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साल के बाद… गूंज अभी भी बरकरार
ये आकाशवाणी है
अश्वनी मिश्र
दिल्ली के संसद मार्ग से गुजरते हुए नजर जैसे ही गेरुए रंग में पुती आकाशवाणी की अर्द्ध चंद्राकार इमारत पर जाती है, उस पुराने रेडियो वाले जमाने की याद आ जाती है जो आज परछत्ती में कहीं दुबका पड़ा है। कभी इस रेडियो के चारों ओर मजमा जुटता था, फिल्मी गानों से लेकर क्रिकेट की कमेंट्री तक हर कार्यक्रम चाव से सुना जाता था। रेडियो के अस्सी साल के सफर में इसने क्या खोया, क्या पाया पर एक विहंगम दृष्टि
ये आकाशवाणी है। आपका दोस्त अमीन सयानी हाजिर है बिनाका गीतमाला लेकर। शाम के 7 बजे हैं और अब प्रस्तुत है फौजी भाइयों का फरमाइशी कार्यक्रम जयमाला।' 59 साल के रतनलाल शर्मा के जेहन में रेडियो की यह प्रस्तुति आज भी तरोताजा है। आज भी लोग ऐसी प्रस्तुति सुनने के लिए ऑल इंडिया रेडियो (एआईआर)को याद करते हैं। ऐसे ढेरों कार्यक्रम हैं जिनकी याद भुलाये नहीं भूलती। एआईआर ने अपनी यात्रा के 80 वर्ष पूरे किये हैं। 1936 में इंडियन स्टेट ब्राडकॉस्टिंग से बदलकर इसका नाम आल इंडिया रेडियो रखा गया और बाद में इसे आकाशवाणी नाम से पुकारा जाने लगा। अपने नाम के अनुरूप इस संस्था ने अपनी लोकोन्मुखता को बनाए रख बड़े ही सधे अंदाज में देश की रुचि को न केवल जाना बल्कि उनको जो चाहिए था वह उपलब्ध कराया। बात चाहे सूचना, शिक्षा, मनोरंजन या फिर समाज को जाग्रत करने की हो, आकाशवाणी ने देश को एक सूत्र में बांधते हुए अपने दायित्व को बखूवी निभाया। उसने लोगों के मन में राष्ट्रप्रेम की भावना को गहरा करने का काम किया। वृंदावन, उत्तर प्रदेश की प्रो.लक्ष्मी गौतम कहती हैं,''समूचे भारत और भारतीयता की पहचान के साथ-साथ प्रत्येक क्षेत्र में आकाशवाणी के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। बात चाहे किसानी की हो तो इसने किसानों को किसानी के नए-नवेलों तरीकों से जोड़ते हुए उनका ज्ञानार्जन किया, युवाओं को नई आशाओं को संभावनाओं से जोड़ा, मजदूरों को उनके श्रम की महत्ता बताई तो महिला शक्ति को उनके भीतर छिपी शक्तियों से परिचित कराया, सुदूर वनवासी क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को देश-दुनिया से रू-ब-रू कराया, सीमा पर तैनात जवानों को अपनी आवाज दी, बच्चों को नए बदलते संंसार से परिचित कराते हुए उन्हें परिंदों की तरह उड़ने के लिए एक खुला आकाश उपलब्ध कराया।''
आकाशवाणी ने स्वतंत्रता के बाद सिने संगीत, देशभक्ति के कार्यक्रम, संस्कृति-आस्था से जुड़े कार्यक्रमों के माध्यम से ऐसा समां बांधा कि देखते ही देखते ये कार्यक्रम लोगों की दिनचर्या का हिस्सा बन गए। उसने विश्वसनीयता और अखिल भारतीयता की बदौलत विश्व में अप्रतिम स्थान बनाया है। जर्मन रेडियों में काम कर चुके निर्मल यादव आकाशवाणी के बारे में कहते हैं,''इसका ध्येय वाक्य भले ही बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय रहा हो, लेकिन इसका असल उद्देश्य राष्ट्र सर्वोपरि ही रहा है।''
