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एक बार फिर विभाजनवादी वाम की बौद्घिक अगुआ रोमिला थापर ने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद या हिंदुत्व जैसे वृहद विषय पर अपने बेतुके विचार व्यक्त किए हैं। उनके अनुसार राष्ट्रवाद की दो श्रेणियां होती हैं। इनमें से एक सही (यदि ऐसी कोई श्रेणी है तो) और दूसरी गलत (क्योंकि उन्हें ऐसा लगता है) होती है। इतना ही नहीं, उन्होंने दोनों श्रेणियों का नामकरण भी किया है। उनका अपना राष्ट्रवाद 'धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद' है जिसे वे उपनिवेशवाद विरोधी बताती हैं एवं दूसरा 'धार्मिक राष्ट्रवाद' है जिसे वे हिंदुत्व के साथ जोड़कर 'हिंदुत्व राष्ट्रवाद' कहती हैं। उनके अनुसार यह विभाजनकारी और उपनिवेशवाद का उतना विरोधी नहीं जितना कि खुद उनका राष्ट्रवाद है ! दरअसल, थापर के इस छद्मवादी वाम चरित्र को जानकर वे लोग हैरान नहीं होंगे, जो उनकी दोगली राजनीति से पहले से वाकिफ हैं। आइए सबसे पहले 'आउटलुक' के जुलाई अंक में उनके विशेष आलेख का आकलन करें।
हिंदुत्व के बारे में उनकी दलीलों से खुद उनके ही विचारों का पता चलता है। इस कथित धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद की जड़ें भारत के औपनिवेशिक इतिहास से जुड़ी हैं। इसके विपरीत, थापर जैसे इतिहासकारों का इतिहास अंग्रेजों द्वारा लिखित भारतीय इतिहास या हिंदू अस्तित्व पर विचारों की ही पैरवी करता है जो सच से मीलों दूर है। यह इतिहास पूरी तरह बौद्घिक वाग्विलास है और इसीलिए देश के आमजन से कोसों दूर रहा। उनके आलेख में भी इसी की गंध मिलती है। बेनेडिक्ट एंडरसन, अर्नस्ट गेल्नर, एरिक जे़ हॉब्सबॉम जैसे नव-वामवादी बौद्घिकों के सिद्घांतों की आड़ लेते हुए वे पाठकों पर अपने पतनशील विचार थोपती हैं। हिंदुत्व पर उनके विचारों को कुछ यूं भी समझा जा सकता है-
1 हिंदुत्व के सांस्कृतिक आधार के पीछे भारत का औपनिवेशिक बोध है।
2 अंग्रेजों द्वारा भारतीय चरित्र को हिंदू रंग में रंगने के पीछे अतीत के उच्चवर्गों का जिक्र था, जो हिंदू वर्ग था। अत: हिंदुत्व उच्चवर्गीय विचार है।
3 राष्ट्र का विचार नवजागरण काल के बाद यूरोप में जन्मा। अत: बतौर राष्ट्र भारत उसके औपनिवेशिक आकाओं के संपर्क में आने के बाद उभरा।
4 हिंदू कभी शोषित नहीं रहे, बल्कि उन्होंने दलितों, आदिवासियों व अन्य वंचितों का शोषण ही किया।
5 मुगल काल में हिंदू संतों के साहित्य एवं शास्त्रीय संगीत की निर्मिति से पता चलता है कि उस समय हिंदू संकट में नहीं थे। अत: मुगलों द्वारा हिंदुओं का शोषण साम्प्रदायिक वैमनस्यता को बढ़ावा देने का षड्यंत्र है।
6 नीग्रो जाति के आधार पर गठित अफ्रीकी एकता का विचार हिंदुत्व राष्ट्रवाद से बेहतर है क्योंकि वह अखिल अफ्रीकी स्तर पर काम करता है।
