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त बदलती है, प्रकृति नहीं। इसे सरल शब्दों में इस तरह कहा जा सकता है कि आदत आसानी से नहीं जाती। पाकिस्तान के मामले में आदत का यह अडि़यलपन साफ देखा जा सकता है। मुंबई, पठानकोट, उरी…भारत को एक के बाद एक लगातार घाव देने की नीति उसी तरह काम कर रही है जैसे करती रही है। भारत और पाकिस्तान में सरकारें बदलने से बेपरवाह।
भीतर भले चिंताओं का सागर लहराए तो भी ऊपरी तौर पर निश्चिंत मुद्रा। प्रश्न यह है कि भारत को निशाने पर रखने की यह मुद्रा केवल ढिठाई है या यह आदत पाकिस्तान की आवश्यकता में बदल गई है?
दूसरी बात की संभावना अधिक है। यही ज्यादा चिंता की बात भी है।
29 सितंबर की रात उरी के दुस्साहस का सर्जिकल स्ट्राइक द्वारा इलाज एक अभूतपूर्व घटना थी। अगर दंडात्मक कार्रवाई के मामले में भारतीय पक्ष के ठंडेपन को लेकर पाकिस्तानी पाले में कोई गलतफहमी लंबे समय पलती भी रही थी तो वह गलतफहमी इससे झड़ जानी चाहिए थी। भारतीय कमांडो दस्ते द्वारा आतंकी ठिकानों पर एकदम सटीक और सैन्य व राजनीतिक गलियारों को भीतर तक थर्रा देने वाले ऐसे प्रतिकार की वहां किसी को कल्पना भी नहीं थी। लेकिन जिस बात की कल्पना न हो ऐसी कार्रवाई की पुष्टि यदि पाकिस्तान कर देता तो उसके घर के भीतर ही भ्रम के कई गढ़ ढह जाते। इन ढहते गढ़ों की मजबूती का झूठ जनता के सामने बनाए रखना ही पाकिस्तान की मजबूरी है।
यही वह मोड़ है जहां आदत आवश्यकता में परिवर्तित हो जाती है। पाकिस्तान का सतत भारत विरोध क्या है, यह समझना जरूरी है। यह केवल विभाजन की ऐसी टीस नहीं है जो विकास के पैमाने भारत के मुकाबले पिछड़ने के कारण और तीखी हो उठी हो। यह उस नींव पर उठने वाले प्रश्न भी नहीं हैं जिन्हें विभाजन के मुस्लिम पैरोकारों द्वारा 'अमन-तरक्की' का सुनहरा पायदान बताया गया था लेकिन भरमाए गए लोगों को हिंसा और पिछड़ेपन के बियाबान में छोड़ दिया गया।
बात इससे आगे की है।
जनता के लिए भले यह बियाबान हो लेकिन यहां उसकी किस्मत की कमान थामने वालों के हितों के जंगल खड़े हैं।
लोकतांत्रिक विश्व के भीतर पाकिस्तान का सैन्यतंत्र ऐसा है जो व्यापार और राजनीति में अन्य किसी के मुकाबले ज्यादा दिलचस्पी और दखल रखता है।
सरकार कोई हो, सेना का राजनीति और व्यापार को धकेलने वाला इंजन उसी तरह धुंआ फेंकता रहता है। इस धौंकनी ने उद्यमिता और विकास का दम फुला दिया। लोकतंत्र को मानो राख कर दिया। पकिस्तान में राजनेता कठपुतली हैं, विकास नदारद और सिक्का चलता है तो सिर्फ जनरलों का। शासकों की पूंछ पांव के नीचे रखने वाले, आंखें दिखाने वाले को फांसी के तख्त पर चढ़ा देने वाले जनरलों की हनक पिछले सातेक दशकों से जनता के मन में बैठी और बैठाई गई है। इस हनक का टूटना यानी मेहनत से चढ़ाए 'इस्लामी निष्ठा' के रखवालों की ताकत के मुलम्मे का उतर जाना। नेता-सेना-आतंकी नेटवर्क की जतन से जमाई परतों का उधड़ जाना, और अंतत: पाकिस्तान का बिखर जाना।
इसलिए पाकिस्तान की हनक तोड़ने वाली सर्जिकल स्ट्राइक से दहलने के बावजूद पाकिस्तान ने उसे नहीं स्वीकारा। पाकिस्तान चाहता है कि 29 सितंबर की भारतीय कार्रवाई रात के अंधेरों में दबी रहे, जनता देखे तो सिर्फ जनरलों की दिलेरी, जिहादियों को हर हाल में समर्थन देने का जज्बा और पाकिस्तानी चालों के आगे पस्त पड़ोसी..। नवंबर अंत में सेवानिवृत हो रहे पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष राहिल शरीफ के लिए यह पैंतरा जरूरी है। पनामा पेपर्स से पिटे उनके चचेरे भाई नवाज शरीफ के लिए भी जनता का ध्यान घर के भीतर छिपी कालिख से हटाना जरूरी है लेकिन पाकिस्तान के लिए जरूरी क्या है? भ्रष्टाचार के कुलांचे भरती और विकास की लंगड़ी चाल चलती सेना और सत्ता एक दूसरे की बैसाखी बने-बने कहीं दुस्साहस के उस कगार पर तो नहीं आ पहुंचीं जहां से उनका फिसलना तय है?
सत्ता और सैन्य हितों की रक्षा के लिए, जनता का ध्यान भटकाने के लिए सीमापर पाकिस्तान गोलीबारी और तेज हो सकती है, इसकी पूरी संभावना है। विश्व को आतंक का निर्यात करने वाली, क्षुद्र हितों को पोसने वाली विषैली सोच नए क्षेत्रीय संकटों को न्योता दे रही है।
बहरहाल, भारतीय सीमा पर गोलीबारी चाहे पाकिस्तान की आदत हो या वहां के आंतरिक शक्ति द्वंद्व की आवश्यकता, यह नाजुक समय में की गई ऐसी भारी भूल साबित हो सकती है जो क्षेत्र का भूगोल बदल सकती है।
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