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णिपुर के लोगों का यह यकीन ही था जिसने पन्द्रह साल नौ महीने अनवरत ईरोम को उपवास में रहने के लिए प्रेरित किया। 08 अगस्त, 2016 को अपना उपवास औपचारिक रूप से तोड़ने का निर्णय ईरोम चानू शर्मिला ने लिया है, लेकिन उपवास के साथ उनका 'अफस्पा' (आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट) को राज्य से खत्म कराने का संकल्प खत्म नहीं हो रहा। उसके लिए वह आगे भी अपनी लड़ाई जारी रखेंगी।
बात कुछ वर्ष पहले की है। उन दिनों ईरोम को उपवास करते हुए छह वर्ष हो चुके थे। उस दौरान ईरोम दिल्ली आई थीं। उनके दिल्ली में रहते हुए सरकार पर दबाव बना था कि वह अफस्पा को वापस लेने पर विचार कर रही है। लेकिन अचानक ईरोम की वापसी हो गई। इस संबंध में उस दौरान उनके बड़े भाई ईरोम सिंहजीत सिंह से बात हुई थी। उन्होंने बताया था कि यह सच है कि उस वक्त प्रधानमंत्री की तरफ से कुछ इस तरह के संकेत मिले थे कि इस कानून को हटाने के लिए वे गंभीर हैं। इसलिए मैं मणिपुर लौट आया, यह मुझसे गलती हुई।
सिंहजीत अपनी बहन की लड़ाई में पूरी ताकत से जुड़े हुए हैं। उन्होंने इस कानून को हटाने के लिए मणिपुर के 60 विधायकों से संपर्क किया था, लेकिन उनका अनुभव अच्छा नहीं रहा। सिंहजीत के अनुसार, ''इस कानून को हटाने के लिए राज्य सरकार का फैसला जरूरी है। मैंने सोचा कि अपने विधायकों से बात करने से बात बन जाएगी। वे लोग विधान सभा में इसके खिलाफ प्रस्ताव पारित कर देंगे और यह कानून हटाने में वह मिल का पत्थर साबित होगा। लेकिन इस विषय में बात करके मैं निराश हुआ, क्योंकि हमारे राज्य के प्रतिनिधि ही इस कानून को हटाने के प्रस्ताव पर सहमत नहीं हुए।''
ईरोम शर्मिला इस बात को बेहतर तरीके से अपने उपवास के दौरान समझी हैं कि वह अपनी राजनीतिक लड़ाई को राजनीति के माध्यम से ही हल कर सकती हैं। इसलिए अब ईरोम ने चुनाव लड़ने का निर्णय लिया है।
ईरोम शर्मिला ने अपना उपवास पश्चिमी इंफाल के मालोम गांव में 10 नागरिकों की असम राइफल्स के सैनिकों द्वारा हत्या किए जाने के विरोध में प्रारंभ किया था। अब ईरोम अपना उपवास खत्म करने का निर्णय ले चुकी हैं। उनके दु:ख की वजह यह भी है कि इतने लंबे समय तक जारी रहे उनके संघर्ष का कोई खास असर समाज पर नहीं हुआ। इसलिए वे अपनी रणनीति को अब बदल रही हैं। ईरोम कहती हैं कि उनका व्रत जान देने की कोशिश नहीं है, बल्कि सेना को मणिपुर में दिए गए असीमित अधिकारों का विरोध है। अब तक होता यह रहा है कि हर साल ईरोम को जेल से रिहा किया जाता है और फिर 24 घंटे में उन्हें फिर आईपीसी की धारा 309 (आत्महत्या का प्रयास) के अन्तर्गत मामला दर्ज करके, गिरफ्तार कर लिया जाता है। शर्मिला अब तक जिस जवाहर लाल नेहरू इन्स्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस में नजरबंद रही हैं, वह पूर्वी इंफाल में उनके घर के पास ही है।
बात 2004 की है। उन दिनों ईरोम का व्रत जारी था, तब असम राइफल्स के जवानों के हाथों थांगजाम मनोरमा देवी की हत्या हुई थी। उसके बाद इसके खिलाफ जबर्दस्त विरोध प्रदर्शन हुआ और इसी का परिणाम था कि इंफाल के सात विधानसभा क्षेत्रों से अफस्पा हटा लिया गया।