जिनकी स्मृति नहीं हुई धुंधली…
बात अधूरी ही रहेगी यदि रेडियो के साथ संगीत की बात न की जाए। लेखक राजीव रंजन प्रसाद के अनुसार भले ही आज के दौर में आईपॉड, लैपटाप जैसे मोबाइल संसाधनों का बोलबाला हो लेकिन रेडियो की बात आज भी अलग है।'' दिल्ली के एक बैंक में कार्यरत अरुणिमा सिंह उनसे सहमत हैं। वे कहती हैं,''1952 में शुरू हुआ कार्यकम 'बिनाका गीतमाला' रेडियो प्रेमी लोगों के जेहन में आज भी जिंदा है। यह कार्यक्रम बहुत ही कम समय में लोगों की पहली पसंद बन गया। हर बुधवार को रात 8 बजे बिनाका गीतमाला सुनने के लिए लोग रेडियो से चिपक जाया करते थे। पुरानेतरानों तराने और मधुर कंठस्वरों का संगम श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देता था। बिनाका गीतमाला भारतीय फिल्मी संगीत का सबसे लोकप्रिय कार्यक्रम कहा जा सकता है।'' 1952 से 1994 तक लगातार अमीन सयानी ने इस कार्यक्रम को प्रस्तुत किया। उस समय के श्रोताओं को आज भी उनकी जादुई आवाज और आकाशवाणी का ये कार्यक्रम भुलाये नहीं भूलता। कोटा, राजस्थान के रहने वाले श्री जयसिंह की उम्र इस समय लगभग 75 वर्ष है। संगीत के बेहद शौकीन जयसिंह से रेडियो की बात छेड़ते ही उनका चेहरा खिल उठता है। उन दिनों की याद करते हुए वे कहते हैं, ''अमीन सयानी की आवाज और उनके विशेष अंदाज को सुनने के लिए हम उतावले रहते थे। शायद ही कभी होता हो जब यह कार्यक्रम छूट जाए।'' वे आगे कहते हैं,''उस समय के मधुर गीतों को सुनने के लिए हम बेतहाशा इंतजार करते थे। रात को बिस्तर पर नींद लेने से पहले श्रोता हवा महल सुनना नहीं भूलते थे। इसमें छोटी-छोटी कहानियां होती थीं जो आज भी हमें वैसी ही याद हैं जैसे उस समय सुनी थीं।''
जीवन के हर क्षेत्र से जुड़े कार्यक्रमों के चलते आकाशवाणी की अपनी एक अलग पहचान स्थापित हो गई थी। दिनोंदिन इसके श्रोताओं की संख्या बढ़ रही थी। आकाशवाणी पर आने वाले कार्यक्रमों का श्रोताओं को बड़ी बेताबी से इंतजार रहता था। जयमाला कार्यक्रम सोमवार से शुक्रवार तक फौजी भाइयों की पसंद के फिल्मी गीतों का कार्यक्रम है। इसे शनिवार को कोई मशहूर फिल्मी हस्ती आज भी पेश करती है। विगत कुछ वर्षों से रविवार को जयमाला का नाम जयमाला संदेश हो गया है। फौजी भाई अपने पत्रों के माध्यम से अपने अनुभवों को और सीमा पर रहते हुए उन्हें घर-परिवार की याद आती थी, उसे भी साझा करते थे। वे आकाशवाणी को पत्र लिखकर अपने गीतों की फरमाइश भेजते थे और उनकी फरमाइश को पूरा करते हुए विविध भारती उनके लिए सदाबहार गीत बजाता