7 हिंदुत्व का विचार ही समस्याग्रस्त है क्योंकि वह समताविरोधी है और कुछ जातियों के प्रभुत्व से जुड़ा है।
8 धार्मिक राष्ट्रवाद या हिंदुत्व राष्ट्रवाद मूलत: उपनिवेश विरोधी नहीं था। धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद उपनिवेश विरोधी था।
9 हिंदुत्व राष्ट्रवाद का मौजूदा उभार हिंदुत्व को सवार्ेपरि बनाने से जुड़ा है।
10 'राष्ट्र एक काल्पनिक समुदाय है'- एंडरसन। अत: हिंदुत्व अव्यावहारिक राष्ट्रवाद है।
थापर हमेशा अंग्रेजों द्वारा गढ़े गए 'आर्य आक्रमण' के सिद्घांत की पैरवी करती आई हैं। इसलिए उनके लिखित आलेख का पहला अनुच्छेद राष्ट्रवाद की विभिन्न किस्मों का आकलन करने का व्यर्थ प्रयास दिखता है। लेकिन साथ ही वे अपनी प्राथमिकताओं के अनुसार राष्ट्रवाद की किस्मों को श्रेणीबद्घ करती हैं जिसमें सबसे ऊपर धर्मनिरपेक्ष-उपनिवेश विरोधी राष्ट्रवाद है। धार्मिक राष्ट्रवाद एवं हिंदुत्व राष्ट्रवाद का स्थान बाद में आता है। कहना न होगा कि यह वर्गीकरण बिल्कुल गलत है और इसके लिए इतिहास के गहन अध्ययन की भी जरूरत नहीं है। स्वतंत्रता आंदोलन की समग्रता और उसकी व्यापकता अपने आप में राष्ट्रवाद की बुनियाद में है। उस समय सभी ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ थे। हालांकि, अनापशनाप दलीलें देने वाले इतिहासकारों ने हमेशा ही राष्ट्रवादियों को हाशिये पर रखने का प्रयास किया है। उनकी इस मंशा से प्रतीत होता है कि कहीं न कहीं वे आज तक अंग्रेजी साम्राज्य पर आश्रित हैं। विभाजनवादी राजनीतिक दलीलें देने वाले वाम बौद्घिकों को राष्ट्रीय विविधता में विभाजन ही नजर आता है। इसीलिए 'मेरा राष्ट्रवाद' बनाम 'तेरा राष्ट्रवाद' का विचार सामने आया! सच यह है कि हिंदू बहुसंख्यकों ने आजादी की लड़ाई में सबको एकजुट करने की भूमिका निभाई थी। लेकिन रोमिला थापर जैसे बौद्घिकों को इसमें 'अधिकारच्युत धार्मिक राष्ट्रवाद' दिखता है। जो कि असल में सांस्कृतिक स्वायत्तता एवं आजादी की लड़ाई का खांटी देसी चरित्र है। कुछ राष्ट्रवादियों को राजनीतिक आजादी में दबे हुए समाज का खतरा पहले से दिखाई दे गया था। इसलिए उन्होंने आजादी के देशज चरित्र पर शुरू से जोर दिया था। कांग्रेसी शासन के समय हिंदुत्व के चरित्र को जान-बूझकर बौद्घिक तौर पर कुरूप किया गया। बाद में थापर जैसे इतिहासकारों को कांग्रेस की शह मिली और उन्होंने सत्तारूढ़ पार्टी के विभाजनकारी सिद्घांतों की जमीन पर हिंदू समुदाय के जायज सांस्कृतिक हितों को बलि चढ़ाया।
