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प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 15 अगस्त को लाल किले की प्राचीर से पीओके में पाकिस्तान के विरुद्ध उबल रहे असंतोष की तरफ एक परोक्ष संकेत किया। यह भारत सरकार की नीति में आ रहे महत्वपूर्ण बदलाव की ओर तो नहीं? भारत के अभिन्न अंग जम्मू-कश्मीर को संपूर्ण स्वरूप में लाने के लिए इसके पाकिस्तान
आशुतोष भटनागर
लाल किले की प्राचीर से 15 अगस्त को राष्ट्र को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश के प्राय: हर प्रश्न पर प्रकाश डाला। लेकिन बलूचिस्तान, गिलगित और पाकिस्तान अधिक्रांत कश्मीर (पीआके) के लोगों द्वारा दिये गये धन्यवाद का आभार जताने वाला उनका एक वाक्य कई दिनों बाद भी आज चर्चा में बना हुआ है। ऐसा इसलिये क्योंकि इस एक वाक्य ने पाकिस्तान की नीयत और नियति, दोनों पर सवाल खड़ा कर दिया है।
यद्यपि उन्हें धन्यवाद किसने और क्यों दिया, इसका उल्लेख भाषण में न होने पर भी यह स्पष्ट है कि यह धन्यवाद उन्हें कश्मीर की स्थिति पर आयोजित सर्वदलीय बैठक में इन क्षेत्रों में पाकिस्तान द्वारा किये जा रहे मानवाधिकार के उल्लंघन के उल्लेख के लिये मिला है। यह भी साफ है कि इस्लामाबाद में प्रधानमंत्री नवाज शरीफ द्वारा अपने स्वतंत्रता दिवस को 'कश्मीर के जंगजुओं' के प्रति समर्पित करने के बाद ही इसे संबोधन में शामिल किया गया। शरीफ को यह बताने के लिये कि नियति का चक्र घूम चुका है, प्रधानमंत्री मोदी का यह उल्लेख आवश्यक था।
प्रधानमंत्री मोदी की सबसे बड़ी खूबी यह है कि वे जन-नेता हैं। वे समझते हैं कि देश की जनता उनसे क्या सुनना चाहती है और वही वे बखूबी बोलते हैं। कश्मीर में जो दशकों से चल रहा है और हाल के दिनों में उसमें जिस प्रकार की तेजी आयी है उससे जनमानस में यह बात पल रही थी कि बस, बहुत हो गया। अब अलगाववादियों और उन्हें पीछे से समर्थन देने वाले पाकिस्तान को कठोर संदेश दिया जाना चाहिये। मोदी ने इसे समझा और संदेश दे दिया।
कुछ भी हो, पाकिस्तान अधिक्रांत जम्मू- कश्मीर की बात भारत की ओर से पहली बार इतनी मजबूती के साथ कही गई है। अब कांग्रेस कह रही है कि नरसिंहाराव भी ऐसा ही प्रस्ताव लाये थे। यह ठीक है, लेकिन वे इसे तब लाये थे जब पाकिस्तान के जाल में उलझ ही गये थे और उससे बचने के लिये ऐसा करना जरूरी हो गया था। साथ ही कांग्रेसी प्रवक्ताओं को यह भी याद रखना चाहिये कि उस स्थिति में भाजपा न केवल उनके साथ खड़ी रही अपितु इसकी काट के लिये नरसिंहाराव ने प्रतिनिधिमण्डल के अध्यक्ष के रूप में तत्कालीन नेता प्रतिपक्ष श्री अटल बिहारी वाजपेयी को ही चुना था। सवाल यह भी है कि उनके द्वारा लाये गये प्रस्ताव को आगे ले जाने की कितनी कोशिश की गई? भारत और भारतीय राजनीति, दोनों ही अब नरसिंहाराव के दौर से बहुत दूर निकल आये हैं। आज देश में पूर्ण बहुमत की सरकार है। मोदी के नेतृत्व के बारे में भी यह धारणा बनी है कि निर्णय लेने पर वे उसे पूरा करने की कोशिश करते हैं। ऐसे में लाल किले से प्रधानमंत्री द्वारा कही गई बात का असर कहीं ज्यादा है।