था। लांसनायक, सूबेदार, हवलदार, सिपाही-ये पदनाम आपने जयमाला में अक्सर सुने होंगे। यानी सुदूर सीमाओं पर तैनात जवानों के लिए मनोरंजन का यह सबसे बड़ा साधन था। जयमाला कार्यक्रम लगातार लोकप्रियता के शिखर पर रहा। इसमें अपने समय के मशहूर अभिनेता देव आनंद, धमेंद्र, राजकुमार, शशि कपूर, और अमिताभ बच्चन समेत कई नामचीन कलाकर फौजी भाइयों का उत्साहवर्द्धन करते थे। विविध भारती पहला ऐसी रेडियो चैनल था जिसने खास तौर पर फौजियों के लिए कार्यक्रम आरंभ किया था।
रायबरेली, उत्तर प्रदेश के रहने वाले श्री हरिशंकर पांडेय 70 बरस के हैं। सेना में ऑनरेरी लेफ्निेंट पद से सेवानिवृत्त हैं। शुरू से ही रेडियो के बेहद शौकीन हरिशंकर एक संस्मरण सुनाते हैं,''मैं सेना में 1966 में भर्ती हुआ था और 32 वर्ष तक देशसेवा की। फौज में पहली तैनाती गुजरात के कच्छ में हुई। हमारे समूह में एक ही रेडियो था। इससे हम सभी आकाशवाणी से आने वाले समाचार और दोपहर में 1:10 मिनट पर फौजियों की पसंद वाला कार्यक्रम सुनते थे। इस दौरान हमारे कर्नल साहब थे जो जरा काले थे। हम में से हर बार कोई न कोई उनके नाम से आकाशवाणी को फरमाइश भेज देता था और जिस गीत की फरमाइश होती थी वह था- 'हम काले हैं तो क्या हुआ दिल वाले हैं।' जैसे ही वे इस गीत को सुनते हम लोगों पर नाराज हो जाते थे। पर बाद में खुश भी होते थे। आकाशवाणी की जब भी बात आती है तो वे दिन फिर से याद आ जाते हैं।'' जयमाला से फौजियों का प्यार जगजाहिर रहा है। जब कारगिल युद्ध हुआ था तो विविध भारती फौजी भाइयों के लिए एक माध्यम बन गया था। अपनी सलामती के संदेश 'हैलो जयमाला' के जरिये फौजियों ने अपने परिवार वालों तक इसके जरिये ही पहुंचाए थे।
खेती-किसानी की बात
भारत का किसान अब भी रेडियो सुनता है। रात के पौने नौ के समाचार आज भी उसे देश-दुनिया से जोड़कर जागरूक बनाए हुए हैं। गाय-भैंस चराते चरवाहे संगीत की स्वर लहरियों का आज भी आनंद उठाते हैं। गांव की चौपाल, खेत की मेड के बीच रेडियो की आवाज आज भी इनके लिए किसी सहारे से कम नहीं है। खेती-किसानी में लगे धरती पुत्रों को किसानवाणी कार्यक्रम ने ठीक ढंग से खेती करने के गुर सिखाए, साथ ही फोन इन कार्यक्रम के जरिये उनकी समस्याओं को न केवल विषय विशेषज्ञों ने सुना बल्कि सुलझाया भी। नारायण वर्मा वर्षों से किसानी करते आ रहे हैं। उनकी उम्र 69 वर्ष है। रायपुर, छत्तीसगढ़ के रहने वाले नारायण की जितनी उम्र हैं, उसका एक तिहाई उनका किसानी का अनुभव है। यानी उन्होंने जीवन का तीन हिस्सा खेती को दिया है। रेडियो से मिलने वाली मदद और उससे होने वाली सहूलियत पर वे कहते हैं,''खेती-किसानी में कैसे फसल बोएं, कौन सी फसल लाभकारी होगी, किसमें ज्यादा मुनाफा होगा, कीट-पतंगों से कैसे निपटें या फिर अलग-अलग किस्म की फसल उपजाने की बात, किसानवाणी