आलेख में थापर ने अपने चिर-परिचित विरोधाभासों की परंपरा को कायम रखा है। एक ओर वे देश की बहुरूपता की बात करती हैं, लेकिन राजनीतिक लाभ उठाने की मंशा में भूल जाती हैं कि उनके द्वारा घोषित 'उपनिवेश विरोधी राष्ट्रवादी' जिन्हें वे 'धार्मिक राष्ट्रवादी' कहती हैं, दरअसल आम हिंदू जनसंख्या का ही हिस्सा रहे हैं। ये लोग बेशक हिंदू महासभा का हिस्सा नहीं थे, परंतु हिंदू समुदाय के ही अंश थे। उनकी इसी हिंदू परवरिश ने उन्हें विरासत में उदार सोच दी थी। थापर के इस तर्क का भी कोई आधार नहीं हैं जिसमें वे कहती हैं कि कथित उपनिवेश-विरोधी राष्ट्रवादी हिंदू विरोधी अथवा तटस्थ हिंदू थे। हिंदुत्व के लक्ष्य के लिए काम करने वाले किसी दल से जुड़े लोग हों या नहीं, भारत का आमजन सदा से ही विभिन्न संस्कृतियों एवं जातियों के प्रति सहिष्णु रहा है। पश्चिमी दखल से दूर इस सहज उदारता को ही आमजन हिंदुत्व के रूप में जानता है। इसलिए थापर द्वारा राष्ट्रवाद को श्रेणीबद्घ करना शिगूफे से ज्यादा और कुछ नहीं है। दरअसल, यह वामपंथी बौद्घिक हैं जिन्होंने 'फूट डालो और राज करो' की औपनिवेशिक नीति को पुख्ता किए रखा।
'भारतमाता की जय' नारे के खिलाफ थापर के विचार और दलील कि 'राष्ट्रवाद का अर्थ अपने समाज की समझ और समाज के सदस्य के तौर पर अपनी पहचान तलाशना होता है' भी घोर विसंगतिपूर्ण विचार है। 'भारतमाता की जय' नारा विभिन्न धाराओं को और लाखों लोगों को सांस्कृतिक तौर पर जोड़ने की सोच बन चुका है। आजादी का यह मूलमंत्र स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान बड़े-बड़े नेताओं से लेकर आमजन का प्रेरक था ; यह भारत की आजादी और मातृभूमि की विजय का प्रतीक है। इसके विपरीत, किसी भी घोष के खिलाफ उनकी आलोचना और जेएनयू में देश विरोधी नारे लगाने वालों का आंशिक पक्ष लेने से ही उनकी निष्ठाओं का अंदाजा हो जाता है।
अब्राहिमी धमार्ें के विपरीत हिंदुत्व के सामाजिक एवं सांस्कृतिक निहितार्थ इतने व्यापक एवं असांगठनिक हैं कि ये प्रत्येक हिंदूजन के आचार-व्यवहार का नैसर्गिक हिस्सा बन चुके हैं। इस गहन विचार को अनुभव के आधार पर ही समझा जा सकता है। इसके लिए किसी परिभाषा या किसी बौद्घिक के विचारों का आश्रय लेना जरूरी नहीं है। जीवन में कुछ अनुभव विश्लेषित या सुनकर नहीं बल्कि खुद ही समझे जाते हैं। हिंदुत्व ऐसा ही अनुभव है। इसके लिए सांगठनिक या लिखित दिशानिर्देश की जरूरत नहीं होती। इसके लिए अपने आध्यात्मिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक जीवन की विस्तृत समझ आवश्यक होती है।
'कोलोनियल रूट्स ऑफ हिंदुत्व नेशनलिज्म' नामक इस आलेख में थापर एक बुनियादी तथ्य भूल गई हैं कि भारत में अंग्रेजी राज नृविज्ञान का शोध विषय न होकर मूलत: औपनिवेशिक कार्यक्रम था। आमजन भी इस सच को जानता है कि सामाजिक शोध करने वाले राजनीतिक एवं व्यावसायिक दूत अपने स्वाथार्ें के लिए ही ऐसा करते हैं। हिंदू समाज के बारे में उनका दस्तावेजी एवं विश्लेषणात्मक अध्ययन ग्रेट ब्रिटेन की जड़ें मजबूत करना और