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स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व। प्रसिद्ध फ्रांसीसी क्रांति का यही तो नारा था! इससे कहीं पहले गौतम बुद्ध ने भी इन्हीं सूत्रों को स्तंभ बना मानवता का संदेश दिया था। बाद में बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर ने भी यही बात दोहराई। परंतु संपूर्ण मानवता के लिए हितकारी इस समझ को जिहादियों ने रौंदने की ठानी है। पहले फ्रांस, फिर तुर्की और इसके बाद जर्मनी, विश्व राजनीति में उथल-पुथल और समाजों में डर बैठाती घटनाओं का यह दौर ऐसा है जब आंतक का व्याप बढ़ रहा है और साथ ही इससे निपटने के तरीकों पर वैश्विक भ्रम भी सतह पर दिखता है।
फ्रांस के नीस शहर में राष्ट्रीय अवकाश के दिन फ्रेंच क्रांति के स्मृति दिवस पर सुरक्षा का भारी ताम-झाम था लेकिन जिहादी ने 84 निरपराध लोगों की जान ले ली। तुर्की में रसेफ तैयप एर्दोगन सरकार का तख्तापलट विफल हुआ। विद्रोही सैनिकों को पकड़ा गया, मार डाला गया। जर्मनी के वुर्जबर्ग में स्थानीय ट्रेन में 17 वर्षीय अफगान शरणार्थी ने यात्रियों पर चाकू और कुल्हाड़ी से हमला बोल दिया और बाद में भागते हुए मारा गया। भौगोलिक स्तर पर, घटनाओं की तीव्रता के स्तर पर और घटनाओं से निपटने के शासकीय तरीकों के तौर पर ये घटनाएं अलग-अलग लग सकती हैं किन्तु सच यह है कि आज इनमें से किसी भी घटना को सिर्फ उसके भूगोल और राजनीति के दायरे में सीमित मानना बड़ी मूर्खता होगी।
भारी सुरक्षा तैयारियों के बाद भी नीस में हमला हो गया क्योंकि शत्रु तो शासकीय तैयारियों का स्तर पहचानता है लेकिन आधुनिक समाज की शासकीय व्यवस्थाएं शत्रु पहचानने में चूक रही हैं। लोगों को मारना ही उद्देश्य हो तो ट्रक काफी है। जिहादी को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसने आरडीएक्स की भरावन वाली जैकेट पहनी है या नहीं या जिस ट्रक का स्टेयरिंग उसके हाथ में है, वह विस्फोटकों से लदा है या नहीं। कम तैयारियों के साथ भी आतंक का व्याप कैसे बढ़ सकता है। इस बारे में जिहादी स्पष्ट हैं, शासन चलाने वाले भ्रम में हैं।
तुर्की में तख्तापलट की नाकाम कोशिश ने तो यह भ्रम और उभार दिया। लोकतंत्र से दूर होती और कट्टर इस्लाम की ओर झुकती सत्ता को समझने और विश्लेषित करने का मीडिया का नजरिया कितना उथला है, इसे एक घटनाक्रम ने सामने रख दिया। जिन सैनिकों ने जनता पर टैंक चढ़ाने से इनकार कर दिया था, लोग उन्हीं सैनिकों को घसीट-घसीट कर मार रहे थे…. किसी देश में तख्तापलट का समर्थन किसी हाल में नहीं किया जा सकता लेकिन एक सवाल तो बनता है… कौन थे यह लोग? क्या इस बात की पत्रकारों ने जांच की? नहीं भूलना चाहिए कि सीरिया और इस्लामिक स्टेट के विरुद्ध अभियान के लिए बांहें चढ़ाते तुर्की पर आईएस आतंकियों को पर्यटकों के लबादे में अपनी जमीन पर शह देने का आरोप है।
आईएस से लड़ते कुर्द पेशमर्गा सैनिक और इन दोनों से लड़ने की मुद्रा में एर्दोगन… दुनिया के सामने सिर्फ इतना ही और बुरी तरह उलझा हुआ चित्र आ रहा है। ऐसे में इस बात की जांच कौन करेगा कि तुर्की का वास्तविक शत्रु कौन है और असल में तुर्की किसके साथ है?
लगातार हमलों और युद्ध की सी स्थियों से जर्जर होते यूरोप के इस दरवाजे का इस्तेमाल आज कौन कर रहा है? यह कोरा फौजी असंतोष था या एर्दोगन विरोधी तत्व का विचार कमाल अतातुर्क की उस सेकुलर विचारधारा से फूटा था जो उदार इस्लाम में यकीन रखती है? जरा सी बात पर तह तक जाने का दम भरने वाले खोजी पत्रकार कहां हैं? विद्रोह की परतें खंगालती रपट कहां है? लोकतंत्र की बहसों के मंच कहां हैं? प्रगतिशील, सेकुलर खेमेबंदियों की जुबान पर ताला क्यों है? … तुर्की की पहचान कहां हैं?
फ्रांस और तुर्की की घटनाएं अगर उन्माद और कट्टरता से पैदा उथल-पुथल की लहरों सरीखी हैं तो वुर्जवर्ग की छोटी सी घटना 'आई ड्रॉप' के उस बूंद जैसी है जो वर्तमान परिदृश्य में इस्लामी आतंक और नफरत को लेकर वैश्विक नजरिए की धुंध छांट सकती है।
अफगानिस्तान से जर्मनी की दूरी तय करने वाले जिहादी के लिए 'शरणार्थी' का उदारवादी ठप्पा ढाल ही तो था। तुर्की जैसे ही किसी दरवाजे से यह शरणार्थी यूरोप के केन्द्र में जर्मनी तक पहुंचा होगा। निरपराध लोगों पर कुल्हाड़ी लेकर टूट पड़ने का कबाइली ढंग, अल्लाह-हो-अकबर की हिंसक ललकार और उसके सामान में मिला आईएस का झण्डा… इस्लामी आतंक की राह और मंशा बताने के लिए क्या इससे भी साफ नक्शे और शब्दों की जरूरत है? अमेरिका, फ्रांस, इंग्लैण्ड, समूचे यूरोप, अफ्रीका, एशिया में खूनी पंजे गड़ाकर बढ़ते आतंकी दानव की पहचान और पुष्टि में किसी को भी संदेह क्यों रहना चाहिए?
विडम्बना देखिए, प्रगतिशील खेमे के ख्यातिनाम लेखक, नोबेल पुरस्कार विजेता ओरहान पामुक अपने उपन्यास 'स्नो' में तटस्थता और भ्रम के बीच तुर्की की पहचान को निगलते
इस्लामी आतंक की पुष्टि कर चुके हैं, लेकिन खुद वामपंथी ही इससे आंखें मूंदे हैं।
लेकिन कब तक? सोने का ढोंग करने वालों को अपने हर बहाने का जवाब जनता के सामने देना होगा।
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