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राजनीतिक उठापटक के बीच आखिर ओली ने प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। पिछले सितम्बर से ओली इस बात की ताकीद कर रहे थे कि भारत नेपाल को अशांत करने में लगा हुआ है। यह बात पूरी तरह से झूठी साबित हुई। सत्ता के लालच और आंतरिक राजनीति के दलदल में फंसे राजनीतिक दल हर नेपाल की मुसीबत के लिए भारत को कुसूरवार मानते रहे हैं। जब ओली के समर्थक और राजनीतिक सहयोगी प्रचण्ड ने पाला बदल कर कांग्रेसी नेताओं का दामन साध लिया। तो भारत के ऊपर थोपी गयी झूठी कहानी का भी पर्दाफाश हो गया। पिछले एक दशक में भारत विरोधी मुहिम के मुखिया प्रचण्ड ने ही ओली को प्रधानपंत्री पद से हटने के लिए विवश किया है। अब राजनीतिक माहौल पुन: गरम है।
दुर्भाग्यपूर्ण है कि नेपाल की राजनीति पुन: अशांत है और राजनीतिक दांव-पेच और उछलकूद तेज हो गई है। प्रमुख माओवादी नेता प्रचंड ने अपना पाला बदल लिया और प्रधानमंत्री की कुर्सी के लिए कांग्रेस से हाथ मिला लिया है। उनकी यह कोशिश नायाब नहीं है। दो महीने पहले भी इस बात की चर्चा थी कि प्रचंड प्रधानमंत्री ओली को अपदस्थ करने के जुगाड़ में हैं। लेकिन चीन के दबाव ने इस मुहिम को ढीला कर दिया था। इस बार प्रचंड की बेताबी अपने राजनीतिक और व्यक्तिगत दुश्मन की बलि तक लेकर चली गई। द्वितीय जनजागरण के दौरान प्रचंड ने कांग्रेस नेता शेर बहादुर देऊबा पर कातिलाना हमला करवाया था जिसमें देऊबा किसी तरह बच पाए थे। पर सत्ता के लालच में आज दोनों जानी दुश्मन एक मंच पर खड़े हैं ।
संसदीय शासन व्यवस्था में आंकड़ों की अहमियत सबसे अधिक होती है। 598 सदस्यों के सदन में कांग्रेस पार्टी और सी़पी़एन (माओवादी) का हिस्सा 292 का है। 50 सदस्य मधेशी दलों के हैं। यह गठबंधन प्रधानमंत्री ओली के खिलाफ है। इस तरह से कुल संख्या 342 बनती है जिसमें प्रचंड की जीत सुनिश्चित है। ओली की हार तय हो चुकी है। अब प्रश्न हार-जीत के बाद का है जो ज्यादा महत्वपूर्ण है। राजनीतिक समझौते के अनुसार नई सरकार के गठन के बाद 18 महीनों का समय शेष बचा हुआ है, जब संसदीय चुनाव होने हैं। अनौपचारिक समझौते के अनुसार प्रथम चरण के नौ महीनों में प्रचंड नेपाल के 24वें प्रधानमंत्री होंगे। तो नौ महीने बाद कांग्रेस नेता शेर बहादुर देऊबा 25वें प्रधानमंत्री बनेंगे। मंत्रिमंडल में कांग्रेस के सदस्यों की संख्या 14 होगी और माओवादी पार्टी के 9 सदस्य होंगे। मधेशी पार्टियां भी इस गठबंधन का महत्वपूर्ण हिस्सा बनेंगी। संभवत: गठबंधन सरकार में उनके सदस्यों को भी शामिल किया जाएगा।
प्रचंड की कोशिश सफल हो पाएगी कि नहीं, इसके भी कई कोण हैं। नेपाल की राजनीति के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है कि पिछले 26 वषार्ें में 23 प्रधानमंत्री बदले जा चुके हैं। अर्थात् एक वर्ष में एक नया प्रधानमंत्री। बात राजनीति दांव-पेंच के साथ राजनीतिक संस्थानों से भी जुड़ी है जहां पर अलग-अलग राजनीतिक दलों की पकड़ और पहचान है। इन महत्वपूर्ण संस्थाओं की तीन कडि़यां हैं। सौभाग्य से इन तीनों पदों पर महिलाएं विराजमान हैं। इस घटनाक्रम की शुरुआत संसद के स्पीकर से होगी। ओसारी धरती अविश्वास प्रस्ताव को हरी झण्डी दिखाएगी। ओसारी धरती की राजनीतिक पहचान प्रचंड के साथ जुड़ी है। अविश्वास प्रस्ताव के पास होने के उपरांत बात राष्ट्रपति के पास पहुंचेगी। राष्ट्रपति की कुर्सी पर विद्या देवी भण्डारी आसीन हैं जो कम्युनिस्ट पार्टी नेपाल की वरिष्ठ नेता रह चुकी हैं। यह पार्टी ओली की पार्टी है।
यहां पर संविधान और राजनीति के बीच टकराहट की पूरी गुंजाइश है। अविश्वास प्रस्ताव पास होने के बावजूद राष्ट्रपति अपनी कोशिश कर सकती हैं। यह कार्यवाहक सरकार अगले चुनाव तक भी कार्यरत रह सकता है। अगर राजनीतिक दांव-पेंच में ऐसा हुआ तो प्रचंड और विपक्षी दल सवार्ेच्च न्यायालय का सहारा लेंगे। क्योंकि पहले ऐसा कई बार हो चुका है। जे़ पी. कोइराला 2008 अप्रैल से अगस्त तक कार्यवाहक प्रधानमंत्री बने रहे। तो बाबूराम भट्टराई 9 महीने तक अविश्वास प्रस्ताव पास होने के बाद भी प्रधानमंत्री बने रहे।
सवार्ेच्च न्यायालय का निर्णय नेपाल में विरोधाभासी रहा है। तीसरी महिला सुशीला काकी जो मुख्य न्यायाधीश हैं, उनकी सोच और निर्णय पर भी राजनीति टिकी हुई है। विगत में सवार्ेच्च न्यायालय का निर्णय स्पष्ट नहीं रहा है। 1991 में जब संसद प्रधानमंत्री कोइराला के द्वारा निलंबित कर दी गई थी तब के मुख्य न्यायाधीश विश्वनाथ उपध्याय ने प्रधानमंत्री के निर्णय को सही करार दिया था। उन्हीं मुख्य न्यायधीश ने द्वितीय संसद के निरस्त होने पर प्रधानमंत्री मनमोहन अधिकारी के निर्णय को गलत करार दिया था। उस समय भी राजनीतिक गहमागहमी तेज थी, आज भी चरम पर है। आज नेपाल जिस मुहाने पर खड़ा है, वहां पर राजनीतिक दाव-पेंच लोकतांत्रिक संस्थाओं को न केवल कमजोर कर सकते हैं बल्कि तोड़ भी सकते हैं। चंद दिनों में नेपाल की राजनीति में बंदर कूद होगी जिसका पहला शिकार वर्तमान संविधान होगा। दूसरा संकट यह कि आमजनों की जिंदगी पहले से ज्यादा खतरनाक बन जाएगी। – डॉ. सतीश कुमार
(लेखक केन्द्रीय विश्वविद्यालय, रांची झारखंड में विभागाध्यक्ष हैं)
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