कार्यक्रम ने हमें हर दम जागरूक किया। स्थानीय दुकानदार पहले हमें ठगते थे और वे जो दे देते थे उसे लेकर अपने खेतों में डाल देते थे। यह स्याह है या सफेद, हमें कुछ नहीं पता होता, बस दुकानदार की बात याद होती थी कि जो दिया है नंबर एक है और इससे आपकी फसल दिन दोगुनी रात चौगुनी बढ़ेगी।'' वे बताते हैं, ''लेकिन जब से हम जागरूक हुए और रेडियो पर आने वाले किसानों के कार्यक्रम को सुना तो खेती के बारे में जो धुंध छाई थी वह छंटने लगी। हम खुद समझने लगे कि खेती के लिए क्या उपयोगी है, क्या नहीं।''
आवाज बनकर किया सशक्त
शायद ही ऐसा कोई क्षेत्र हो जहां आकाशवाणी की नजर न पड़ी हो। महिलाओं की बात हो तो 'सखी' कार्यक्रम बहुत ही लोकप्रिय हुआ। यह ऐसा कार्यक्रम था जो महिलाओं के लिए ही था और इसे महिला ही प्रस्तुत करती। इसमें उनकी सभी समस्याएं आ जाती थीं और इसके माध्यम से वे खुलकर बोलती थीं। कार्यक्रम की बढ़ती लोकप्रियता को देखते फोन-इन कार्यक्रम 'हैलो सहेली' भी प्रसारित किया जाने लगा। इसमें देश के सुदूर क्षेत्रों की निवासी महिलाएं अपनी बात रखती थीं। डॉ. शांति ओझा बिहार के समस्तीपुर से हैं। पेशे से लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं। वे कहती हैं,''आज के दौर और 40 साल पहले के समय में काफी अंतर है। महिलाओं को बोलने की बिल्कुल भी आजादी नहीं थी। ऐसे समय में आकाशवाणी महिलाओं की आवाज बनी। छोटी से छोटी और बड़ी सी बड़ी समस्याएं वे अपने पत्रों के माध्यम से बताती थीं और कार्यक्रम में आए विशेष अतिथि उनकी समस्याओं को सुलझाते थे।''
ऐसे ही विविध भारती मंथन के जरिये ज्वलंत मुद्दों को लेते हुए फोन-इन कार्यक्रम प्रसारित करता रहा है। इसमें श्रोता अपनी राय रखते हैं। वहीं युवाओं के लिए यूथ एक्सप्रेस की शुरुआत हुई। सामयिक मुदद्े, भविष्य को लेकर सुझाव-निर्देश एवं प्रतियोगी परीक्षा में युवा कैसे सफलता पाएं, उनको इसमें शामिल किया जाता है।
संभलने का दौर
एक समय रेडियो अपने चरम पर था। पर टीवी का सुनहरा काल आते-आते रेडियो की आबाज दबने लगी। 1990 के बाद केबल और डीटीएच ने जहां लोगों का ध्यान बांटा वहीं उसके आकर्षण के आगे रेडियो की चमक फीकी पड़ती गई। सरकारों की उदासीनता के चलते इसकी हालत खस्ता होती चली गई। श्रोताओं की संख्या में कमी होने लगी। वहीं तकनीकी विकास के चलते युवा संगीत प्रेमियों की गीत-संगीत सुनने की भूख को पूरा करने के लिए अन्य कई विकल्प बाजार में आ चुके थे। खस्ताहाल को देखते हुए आकाशवाणी ने एफएम रेनबो चैनल शुरू किए।