बलूचिस्तान के उल्लेख का दायरा अलग है, जिस पर चर्चा अलग से होनी चाहिये। लेकिन गिलगित-बाल्टिस्तान और पाकिस्तान अधिक्रांत जम्म-कश्मीर, दोनों ही क्षेत्र वैधानिक रूप से भारत के अभिन्न अंग हैं। और जब अभिन्न अंग कहा जाता है तो वहां के निवासी, जो 26 अक्तूबर 1947 को इस क्षेत्र में रह रहे थे, और उनके वंशज भी भारत के नागरिक का हक रखते हैं। इसलिये अगर ये नागरिक पाकिस्तान के अत्याचारों और लूट-खसोट से त्रस्त हैं तो भारत की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह उनकी चिन्ता करे।
पाकिस्तान इस क्षेत्र में वही सब हथकंडे दोहरा रहा है जो चीन दशकों से तिब्बत, पूर्वी तुर्किस्तान और 'इनर मंगोलिया' में अपना रहा है। जिस तरह चीन तिब्बत में चीनी जनसंख्या को बसा कर मूल तिब्बतियों को जातीय तौर पर अल्पसंख्यक बना रहा है और जनसांख्यिक बदलाव के द्वारा वहां अपने विरोध को प्रभावहीन बना रहा है, वही कार्य पाकिस्तान गिलगित-बाल्टिस्तान में पंजाबीभाषी एवं पख्तून-सुन्नी मुस्लिम जनसंख्या को बसा कर और वहां के व्यापार और नौकरियों में उनकी संख्या बढ़ा कर करना चाहता है।
पाकिस्तान की कुख्यात खुफिया एजेन्सी आईएसआई इस इलाके में आतंकवादियों के प्रशिक्षण शिविर चलाती है, वहीं वह स्थानीय निवासियों को उनके कबीलाई रीति-रिवाजों और परम्पराओं से दूर कर उनके अरबीकरण में जुटी है। इसके लिये वह आतंकवादी गुटों का भी सहारा लेती है। इसका विरोध करने वाले स्थानीय नेताओं को राजद्रोह के आरोप में जेलों में ठूंस दिया जाता है और उनका उत्पीड़न किया जाता है।
पाकिस्तान अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर में हो रहे प्रदर्शन पाकिस्तान की पोल खोल रहे हैं। हाल ही में हुए चुनाव में धांधली के कारण स्थानीय लोगों का गुस्सा फूट पड़ा है। नवाज शरीफ की पार्टी यहां चुनाव जीती है, जिसके विरोध में 'गो नवाज गो' के नारे गूंज रहे हैं। नीलम घाटी में लोगों को वोट नही डालने दिया गया तो उन्होंने पाकिस्तान का झंडा जलाकर अपना गुस्सा निकाला।
चुनावी प्रक्रिया और नतीजों के विरोध में मुजफ्फराबाद, कोटली, चिनारी और मीरपुर में लोग भारी संख्या में पाकिस्तान सरकार के खिलाफ सड़कों पर उतर आये। उनका आरोप है कि आईएसआई ने नवाज शरीफ की पार्टी पाकिस्तान मुस्लिम लीग के पक्ष में जमकर धांधली की जिसकी वजह से उसे 41 में से 32 सीटों पर जीत मिली। पाकिस्तान के कब्जे वाले जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तानी सेना पर लगातार मानवाधिकार उल्लंघन के आरोप लगते रहते हैं। चुनाव के दौरान भी यहां सेना द्वारा पकड़े गये लोगों में से तीन के शव मीरपुर और मुजफ्फराबाद से मिले। इन शवों पर उन गोलियों के निशान थे जिसका इस्तेमाल पाकिस्तानी सेना करती है।
अगर भारत का प्रधानमंत्री लालकिले से उनका आभार जताता है तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है। यहां बात केवल उनके उल्लेख की ही नहीं है। पाकिस्तान से निरंतर युद्ध की मुद्रा में रहते हुए भी न तो उसके कब्जे वाले हिस्से पर कभी ठोस बात की गई और न ही वहां के निवासियों, जो गत सात दशक से भारत में विभिन्न स्थानों पर विस्थापित के रूप में रह रहे हैं, के पुनर्वास की बात सिरे चढ़ी। इन उल्लेखों का कोई ठोस असर तब तक हो भी नहीं सकता जब तक कि धरातल पर इसके लिये प्रयास न हों।