अंग्रेजी राज को सुनिश्चित करना था। ये शोध, अध्ययन या आकलन पूर्वनिर्धारित निष्कषार्ें की जमीन पर किए गए थे। उनके आकलन 'औपनिवेशिक' और लक्ष्य 'व्यावहारिक' थे। इसलिए अल्पसंख्यक मुस्लिम शासकों द्वारा हिंदू समाज पर उनके नतीजों को कितनी गंभीरता से लिया जा सकता है? वहीं हिंदुत्व को अंग्रेजों की देन और भारतीय सभ्यता उनके कारण अस्तित्व में आई या हिंदू राष्ट्रवाद ब्रिटिश कल्पना की उपज जैसे विचार ही आधारहीन हैं। इनकी बुनियाद में इतिहास की अधकचरी जानकारी दिखती है।
कोई भी सभ्यता समय के साथ-साथ ही विकसित होती है। उसकी संस्कृति, भाषायी आकार सांस्कृतिक तौर पर लगातार गहरे प्रवाह से ही विकसित होते हैं। इन आचार-विचारों एवं चलन का अनुभव कर के ही उन्हें समझा जा सकता है। इसलिए सिंधु नदी किनारे विकसित सभ्यता में सदियां गुजरने पर एक विशिष्ट चरित्र विकसित हुआ। बेशक स्थानीय स्तरों पर इस संस्कृति की अपनी विविधता और अनूठापन रहा। अखिल भारतीय स्तर पर विकसित इस सौहार्दपूर्ण आध्यात्मिक परिवेश के आधार पर ही उपमहाद्वीप को 'सांस्कृतिक भारत' कहा गया। इसी चरित्र, परिवेश, सभ्यता की पहचान को सभी जातियों एवं संप्रदायों ने हिंदू कहा। इसमें कभी किसी पर कुछ नहीं थोपा गया। यह तथ्य भी अनोखा है कि किसी भी प्राचीन ग्रंथ में हिंदू शब्द नहीं मिलता, यह सिद्घ करता है कि यह शब्द किसी व्यक्ति या इतिहासकार के लेखन से अस्तित्व में नहीं आया। हिंदू शब्द इस महाद्वीप में रहने वाले लोगों के सांस्कृतिक चेतना बोध का नतीजा रहा जिसे पारंपरिक तौर पर 'भारतवर्ष' कहा जाता था। अमीर और गरीब, दलित एवं उच्चवर्ग, पुरोहित एवं योद्घा वर्ग, व्यापारी एवं कामगारों में से सभी ने अपने-अपने आधार पर हिंदुत्व को समझा, अपने रीति-रिवाज निर्धारित किए, अपने इष्टदेवों की उपासना की, और इसी विकेंद्रीकृत स्थानीय हिंदुत्व के विचार से उसका समावेशी चरित्र विकसित हुआ। बतौर हिंदू यही हमारी जीवन प्रकृति है।
हिंदुत्व की इसी चारित्रिक विशेषता की समझ भारत के लोगों की थाती रही है। इसकी समझ के लिए हमें अंग्रेजों या अन्य के उपदेश नहीं चाहिए। थापर की दलील कि हिंदुत्व की जड़ें औपनिवेशिक शासन में धंसी हैं, बेतुकी है। इसके लिए अपने इतिहास की निरंतर जानकारी ही काफी है। खुद को नीचा बताने वाले ऐसे बौद्घिक भारतीय समाज की कमियां दर्शा कर अपनी रोटियां सेंकते हैं। दुनिया में ऐसी कमियां किसी समाज में नहीं होतीं। कोई भी समाज अपनी कमियों पर खुद ही काम कर उन्हें दूर करता है। इस कार्य में छद्म बौद्घिकों के विदेशी या घिसे-पिटे शोध कोई भूमिका नहीं निभाते।