1977 में चेन्नई में पहले एफएम चैनल को प्रायोगिक तौर पर शुरू किया गया। ऑल इंडिया रेडियो के स्थानीय रेडियो स्टेशन, जो 1984 में शुरू किये गए थे, इन सभी को एफएम तकनीकी से जोड़ा गया। धीरे-धीरे इनकी लोकप्रियता इतनी बढ़ी कि इसे निजी क्षेत्र में स्थापित करने की मंजूरी दी गई। आकाशवाणी ने फरवरी, 1993 को एफएम रैनबो चैनल की शुरुआत की। इसे मुख्य रूप से युवाओं के लिए ही शुरू किया गया था। इसमें कई बदलाव किये गए। जैसे-उद्घोषक की जगह रेडियो जॉकी ने ले ली। बदलते परिवेश के साथ कदमताल मिलाते हुए कुछ चटखारेदार प्रस्तुतीकरण हुआ।
आज के दौर में रेडियो की ताकत, संवाद, सूचना और राजस्व की बात पर पेशे से प्रबंधन के शिक्षक सुभाष सूद कहते हैं,''रेडियो के तीन प्रमुख अंग हैं। एआईआर, सामुदायिक रेडियो और एफएम। आज एफएम रेडियो दिनोंदिन शक्तिशाली हो रहा है। खासकर युवा वर्ग में उसका 'के्रज' है। आर्थिक आय की दृष्टि से भी यह काफी मजबूत हैं। लेकिन साथ ही एक बात जो ध्यान देने लायक है वह यह कि राजस्व की दृष्टि से जहां अन्य मीडिया के माध्यम पहुंचे हैं वहां आकाशवाणी नहीं पहुंचा। अगर यहां पहुंचे तो यहां भी राजस्व अच्छा होगा।''
समाचारों की विश्वसनीयता अब भी
'अब आप देवकीनंदन पांडेय से समाचार सुनिये'…आज की युवा पीढ़ी के लिए ये शब्द शायद कुछ खास मायने न रखते हों लेकिन 70 के दशक और उससे पहले जन्मे लोगों के लिए इसका खास महत्व है। टीवी के युग में भी गांव-देहात के लोग रेडियो समाचारों की विश्वसनीयता मानते हैं। महाराष्ट्र, नासिक के गणेश सापकल आकाशवाणी के समाचारों को ही सत्यता का पैमाने मानते हैं।
वे कहते हैं, ''आकाशवाणी के समाचार में जो विश्वसनीयता है वह किसी और माध्यम में नहीं है। आज भी यह अपना स्तर बनाए हुए हैं। सिर्फ 15 मिनट के हिन्दी के समाचार पूरी देश-दुनिया का हाल बता देते हैं।''
कहना न होगा कि ऑल इंडिया रेडियो की आठ दशक की यात्रा गौरवपूर्ण तो है लेकिन वर्तमान के तकनीकी युग में अपने को बनाए रखने की चुनौती है। आकाशवाणी कैसे इससे निपटती है, यह आने वाला समय ही बतायेगा।
एआईआर विश्व का सबसे बड़ा रेडियो संजाल
कुल स्टेशन 414
क्षेत्रीय स्टेशन 127
स्थानीय रेडियो 86
595 से ज्यादा ट्रांसमीटर
145 से ज्यादा मीडियम वेव ट्रांसमीटर
96.20% इलाके में है आकाशवाणी की
31%इलाकों में है एफएम की पहुंच
43% आबादी सुन सकती है एफएम को देशभर में
मैं और मेरी आकाशवाणी
विजय क्रान्ति
आल इंडिया रेडियो यानी आकाशवाणी से मेरा रिश्ता तबसे है जबसे रेडियो सुन लेने के शऊ र की उम्र आयी। मैं आठ साल का था जब 1957 में एक दिन पिताजी जामा मस्जिद के कबाड़ी बाज़ार से एक क्रिस्टल रेडियो ले आए और हम लोग भारत नगर के खासमखास परिवारों की लिस्ट में शामिल हो गए। यह शायद किसी फौजी छावनी के कबाड़ से आया था। ऐबोनाइट के दो ठोस हैडफोन वाला यह रेडियो क्रिस्टल तकनीक पर चलता था जो बिजली या बैटरी की मोहताज नहीं थी। हैडफोन में बस इतनी ही आवाज़ आती थी कि घर में पूरी चुप्पी होने पर ही ब्राडकास्ट सुनाई देता था। उस जमाने में दिल्ली