ऐसा नहीं है कि यह बहस हाल में ही सर्वदलीय बैठक के बाद उठ खड़ी हुई है। इसकी भूमिका तभी लिख दी गई थी जब 2015 में दोनों देशों के बीच 1965 में हुए युद्ध के 50 साल पूरे हुए थे। इस युद्ध में बुरी तरह मुंह की खाने के बाद भी पाकिस्तान ने अपनी जनता के बीच यह भ्रम फैलाने की कोशिश की थी कि वह युद्ध जीत गया है। इस झूठ को बरकरार रखना उसकी मजबूरी है। नतीजा यह हुआ कि उसे अपनी इस झूठी जीत की स्वर्ण जयंती का भी आयोजन करना पड़ा। तब भी दोनों देशों के राजनैतिक और सैनिक नेतृत्वों के बीच गर्मा-गर्म बयानों का आदान-प्रदान हुआ था ।
पूर्ववर्ती जम्मू कश्मीर रियासत के मीरपुर-मुजफ्फराबाद वाले हिस्से, जिस पर अक्तूबर 1947 में आक्रमण कर पाकिस्तान ने कब्जा कर लिया था, को 'गुलाम कश्मीर' पुकारने की शुरुआत प्रतिक्रियास्वरूप हुई। पाकिस्तान ने लगभग 13 हजार वर्ग किमी. ये फैले इस भू-भाग पर मुस्लिम लीग के लोगों के साथ साजिश कर एक कथित आजाद सरकार का गठन करा दिया ताकि दुनिया के सामने इसे स्थानीय विद्रोह साबित किया जा सके। उसने इसे आजाद जम्मू- कश्मीर और भारत के नियंत्रण वाले क्षेत्र को 'गुलाम कश्मीर' कहना शुरू किया। प्रतिक्रिया में भारतीय मीडिया ने पाकिस्तान के कब्जे वाले क्षेत्र को 'गुलाम कश्मीर' कहना शुरू कर दिया। सच तो यह है कि न तो वह आजाद कश्मीर है और न ही यह गुलाम। तकनीकी और संवैधानिक दृष्टि से जम्मू-कश्मीर एक सम्पूर्ण इकाई है जो भारत का अभिन्न अंग है।
इसके साथ ही, इस तथ्य को भी नहीं भुलाया जाना चाहिये कि कथित आजाद या गुलाम कश्मीर ही संघर्ष का केन्द्रबिन्दु नहीं है। यह पाकिस्तान की कूटनीतिक चाल है जिसे 40, 50 और 60 के दशक में अंतरराष्ट्रीय सहमति हासिल थी। इसके साथ ही 'गिलगित-बाल्टिस्तान' की लगभग 65,000 वर्ग किमी. भूमि पाकिस्तान के अवैध कब्जे में है। यह लद्दाख का इलाका है और इसका कश्मीर से प्रत्यक्ष कोई संबंध नहीं है। रणनीतिक दृष्टि से यह अत्यंत महत्वपूर्ण है और प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर है। इस पर चर्चा से बचने के लिये ही कथित पीओके का मसला हमेशा उछाला जाता है।
यहां यह भी उल्लेखनीय है कि 1962 के युद्ध के समय चीन ने अक्साईिचन के लगभग 36 हजार वर्ग किमी. क्षेत्र पर कब्जा कर लिया था। 1963 में पाकिस्तान और चीन के बीच हुए एक समझौते के तहत अक्साईिचन से लगने वाले पाकिस्तान अधिक्रांत जम्मू कश्मीर के एक हिस्से 'शक्सगाम घाटी' को चीन के अधिकार में दे दिया गया। चीन ने इस पर कराकोरम हाइवे का निर्माण किया है। फिर भी भारत की ओर से कड़ा संदेश देने की कोशिश कभी नहीं की गयी, कभी इसका प्रतिरोध नहीं किया गया। भारत की चुप्पी ने हमेशा उनके हौसले को बढ़ाया।
सरकार के लिये यह उचित समय है जब जम्मू-कश्मीर के मामलों को पूरी तौर पर सुलझा लिया जाए। इसके लिये पाकिस्तान या दुनिया के किसी भी देश की सहमति अथवा मध्यस्थता की नहीं बल्कि दृढ़ संकल्प की आवश्यकता है। यदि केन्द्र सरकार यह दृढ़ता और साहस दिखाती है तो उसे पूरे देश का विश्वास प्राप्त होगा, इसमें जरा भी संदेह नहीं है।
पाकिस्तान अधिक्रांत जम्मू कश्मीर
पाकिस्तान और चीन अधिक्रांत जम्मू कश्मीर पर कोई नीतिगत निर्णय लेने से पहले हमें इस भू-भाग को अपने विचार के केन्द्र बिन्दु में लाना होगा। पीओके जैसी चालू शब्दावली इस मुद्दे के महत्व और गंभीरता को कम करती है। हमें मीरपुर, मुजफ्फराबाद, गिलगित, बाल्टिस्तान, शक्सगाम घाटी और अक्साईिचन की बात एक साथ करने का अभ्यास करना होगा और जम्मू कश्मीर तथा भारत की भौगोलिक एकात्मता के लिये निरंतर प्रयत्न करने होंगे। एवं भारत के लिये इस क्षेत्र का महत्व समझना होगा।
