सामने बसपा के साथ भी जाने का विकल्प है, इसलिए पार्टी सपा से अधिक से अधिक सीटें मांग रही है। इसके जरिए वह बसपा को भी संदेश दे रही है। जाहिर तौर पर रालोद को भी साथ लाने की जुगत भिड़ा रही सपा कांग्रेस को बसपा की तुलना में सीटें नहीं दे पाएगी। ऐसे में वह बसपा का भी रुख कर सकती है। इस स्थिति में सपा-रालोद और बसपा-कांग्रेस का गठबंधन मूर्तरूप ले सकता है।
भाजपा के राष्ट्रीय सचिव श्रीकांत शर्मा कहते हैं कि सपा जनता के साथ मजाक कर रही है। जिस पार्टी से घर नहीं संभल रहा, वह पड़ोसियों (दूसरे दलों) के साथ एकता कायम करने की बात कर रही है। जनता समझ चुकी है कि परिवार तक न संभाल पाने वाले राज्य को नहीं संभाल पाएंगे। अखिलेश सरकार ने अपनी गुंडागर्दी, प्रशासनिक अराजकता और भ्रष्टाचार के सारे कीर्तिमान ध्वस्त कर दिए हैं।
खींचतान के बीच महागठबंधन कोशिश
मुलायम के कुनबे में संग्राम और बड़ा आकार लेता जा रहा है। कारण, मुलायम ने उस विवादास्पद नेता अमर सिंह के जरिए प्रशांत किशोर से बात की है, जिसे अखिलेश देखना तक गवारा नहीं कर रहे। फिर शिवपाल की ओर से अखिलेश समर्थक नेताओं की विदाई जारी है तो अखिलेश चुन चुन कर सरकार और प्रशासन में शिवपाल समर्थकों की खबर ले रहे हैं।अखिलेश के लिए नेताजी ने बुना जाल?
सियासी संग्राम का ऊंट धीरे धीरे जिस करवट बैठता दिख रहा है, उससे सियासी हलके में सवाल उठ रहा है कि सारी कवायद कहीं मुख्यमंत्री अखिलेश का कद बड़ा करने के लिए रचा गया सियासी ड्रामा तो नहीं थी? दरअसल इस महासंग्राम में सबसे अधिक नुकसान अखिलेश के चाचाओं को भुगतना पड़ा। एक चाचा रामगोपाल की पार्टी से छुट्टी हो गई तो दूसरे चाचा शिवपाल की सरकार से तो छुट्टी हुई ही, पार्टी में भी उनका कद बौना हो गया। जिस शिवपाल के सामने किसी कार्यकर्ता की आंख उठाने की हिम्मत नहीं थी, उन्हीं कार्यकर्ताओं ने विवाद टालने के लिए बुलाई गई बैठक में शिवपाल की प्रतिष्ठा की धुलाई कर दी।
पहली बार शिवपाल को अपने सामने कार्यकार्ताओं की गालियां सुननी पड़ीं तो अखिलेश ने सरकार से बाहर कर उनकी सियासी हैसियत को बौना बना दिया। कुल मिला कर वर्तमान स्थिति में सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष होने के नाते मुलायम संगठन के सर्वेसर्वा हैं तो अखिलेश सरकार के मुखिया। अखिलेश के लिए भविष्य का खतरा माने जाने वाले रामगोपाल पार्टी से बाहर हैं तो शिवपाल की कोई हैसियत नहीं बची है। एक अन्य विवादास्पद नेता अमर सिंह की स्थिति यह है कि वे विधानसभा चुनाव तक राज्य में जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाएंगे। दूसरी ओर अखिलेश ने शिवपाल को दूसरी बार मंत्रिमंडल से बाहर का रास्ता दिखा कर, फिर चुन चुन कर शिवपाल समर्थक मंत्रियों और अधिकारियों को बाहर का दरवाजा दिखा कर अपना कद बड़ा किया है। पर लाख टके का सवाल है कि जूतमपैजार के जरिए अखिलेश के कद को तराशने की मुलायम की मुहिम विधानसभा चुनाव में क्या रंग दिखाएगी। क्या संगठन में गहरी पकड़ रखने वाले शिवपाल पहले की तरह अखिलेश के समर्थन में चुनाव मैदान में मेहनत करते दिखेंगे? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिसका जवाब चुनाव के नतीजे से ही तय होगा।
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