आर्य आक्रमण, आर्य-द्रविड़ संघर्ष, वैदिक काल को द्वंद्वपूर्ण युग कहना और मुगल काल को मैत्रीपूर्ण युग बतलाना प्राचीन और मध्यकालीन इतिहास का विद्रूपण है। हालिया शोध बताते हैं कि यह सब विभाजक सिद्घांत या तो अंग्रेजों ने अपने शासन को पुख्ता करने के लिए गढ़े या फिर उनकी छात्रवृत्तियों पर पलने वाले छद्म बुद्घिजीवियों ने इनका पोषण किया। ऐसा ही एक झूठा सिद्घांत इन बौद्घिकों ने हिंदुत्व के कुलीनवाद का भी गढ़ा था। थापर के अनुसार अंग्रेजों ने उन कुलीन हिंदुओं को सम्मान दिया जिन्होंने उपनिवेशवाद का विरोध किया और ग्रामीण एवं अन्य बाहरी स्थानों में हाशिये पर पड़े लोगों को भुलाए रखा। इससे वे नतीजा निकालती है कि ब्रिटिशकाल के इतिहास में जिनका प्रतिनिधित्व नहीं हुआ, वे गैर-हिंदू थे। परंतु जैसा कि पहले बताया गया वे हजारों भारतीय जिन्हें अंग्रेजों ने हिंदू नहीं माना, उनकी मंजूरी के इंतजार में नहीं थे। बतौर हिंदू उनकी पहचान कहीं पहले मानी जा चुकी थी, इसलिए हिंदुत्व के साथ 'कुलीनवादी' विशेषण लगाना गलत है।
दरअसल, भारत के लोगों की समावेशी चेतना से ही राष्ट्र की अवधारणा के बीज पड़े थे। अंग्रेजी शब्द 'नेशन' पश्चिम की देन हो परंतु उसकी समझ और अनुभव विशुद्घ भारतीय है। जिस तरह पश्चिमी समाज में कई अनुभव भारतीय समाज के पूर्णतया विपरीत हैं, उसी तरह भारत में 'राष्ट्र' की अवधारणा वहां की तरह राजनीतिक या अकादमिक न होकर सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक है। थापर द्वारा 'हिंदुत्व राष्ट्रवाद' को औपनिवेशिक बताने की पोल तब खुलती है जब हम उनके सिद्घांतों के औपनिवेशिक बौद्घिकवाद की पड़ताल करते हैं। उनकी हरेक दलील पश्चिमी विश्वविद्यालयों के नववामपंथी अकादमिकों की हिमायत करती है। सवाल है कि क्या पश्चिमी विद्वानों के उलटे सिद्घांतों के विपरीत अपने ज्ञानार्जन का कोई तरीका नहीं हो सकता?
यह समझना कठिन नहीं कि पश्चिमी बौद्घिक या छद्म बौद्धिक क्यों भारतीय पहचान को बनाए रखने वाले विचारों के खिलाफ रहते हैं। जिन देशों में भी अंग्रेजी शासन रहा, वे वहां की संस्कृतियों को दबाने में सफल रहे, परंतु भारत इसका अपवाद रहा। ऐसा नहीं कि उन्होंने भारत में प्रयास नहीं किए। इसके भरपूर प्रयास किए गए, परंतु वे हिंदू संस्कृति और पहचान को मिटा नहीं पाए। अंग्रेजों द्वारा अन्य उपनिवेशों में अपनाई गई निरंकुश नीतियों को भारत में लागू करने को लेकर भारतीयों ने अंग्रेजों के राजनीतिक और सांस्कृतिक वर्चस्व का बेहद कड़ा विरोध किया। यह भारतीय संस्कृति की जिजीविषा और हिंदुत्व था जिसने अंग्रेजी क्रूरता का विरोध किया था। उपमहाद्वीप के जिन भी देशों में हिंदुत्व के चिन्ह मिलते हैं, अंग्रेजी शासन वहां राजनीतिक और व्यावसायिक तौर पर ही शोषण कर सका, उन देशों की सांस्कृतिक पहचान जस की तस बनी रही। यह केवल हिंदुत्व की दृढ़ता से संभव हो सका। ऐसी दृढ़ता जिसका लाखों लोग अपने दैनंदिन जीवन में किसी एकेश्वरवादी धर्म या मार्क्सवादी