गिलगित वह क्षेत्र है जहां 6 देशों की सीमाएं मिलती हैं—पाकिस्तान, अफगानिस्तान, तजाकिस्तान, चीन, तिब्बत एवं भारत। यह मध्य एशिया को दक्षिण एशिया से जोड़ने वाला दुर्गम क्षेत्र है जो सामरिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है तथा जिसके द्वारा पूरे एशिया में प्रभुत्व बनाये रखा जा सकता है। 1935 में जब सोवियत रूस ने तजाकिस्तान को रौंद दिया तो अंग्रेजों ने गिलगित के महत्व को समझते हुये महाराजा हरिसिंह से समझौता कर वहां की सुरक्षा व प्रशासन की जिम्मेदारी अपने हाथ में लेने के लिये गिलगित के एक हिस्से को 60 वर्ष के लिये पट्टे पर ले लिया। उन्होंने इसे गिलगित एजेन्सी नाम दिया। 1947 में यह क्षेत्र उन्होंने महाराजा को वापस कर दिया। इसकी सुरक्षा के लिये अंग्रेजों ने एक अनियमित सैनिक बल गिलगित स्काउट्स का भी गठन किया।
ब्रिटेन अपने आर्थिक हितों को देखते हुए मध्यपूर्व के देशों के साथ जोड़ने वाले इस सड़क मार्ग पर अपना अधिकार बनाये रखने तथा रूस और चीन के विस्तार को रोकने के लिये गिलगित एजेन्सी को रणनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण मानता था। अमेरिका भी पहले गिलगित पर अपना प्रभाव बनाए रखना चाहता था और एक समय चीन के बढ़ते प्रभुत्व को रोकने के लिये सोवियत रूस की भी ऐसी ही इच्छा थी। इसकी सीमाएं पश्चिम में खैबर-पख्तूनख्वा (पाकिस्तान) से, उत्तर में अफगानिस्तान के वाखन गलियारे तथा उत्तर-पूर्व में चीन से मिलती हैं। गिलगित-बाल्टिस्तान का कुल क्षेत्रफल 72,971 वर्ग किमी. (28,174 मील) है और वर्तमान अनुमानित जनसंख्या पंद्रह लाख है।
काराकोरम राजमार्ग के साथ-साथ हुन्जा और शतियाल के बीच लगभग दस मुख्य स्थानों पर पत्थरों को काट कर और चट्टानों को तराश कर बनाये गये स्थापत्य कला के लगभग 20,000 से अधिक इन्हें नमूने मिलते हैं। इन्हें मुख्यत: इस व्यापार मार्ग का प्रयोग करने वाले व्यापारियों और तीर्थयात्रियों के साथ-साथ स्थानीय लोगों ने भी उकेरा है। इन नमूनों में अनेक तो 5,000 और 1,000 ईसापूर्व के बीच के हैं। पुरातत्वविद् कार्ल जेटमर ने इन कला के नमूनों के माध्यम से इस पूरे इलाके के इतिहास को अपनी पुस्तक 'बिटवीन गंधार एंड द सिल्क रूट- द रॉक काविंर्ग अलोंग द कराकोरम हाइवे' में दर्ज किया है।
विधिक स्थिति
26 अक्तूबर, 1947 को जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन महाराजा हरि सिंह ने अपने राज्य का भारत में विधिवत विलय किया था। भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 के अंतर्गत यह एक वैधानिक प्रावधान था जिसका पालन महाराजा ने किया तथा तत्कालीन गवर्नर जनरल माउंटबेटन ने इसे स्वीकार किया। यह निर्णय करने के एकमात्र अधिकारी यद्यपि महाराजा स्वयं थे किन्तु इसमें उनके धुर विरोधी तथा बाद में वहां के प्रधानमंत्री रहे शेख अब्दुल्ला की सहमति भी शामिल थी।