ईरोम के उपवास खत्म करने की पूरे देश में चर्चा हो रही है। हर तरफ स्वागत हो रहा है। लेकिन जो गैर-सरकारी संस्थाएं (एन.जी.ओ.) मणिपुर में ईरोम को हाथों-हाथ लेकर चलती थीं, वे खुश नहीं हैं। वैसे तनातनी 2011 से ही जारी है। उनके भाई ईरोम सिंहजीत सिंह भी मीडिया से इस विषय में बात नहीं कर रहे। सिंहजीत इस वक्त देखना चाहते हैं कि इस निर्णय पर देशभर से क्या प्रतिक्रिया आ रही है। सिंहजीत के अनुसार, ''ईरोम ने यह निर्णय लेने से पहले उनसे कोई चर्चा नहीं की।'' सिंहजीत लंबे समय तक एक गैर सरकारी संस्था के लिए काम करते रहे थे। अब वे ईरोम शर्मिला के उपवास के समर्थन में बनी गैर सरकारी संस्था 'जस्ट पीस फाउंडेशन' में अहम भूमिका निभा रहे हैं।
वैसे ईरोम शर्मिला के व्रत में कई लोगों की रुचि अपनी-अपनी वजहों से थी। मणिपुर में बैठकर ईरोम शर्मिला की 'ब्रांडिंग' पूरी दुनिया में करने वाली चंदा-बाज कुछ गैर सरकारी संगठनों को यह अच्छा नहीं लगता था, जब ईरोम शर्मिला खुद को एक साधारण लड़की बताती थीं। अब भी मणिपुर की वे गैर-सरकारी संस्थाएं, जो ईरोम के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रही थीं, उन्होंने इशारों-इशारों में ईरोम और उसके परिवार तक यह संदेश पहुंचा दिया कि ईरोम उनके एजेण्डे पर आगे चलेंगी, तभी उनका सहयोग उन्हें जारी रहेगा।
मणिपुर से मिल रही जानकारी के अनुसार ईरोम शर्मिला अपने उपवास की समाप्ति के बाद गैर-सरकारी संगठनों के साथ एक बैठक में शामिल होंगी। जहां उनके राजनीतिक भविष्य पर चर्चा होगी। पिछले 16 साल में जब भी ईरोम को रिहा किया गया, वे अपनी रिहाई का पूरा समय इन्हीं गैर-सरकारी संगठनों के मित्रों के साथ ही बिताती थीं। लेकिन अब मणिपुर में समय बदल रहा है। मणिपुर के एक मित्र ने बताया कि राज्य के कुछ एनजीओ ने ईरोम के व्रत खत्म करने की घोषणा से नाराज होकर उनकी तस्वीर अपने कार्यालय की दीवार से उतार दी है। यदि ईरोम ने आगे भी उनके इशारों पर चलने से इंकार किया तो उनके खिलाफ ये संगठन किसी भी तरह का षड्यंत्र कर सकते हैं।
न्यायालय ने पिछले दो दशक में मणिपुर के उन 1,528 मामलों की जांच का आदेश दे दिया है, जिन मामलों में कथित तौर पर अफस्पा की वजह से जांच नहीं हो पाई थी। यह फैसला वास्तव में ईरोम की लड़ाई की ही आंशिक जीत है।
मणिपुर के गैर-सरकारी संगठनों की रुचि ईरोम की जीत-हार में नहीं है और न ही उनकी रुचि ईरोम के प्रेम में है। ये संगठन ईरोम की एक ऐसी छवि गढ़ कर दुनिया के सामने प्रस्तुत करना चाहते हैं, जो उनके लिए पैसा कमाने की मशीन बनी रहे। जिस प्रकार गुजरात में गुलबर्गा सोसायटी और जकिया जाफरी को प्रतीक बनाया गया। जकिया जाफरी का परिचय था, एहसान जाफरी की बेवा। एहसान जाफरी की हत्या 2002 में गुजरात दंगों के दौरान हो गई थी। इसके बाद कथित रूप से सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ जकिया को लेकर मुसलमानों के बीच जाती थीं। जहां जकिया अपना और गुलबर्ग सोसायटी के दूसरे