बौद्घिकतावाद की तरह पालन नहीं करते क्योंकि इसमें ईसाइयत, इस्लाम या वामपंथ की तरह संकीर्ण केंद्रीयता नहीं है। उपनिवेशकाल से पूर्व हिंदुत्व की व्यापकता का यह स्पष्ट प्रमाण है। दुर्भाग्यपूर्ण सच यह है कि 1947 में मिली आजादी के बाद भी मुगलों और अंग्रेजी शासन की संास्कृतिक थाती बनी रही। इसका प्रमाण है थापर जैसे लेखकों की लेखनी जिसे वे विभाजनवादी सिद्घांतों को आगे बढ़ाने में काम में लाती हैं। ऐसा करते समय वे देश के लोगों के सांस्कृतिक रुझान का भी ध्यान नहीं रखतीं। उनका बौद्घिकवाद केवल हिंदू समाज के विखंडन पर ध्यान केंद्रित करता है। इसके जरिये वामपंथी विचारों को आगे बढ़ाना ही उनका एकमात्र लक्ष्य है।
हिंदू समाज के सौहार्द का विभाजन ही इन बौद्घिकों का एकमात्र लक्ष्य है। रोमिला थापर के सिद्घांत इसी अनजाने 'ज्ञान' की पैरवी करते हैं। समूचे मध्यकालीन इस्लामी वर्चस्ववादी इतिहास को 'मैत्रीयुग' कहना; इतिहास की पुस्तकें आज तक आर्य आक्रमण से शुरू होती हैं जिसे 1,500 ईसापूर्व का समय दिया जाता है। छात्रों को बताया जाता है कि प्राचीन सिंधु घाटी या हड़प्पा सभ्यता को आयार्ें ने ध्वस्त किया था। जबकि हालिया शोधों से वैदिक सरस्वती नदी एवं सिंधु लिपि को पढ़ने से ज्ञात हुआ है कि आर्य आक्रमण या आर्य-द्रविड़ संघर्ष बेबुनियाद तथ्य हैं। संस्कृत में आर्य का अर्थ है सांस्कृतिक। यह किसी वर्ण या भाषा का नाम नहीं है। जैसा कि पहले बताया गया कि आर्य एवं द्रविड़ संघर्ष को औपनिवेशिक काल में फूट डालने के लिए प्रतिपादित किया गया था जिसमें ईसाई मिशनरी बिशप काल्डवेल ने महती भूमिका निभाई थी। वहीं धर्मनिरपेक्ष इतिहास का 'वर्णन' सीधा है। इतिहास की पुस्तकों से मुगल बादशाहों के अत्याचार को हटाया जाए, हिंदू राजाओं के सांस्कृतिक सत्यों को धूमिल किया जाए, अंग्रेजी साम्राज्य को 'सभ्य शक्ति' का जामा पहनाया जाए और सबसे ऊपर, हिंदू जीवन से जुड़ने वाली किसी भी परंपरा को हटाकर उसे 'सांप्रदायिक' घोषित किया जाए। यानी नब्बे करोड़ लोगों की 'जीवनशैली' अकादमिक गतिविधियों के चलते दुष्प्रचार और चरित्र हनन का शिकार रही। इसलिए हैरानी नहीं कि शिक्षित जनता ने अकादमिकों के इस दोगलेपन को भांपते हुए उनसे दूरी बना ली।
ऐसी कोई सभ्यता नहीं है जिसने अपने यहां जड़ मान्यताओं को खत्म करने की पहल न की हो। यूरोप और अमेरिका में असमानता और भेदभाव का लंबा इतिहास है। लेकिन भारत को उसकी अपनी समस्याओं का अंत करने का मौका पूरी तरह से नहीं मिला है। वहीं पश्चिम जगत की सोच है कि उसके द्वारा शुरू किया गया उदारतावाद पूरी दुनिया के रोगों की दवा है। इसलिए दक्षिण एशियाई लोगों के लिए औपनिवेशिक कथ्यों पर हमेशा पश्चिम के सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक दृष्टांतों को हावी