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-अरुण कुमार सिंह –
यह धारणा दुनियाभर में जोर पकड़ रही है कि यदि वैकल्पिक ऊर्जा को बढ़ावा नहीं दिया गया तो आने वाला समय समस्त मानव जाति के लिए मुश्किलों भरा हो सकता है, क्योंकि ऊर्जा के सभी स्रोतों और भंडारों का अंधाधंुध दोहन हो रहा है। आज ऊर्जा खपत की जो दर है, उसे देखकर लगता है कि ऊर्जा के स्रोत आज नहीं तो कल समाप्त हो ही जाएंगे। एक अनुमान है कि पूरे यूरोप में ऊर्जा की जितनी खपत होती है, उसका 54 प्रतिशत अरब देशों से तेल के रूप में आयात करना पड़ता है। भारत भी प्रतिवर्ष लगभग 60 अरब रुपए का तेल आयात कर रहा है। सवाल उठता है कि जब तेल के भंडार खत्म हो जाएंगे तब दुनिया की क्या स्थिति होगी, इसकी कल्पना ही लोगों को डरा देती है। इसलिए आज भारत सहित विश्व के अनेक देशों में वैकल्पिक ऊर्जा के लिए नए-नए शोध और प्रयोग हो रहे हैं। अमेरिका, इंग्लैण्ड, कनाडा, जर्मनी, जापान, स्वीडन जैसे देश वैकल्पिक ऊर्जा को बढ़ावा देने में लगे हैं। इन देशों में कूड़ा-कचरे से ऊर्जा प्राप्त करने की दिशा में अनेक प्रयोग हो रहे हैं। उल्लेखनीय है कि इन देशों में हर व्यक्ति प्रतिवर्ष लगभग पांच टन कूड़ा-कचरा पैदा होता है। इसका निस्तारण वहां की सरकारों के लिए बहुत बड़ी समस्या है। इसलिए इन देशों की सरकारों ने कचरे से ऊर्जा प्राप्त करने के लिए अनेक प्रयोगों को हरी झंडी दिखाई है। विशेषज्ञों का अनुमान है कि यदि सारे विश्व के कूड़े को जलाया जाए तो उससे प्राप्त ऊर्जा 4 लाख घनमीटर तेल से प्राप्त ऊर्जा के बराबर होगी।
इंग्लैण्ड की एक कंपनी फ्लेमलेस फनेर्सेज ने एक ऐसा संयंत्र विकसित किया है, जिसमें कूड़े-कचरे को डालकर उसे 900 डिग्री सेण्टीग्रेड पर जलाकर ऊर्जा प्राप्त की जाती है। इसे जमा कर विभिन्न उपयोगों में लिया जाता है। यह अन्य ऊर्जा की तुलना में बहुत ही सस्ती है। और इसको तैयार करने से वायु प्रदूषण भी नहीं होता है।
स्वीडन ने 'ब्रिनी' नाम से एक संयंत्र तैयार किया है। इस संयंत्र में कूड़े को छोटी-छोटी गोलियां बनाकर डाला जाता है और इसके जलने से ऊर्जा प्राप्त होती है। स्वीडन की एक तिहाई ऊर्जा की पूर्ति कूड़े को जलाकर प्राप्त की जा रही ऊर्जा से ही होती है।
लकड़ी के बुरादे को परिष्कृत रूप में इस्तेमाल कर न्यूजीलैण्ड ने ईंधन के खर्च में 80 प्रतिशत की कमी की है।
अमेरिका, इटली, जापान, जर्मनी और फ्रांस में ज्वालामुखियों से बिजली उत्पादन करने के अनेक प्रयोग हो रहे हैं। उल्लेखनीय है कि ज्वालामुखियों के आसपास जमीन की तलहटी में 150 से 300 डिग्री सेण्टीग्रेड का तापमान मौजूद रहता है। इस तापमान के जरिए टर्बाइन चलाकर बिजली पैदा की जाती है। इसे 'भू-गर्मी' ऊर्जा कहते हैं। एक अनुमान के अनुसार पूरे विश्व में 850 ज्वालामुखी हैं। इनमें 615 सक्रिय हैं और शेष सुप्त। इसके बावजूद इन सभी के आसपास मीलों तक 1000 मीटर की तलहटी तक गर्म खौलता पानी उपलब्ध रहता है। तकनीक के सहारे विद्युतीय जेनरेटर का संपर्क खौलते हुए पानी से कर दिया जाता है और ताप के दबाव से जेनरेटर चल पड़ता है। यह कभी न समाप्त होने वाली भाप बिना किसी वायु प्रदूषण के सतत विद्युत उत्पन्न करती रह सकती है। वैज्ञानिकों ने भू-गर्भीय जल का अधिकतम तापमान 358 डिग्री सेण्टीग्रेड पाया है जो भविष्य में 590 मेगावट की विद्युत शक्ति का उत्पादन कर सकता है।
कैम्ब्रन स्कूल ऑफ माइन्स ने पृथ्वी से हजारों फुट नीचे गर्म चट्टानों की ऊष्मा को एकत्रित कर उससे बिजली पैदा करने में सफलता प्राप्त की है। पृथ्वी के भीतर ग्रेनाइट की जो परत विद्यमान है, उसके विषय में ज्ञात हुआ है कि यह एक-तिहाई पृथ्वी के अन्दर समाहित है। माना जा रहा है कि यदि इसकी ऊष्मा का सही इस्तेमाल किया गया तो आगामी 50 वर्ष के लिए मात्र इसी स्रोत से ऊर्जा प्राप्त की जा सकती है।
यूरोप के कई देशों में अरसे से पवन चक्की से विद्युत उत्पादन हो रहा है। हॉलैण्ड और इंग्लैण्ड के ग्रामीण क्षेत्रों में खपत की जाने वाली ऊर्जा का अधिकांश भाग पवन चक्की से मिलता है। हॉलैण्ड में एक मेगावाट तक की क्षमता वाली कई पवन चक्कियां लगी हैं, जिनसे छोटे-छोटे उद्योग चलाए जा रहे हैं ।
अमेरिका में बड़े पंखों वाली कई पवन चक्कियों से विद्युत उत्पादन हो रहा है। इसको विस्तार देने का काम चल रहा है। लरेंस (फ्रांस) और किसलाया ग्यूबा (रूस) में ज्वार-भाटों से बिजली बनाई जा रही है। इन दोनों स्थानों पर 240 मेगावाट के संयंत्र सफलतापूर्वक चल रहे हैं। अमेरिका और कनाडा में पशुओं के गोबर से ऊर्जा प्राप्त करने के लिए काम हो रहा है। यह भारत के लिए भी जरूरी है। नई दिल्ली स्थित पूसा संस्थान के वैज्ञानिकों का मानना है कि ग्रामीण क्षेत्रों में पशुओं के गोबर और कृषि के कचरे, जो सामान्यत: गन्दगी एवं प्रदूषण पैदा करता है। को मीथेन गैस में परिवर्तित किया जा सकता है। अनुमान है कि एक लाख पशु 15 लाख टन गोबर प्रतिवर्ष देते हैं। एक पौंड गोबर से 10 घनफुट मीथेन गैस बनती है। इस प्रकार इतने गोबर से 3 अरब घन फुट मीथेन गैस बन सकती है। इन प्रयोगों और प्रयासों से लोगों को एक दिन जरूर पेट्रोल, डीजल का विकल्प मिलेगा। इससे मानव की रक्षा तो होगी ही, पर्यावरण भी सुरक्षित रहेगा। ल्ल
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