पीडि़तों का रोना रोकर पैसे इकट्ठा करती थीं। बाद में गुुलबर्ग सोसायटी में रहने वालों की शिकायत पर ही तीस्ता का प्रवेश गुलबर्ग में प्रतिबंधित हुआ। मजे की बात तो यह है कि गुलबर्ग सोसायटी के पीडि़तों के नाम पर जो पैसा जमा हुआ वह पीडि़तों के कल्याण पर खर्च नहीं हुआ। गुलबर्ग सोसायटी में दिवंगत एहसान जाफरी के पड़ोसी फिरोज खान पठान ने बताया था कि किस प्रकार विदेशों से उनके जानने वाले फोन करते थे, ''तीस्ता और जकिया आए हुए हैं। कार्यक्रम में तुम्हारी और तुम्हारे भाई की तस्वीर लगी हुई है। तुम सबके अन्य पीडि़तों के नाम पर पैसों की उगाही हो रही है।''
फिरोज के अनुसार कार्यक्रमों में उनके भाई और उनकी तस्वीर इस्तेमाल की जाती थी, लेकिन इसके लिए जकिया या तीस्ता ने अनुमति तक नहीं मांगी थी।
विदेशी पैसों के लिए कभी एहसान जाफरी, तो कभी ईरोम शर्मिला की तरह की मूर्तियां गढ़ी जाती हैं। पिछले तीन साल में इस देश में विदेशों से गैर-सरकारी संस्थाओं के खाते में 50,000 करोड़ से अधिक की रकम आई है। सिर्फ वर्ष 2014-15 में 22,000 करोड़ रुपए का विदेशी धन भारतीय गैर-सरकारी संस्थाओं के खातों में आया है। इसमंे प्रमुख है विलिवर चर्च इंडिया, जिसे पिछले साल 190 करोड़ रुपए विदेशों से हासिल हुआ। इसी प्रकार इंडियन सोसायटी चर्च ऑफ जीसस क्राइस्ट ऑफ लेटर डे संेट्स के पास 130 करोड़ रुपए विदेशों से आए।
ईरोम के जीवन से जुड़े निर्णयों पर गैर सरकारी संगठनों का कितना प्रभाव है, इसको देश ने वर्ष 2011 में समझा। पत्रकारों के समूह से इसी साल ईरोम मिली थीं और पहली बार उन्होंने अपने प्रेम का इजहार मीडिया के सामने किया था। उन्होंने मीडिया को बताया था कि वह गोवा में जन्मे ब्रिटिश मूल के डेगमन कोटिनो के साथ प्रेम करती हैं और स्थानीय गैर सरकारी संगठन से जुड़े लोग डेगमन के साथ अच्छा व्यवहार नहीं कर रहे। ईरोम ने यह भी बताया था कि गैर-सरकारी संगठन के लोग उनके प्रेम से खुश नहीं हैं। कोलकाता के एक अखबार ने ईरोम का यह साक्षात्कार प्रकाशित किया था, लेकिन इस अखबार को मणिपुर में 'अपून्बा लप' ने पूरी तरह से प्रतिबंधित करा दिया। 'अपून्बा लप' मणिपुर के 13 प्रख्यात गैर-सरकारी संगठनों का समूह है।
44 वर्षीया ईरोम और 53 वर्षीय मानवाधिकार कार्यकर्ता और लेखक डेगमन का परिचय पत्रों के जरिए हुआ। डेगमन ईरोम को पत्र लिखा करते थे। पहली मुलाकात 09 मार्च, 2011 को उस वक्त हुई, जब ईरोम को न्यायालय में लाया गया था और पत्रों के माध्यम से ही दोनांे एक-दूसरे को पसंद करने लगे।
जब ईरोम के प्रेम की खबर अखबारों मंे आई तो मणिपुर के गैर-सरकारी संगठनों को ईरोम के प्रेम से अधिक चिन्ता उनकी उस 'छवि' की थी, जो उन्होंने बड़ी मेहनत से खड़ी की थी। उन्हें इस बात का डर सता रहा था कि ईरोम के प्रेम की चर्चा से उनकी 'लौह नारी' की छवि पलभर में मिट्टी में न मिल जाए। अखबारों के साक्षात्कार में यह बात मणिपुर के मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने स्वीकार भी की है। ह्यूमन राइट एलर्ट के कार्यकारी निदेशक बबलू लूइटिंगम ने एक अंग्रेजी अखबार से कहा था, ''अन्ना हजारे के उपवास के दौरान मीडिया भ्रष्टाचार के मुद्दे पर केन्द्रित था या अन्ना के व्यक्तिगत जीवन पर।'' उनके कहने का मतलब साफ था कि मीडिया को ईरोम के प्रेम को छोड़कर उनके अफस्पा के खिलाफ आंदोलन पर केन्द्रित रहना चाहिए।