में सिर्फ दो स्टेशन होते थे – दिल्ली-ए और दिल्ली-बी। स्टेशन बदलने के लिए या तो रेडियो को या फिर हैडफोन वाले सिर को घुमाना पड़ता था। कभी- कभी दोनों को। शाम सात बजे घर लौटने के बाद दिल्ली-ए पर खबरें सुनने का सिलसिला हिंदी, पंजाबी और उसके बाद उर्दू सेवा और ''हालात-ए-हाजि़रा पर तब्सिरा'' पर खत्म होता। बीच में गोरखाली (नेपाली भाषा) का बुलेटिन भी नहीं छोड़ते थे। मां हर बार हैरान होती कि कोई एक ही खबर को भला बार-बार अलग भाषा में कैसे सुन सकता है? रेडियो के आकर्षण का बीज शायद तभी दिल के किसी कोने में अंकुरित होने लगा था।
कुछ साल बाद पड़ोस के घर में बैटरी वाला रेडियो आ गया। रात को सवा नौ बजे के 'हवा-महल', रविवार सुबह को आने वाले बच्चों के कार्यक्रम, दोपहर के हास्य नाटक 'लहरें' और बुधवार रेडियो सिलोन से अमीन सायानी की 'बिनाका गीतमाला' सुनने के लिए पूरा मुहल्ला वहां आ जुटता।
हिंदी श्रोताओं के हीरो देवकीनंदन पांडे, शिव सागर मिश्र, अशोक वाजपेयी और विनोद कश्यप जैसे लोग थे और अंग्रेज़ी सुनने वालों के हीरो मेलविल डिमेलो, सुरजीत सेन और लोतिका रत्नम। पांच-पांच दिन तक रेडियो ने क्रिकेट का आंखों देखा हाल सुनाकर सरकारी दफ्तरों को भले ही निकम्मा कर दिया पर देश का दिल जीत लिया। अपने 45 साल के पत्रकारिता करियर में अगर मुझे जर्मन रेडियो डायचे वैले और वॉयस ऑफ अमेरिका जैसी संस्थाओं में खिलने का मौका मिला तो इसका बीज युववाणी की क्यारी में ही उगा था।
1962,1965 और 1971 के युद्धों के दौरान आकाशवाणी ने करोड़ों अदना इकाइयों में बिखरे भारतीय समाज को रातोंरात एक दमदार राष्ट्रपुरुष में बदल दिया। और चिरंजीत के 'ढोल की पोल' ने तो पूरे देश के कान
में रणभेरी फूंककर उसके मनोबल को शिखर तक पहुंचा दिया। लेकिन बाद में दूरदर्शन और उसके बाद प्राइवेट टीवी चैनलों के रंगबिरंगे तूफान में रेडियो की बोलती ऐसी बंद हुई कि कई समझदार लोगों ने रेडियो का फातिहा ही पढ़ डाला।
मगर भला हो एफएम तकनीक का कि मरा हुआ रेडियो पहले से भी ज्यादा सुरीले और आकर्षक अवतार में सीना ठोककर फिर से मैदान में आ गया। बचीखुची कसर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 'मन की बात' ने पूरी कर दी। इस कार्यक्रम के रास्ते हर आम नागरिक और सरकार के बीच जो संवाद शुरू हुआ है उसने आल इंडिया रेडियो को 'सरकारी रेडियो' के मुलम्मे से चिढ़ाने वालों के होश फाख्ता कर दिए हैं। पहली बार ऐसा हुआ है कि एक लोकप्रिय प्रधानमंत्री की आवाज सचमुच में 'आकाशवाणी' बन गई। इस बीच मोबाइल फोन और इंटरनेट ने भी रेडियो को वक्त और देश की सीमाओं से ऊपर उठाकर उसे जो नया आयाम दिया उसने भी रेडियो कर्मियों के सामने नई चुनौतियां और नई संभावनाएं खड़ी कर दी हैं।
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