संयुक्त राष्ट्र द्वारा पाकिस्तान को बहुत पहले ही पाकिस्तान अधिक्रांत क्षेत्र को खाली करने को कहा जा चुका है। पाकिस्तान का सवार्ेच्च न्यायालय अपने ऐतिहासिक निर्णय में 1994 में यह स्पष्ट कर चुका है कि गिलगित-बाल्टिस्तान जम्मू कश्मीर का हिस्सा है और पाकिस्तान के संविधान के अनुसार जम्मू-कश्मीर पाकिस्तान का हिस्सा नहीं है। इसके बावजूद भारत ने इस मुद्दे पर कठोरता से बात करने की जहमत नहीं उठाई। इससे पूर्व 29 अगस्त, 2009 में पाकिस्तान ने गिलगित-बाल्टिस्तान में विधानसभा का गठन कराया तो भी भारत ने बस विरोध की चिट्ठी लिख कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली। जिस इलाके को वहां का संविधान ही देश का भाग स्वीकार नहीं करता और जो वैधानिक रूप से भारत का अभिन्न अंग है, उसमें पाकिस्तान द्वारा विधानसभा के गठन को जिस तीव्रता के साथ चुनौती दी जानी चाहिये थी, उसके लिये भारत की ओर से इच्छाशक्ति के अभाव के साथ ही घोर लापरवाही का परिचय दिया गया। यही कारण है कि आज पाकिस्तान ने एक कदम आगे बढ़ कर उसे पूरे तौर पर निगल जाने की भूमिका बनानी शुरू कर दी है।
जम्मू कश्मीर की जब भी बात की जाती है तो नियंत्रण रेखा के दोनों ओर के जम्मू कश्मीर का विचार करते हुए बात की जानी चाहिये। भारत, जो इस बात पर गर्व करता है कि वह दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, नियंत्रण रेखा के पार अपने ही नागरिकों पर होते अत्याचार और नस्लीय हमलों के प्रति आंख मूंद कर कब तक रह सकता है? क्या देश उस नैतिक जिम्मेदारी से हट सकता है जो राज्य के लोगों ने पाकिस्तान के आक्रमण के बावजूद भारत में विलय का समर्थन करके हमारे ऊपर डाली थी? मीरपुर, मुजफ्फराबाद, भिम्बर, कोटली, किशनगंगा घाटी, शारदा घाटी, गिलगित, बाल्टिस्तान, हुंजा नगर, खापलू और स्कर्दू, दायमर और घेजर, गौरीकोट और आलियाबाद सहित अनेक नगरों-गांवों के नागरिक भारत के वैधानिक नागरिक हैं और उनके मानवाधिकारों की रक्षा और भारत के संविधान के अनुसार उनके मूल अधिकार सुनिश्चित करना भारत सरकार की जिम्मेदारी है।
पाकिस्तान अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर के विस्थापित
हालात उनके भी उतने ही बदतर हैं जो 1947 में अपनी जान बचा कर भारत में प्रवेश करने में सफल रहे। पाकिस्तान अधिक्रांत क्षेत्र से विस्थापित होकर भारत में शरण लेने वाले लोगों की जनसंख्या आज 10 लाख से ज्यादा हो चुकी है। स्वतंत्र भारत की सरकार आज तक उनके पुनर्वास की कोई योजना बनाना तो दूर, उनका पंजीकरण भी नहीं कर सकी है। इन 65 वषार्ें में उनकी तीन पीढि़यां हो चुकी हैं और चौथी पीढ़ी बुढ़ापे की ओर बढ़ रही है।
भारत के अंदर जब तिब्बत की निर्वासित सरकार चुनी जा सकती है तो पाकिस्तान अधिक्रांत क्षेत्र के लोगों को जम्मू कश्मीर विधान सभा और भारत की लोकसभा में प्रतिनिधित्व क्यों नहीं दिया जा सकता? यदि पाकिस्तान ने उस क्षेत्र पर अवैध कब्जा न किया होता तो भी तो वे अपने प्रतिनिधियों को चुनकर श्रीनगर अथवा दिल्ली ही भेजते।
पाकिस्तान के अवैध कब्जे को आधार बना कर भारत में रह रहे वहां के नागरिकों को उनके लोकतांत्रिक अधिकार से वंचित रखना लोकतांत्रिक अवधारणा के विरुद्ध है। इन सारे प्रश्नों को हल करने और नियंत्रण रेखा के दोनों ओर बसे उन भारतीय नागरिकों, जिनका भविष्य विलय के पश्चात भारत के शेष नागरिकों के साथ जुड़ गया है, के मानवाधिकारों की बहाली तथा विकास की यात्रा में देश के शेष नागरिकों के साथ कदम मिला कर चलने का अवसर उपलब्ध करना एक लोकतंत्र के रूप में भारत की जिम्मेदारी है। इससे जितनी देर तक नजरें चुराने की कोशिश होगी, उतनी ही जटिलता बढे़गी।
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