ईरोम द्वारा प्रेम जाहिर किए जाने के बाद ऐसा लग रहा था जैसे मणिपुर के कई गैर- सरकारी संगठनों का सब कुछ लूट गया हो। बौखलाहट का आलम यह था कि उस दौरान खबर यह भी आई कि ईरोम का प्रेम सरकार की साजिश है।
अब ईरोम ने अपना फैसला खुद ही सुना दिया है। उम्मीद है कि ईरोम को अब गैर-सरकारी संगठनों की घुटन भरी जिन्दगी से मुक्ति मिलेगी और वह सच्चे अथार्ें में आजादी की सांस ले पाएंगी। -आशीष कुमार 'अंशु'
मात्र मुखौटा
-जगदम्बा मल्ल, वरिष्ठ पत्रकार
मणिपुर में लगभग 40 आतंकवादी संगठनों के साथ-साथ दर्जनों चर्च प्रायोजित एनजीओ और कथित मानवाधिकारवादी गुट हैं। इन संगठनों के नाम से लगेगा कि ये निदार्ेष लोगों के लिए चिन्तन करने वाले संगठन हैं। किन्तु ये सभी संगठन चर्च, आईएसआई और मुस्लिम ताकतों द्वारा प्रयोजित हैंं। बहुत सारे एनजीओ कम्युनिस्ट संगठनों द्वारा प्रायोजित हैंं। ये सभी संगठन अपने-अपने स्तर पर राष्ट्र विरोधी गतिविधियों मे संलिप्त हैं। इन सभी संगठनों का लक्ष्य भारतवर्ष को कमजोर करना है। इसीलिए अनेक परस्पर विरोधी विचारों वाले संगठन भी परस्पर सहयोग से भारत विरोधी गतिविधियों को संचालित कर रहे हैंं। ये कुछ गतिविधियां प्रत्यक्ष और कुछ दूसरों को सामने रखकर करते हैं। अनेक प्रमुख लोग और अनेक गैर-सरकारी संगठन उनके मुखौटे के रूप में काम करते हैंं। ईरोम चानू शर्मिला इन्हीं मुखौटों में से एक मुखौटा है, जिसे मानवाधिकारवादियों ने लौह-नारी के रूप में महिमामंडित किया है। अनेक अंतरराष्ट्रीय और भारतवर्ष के अंदर कार्यरत मानवतावादी संगठनों ने ईरोम शर्मिला को पुरस्कार देकर गौरवान्वित करने का प्रयास किया है। इतना होने पर भी स्थानीय जागरूक मैतेयी समाज एवं सभ्य मणिपुरी समाज ईरोम शर्मिला की गतिविधियों पर विश्वास नहीं करते। इसीलिए वे शर्मिला के विचारों तथा कार्यक्रमों का पूर्ण रूपेण बहिष्कार करते हैं। इसका आभास ईरोम शर्मिला को बहुत पहले ही हो गया था और वह अपना उपवास तोड़ना चाहती थीं। किन्तु आतंकवादियों, चर्च तथा पाखंडी मानवाधिकारवादी संगठनों के प्रभाव के कारण तथा अपनी जान का खतरा होने के कारण वह अपना उपवास तोड़ नहीं पाईं। किन्तु अब पानी सिर से ऊपर आ गया था। इसलिए अपनी जान का खतरा मोल लेकर भी उन्होंने 26 जुलाई को यह घोषणा कर दी कि 09 अगस्त के दिन जब अदालत की सुनवाई होगी तो वह उपवास तोड़ रही हैं, इस बात की घोषणा अदालत में ही करेंगी और उसके बाद वह अपने ब्रिटिश प्रेमी डेगमन कोटिनो से विवाह कर सामान्य जीवन बिताना प्रारंभ करेंगी। वह इंफाल नगर से दो किलोमीटर दूर खुराई नामक विधानसभा क्षेत्र से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में मणिपुर विधानसभा के आगामी चुनाव में भाग लेंगी।
(बातचीत पर आधारित)
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