रखा गया। यह श्रेष्ठताबोध पश्चिम द्वारा सैन्य और औद्योगिक भाषा बोलने के कारण विकसित हुआ। पश्चिमी उदारतावाद को उसके औद्योगिक, वैज्ञानिक और आर्थिक विकास के जरिये उचित ठहराना और तृतीय विश्व के लिए इसे आवश्यक ठहराने के कारण ही 'हम बनाम अन्य' की औपनिवेशिक सोच पुख्ता हुई थी। इसी आधार पर पश्चिमी बौद्घिकों की सोच बनी कि गैर-पश्चिमी स्थान मूलत: पिछड़े एवं विकृत हैं और उनका सुधार कर उन्हें पश्चिम के समकक्ष लाना चाहिए। लिहाजा, तृतीय विश्व के लिए जरूरी हो जाता है कि वह पश्चिम की ओर देखे और उसकी औद्योगिक शक्ति से सीख ले। इसके बाद गैर-पश्चिम जगत द्वारा पश्चिमी मूल्यों की नकल का दौर शुरू हो जाता है जबकि सच यह है कि पश्चिमी सैन्य और औद्योगिक उपलब्धियां पश्चिम द्वारा बघारे जाने वाले उदारतावाद की उपज नहीं हैं। पश्चिमी जगत में कुछ सांस्कृतिक मूल्यों के साथ रहने वाले लोग और वहां के औद्योगिक, शाही, औपनिवेशिक, राजनीतिक एवं बौद्घिक दूतों ने शेष विश्व को 'सुधारने' का बीड़ा उठाया था और सभी स्थानों एवं लोगों पर उन मूल्यों को स्थानांतरित करना शुरू कर दिया था। इससे यह विचार पुख्ता हुआ कि पश्चिम की शक्ति उसके सांस्कृतिक संगठनों की बुनियाद में निहित उदारतावाद के कारण है। इस ज्ञान को कुछ इतना आवश्यक बना दिया गया कि शेष विश्व को महसूस होने लगा कि विकास एवं संस्कृति में पश्चिम तक पहुंचने के लिए उसके उदारतावाद को अपनाना जरूरी है।
भारतीय बौद्घिकों की इसी नक्काल तबियत के कारण ही हमारे यहां की कुछ सामाजिक समस्याओं का हल खोजने में रुकावट आती रही है। पश्चिमी छात्रवृत्तियों के पीछे पागलपन के कारण ही वे जनवादी बौद्घिकतावाद से दूूर रहे। सामाजिक एवं आर्थिक तौर पर हाशिये पर पड़े वगार्ें की समस्याओं को भारतीय संदर्भ में सामने रखने और सुलझाने का काम तभी हो सकेगा जब लोग एकजुट होकर असमानता के खिलाफ खड़े होंगे।
भारतीय संदर्भ और हिंदू भाव में सामाजिक समरसता का अर्थ विभिन्न जातियों के लोगों के प्रति खुले विचार रखना होता है। प्राचीन काल से यही इस उपमहाद्वीप के लोगों की चारित्रिक विशेषता रही है जिसका नतीजा हमारा बहुलतावादी समाज है जो हमारी संस्कृति की रीढ़ है। वामपंथी बौद्घिक अपनी संकीर्ण सोच से सामाजिक समरसता को धुंधला देते हैं। वे इसे एकरूपता देने का प्रयास करते हैं, लेकिन भारत के अमेरिकीकरण या आंग्लीकरण के बारे में बेखबर रहते हैं। उनका लक्ष्य भारत में आदर्शवादी (यूटोपियन) समाजवाद की स्थापना कर सामाजिक स्तर पर असमानता को दूर करना है। उन्हें ऐसा लगताहै कि शायद यही प्रणाली भारत के लोगों की एकमात्र जरूरत रह गई है।
– प्रसन्ना ए. देशपांडे
(लेखक फर्ग्युसन कॉलेज, पुणे में
अंग्रेजी के प्रोफेसर हैं)
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