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पश्चिम बंगाल और केरल में विधानसभा चुनाव होने में कुछ ही महीने बाकी हैं। ऐसे में जिस बात पर उत्सुकता से सबकी नजर टिकी है वह यह कि मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी अपने कार्यकर्ताओं को कांग्रेस के प्रति अपने नए राजनैतिक प्रेम की बात कैसे बताती है। प. बंगाल में माकपा के केन्द्रीय नेतृत्व द्वारा कांग्रेस के साथ तालमेल को हरी झंडी मिलने के साथ ही पार्टी के 'गुड़ खाने और गुलगुलों से परहेज करने' वाले राजनैतिक दोमुंहेपन की पोल खुलने लगी है। प. बंगाल में यह कदम कामरेडों के लिए भले राहत की सांस हो लेकिन केरल के मार्क्सवादियों को इस मुद्दे पर सफाई देते नहीं बन रहा। जिस प. बंगाल पर माकपा का करीब 3.5 दशक तक राज पार्टी के लिए गौरव का विषय रहा अब वह राज्य पार्टी नेतृत्व के लिए शर्मिंदगी की ऐसी वजह है जिसकी कोई चर्चा नहीं करना चाहता।
माकपा की 21वीं कांग्रेस में जो प्रस्ताव स्वीकारा गया था नई राजनीतिक लाईन पूरी तरह से उसके विपरीत है। हाल ही विशाखापत्तनम में पार्टी का जो सम्मेलन हुआ था उसमें भी कांग्रेस के साथ किसी भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सहमति या गठबंधन की बात को पूरी तरह से खारिज किया गया था। कम्युनिस्ट पार्टी में टूट से पहले माकपा ने भाकपा पर कांग्रेस के प्रति नरम रुख का आरोप लगाया था। कांग्रेस के प्रति उदारवादी दृष्टिकोण रखने के कारण माकपा ने विगत में कई बड़े नेताओं को पार्टी से बाहर कर दिया था। सोमनाथ चटर्जी तक को पार्टी ने इस वजह से बाहर का रास्ता दिखा दिया था। इसी प्रकार केरल में के.आर. गौरी और एम.वी. राघवन को बाहर कर दिया गया था। माकपा का प्रदेश नेतृत्व उस आरएसपी पर भी छींटाकशी करता रहा जिसने केरल में लोकसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस के साथ समझौता कर लिया था। उस समय माकपा के प्रदेश सचिव पिनरई विजयन ने आरएसपी नेता और पूर्व मंत्री प्रेमचंद्रन को 'परमन्नारी' यानी 'घृणास्पद' तक कह दिया था। वृद्ध कामरेड सोमनाथ चटर्जी जब लोकसभा अध्यक्ष थे तब उन्होंने कांग्रेस के खिलाफ सदन में मतदान नहीं किया था। और उन्हें इसी बात की सजा मिली थी। इसी प्रकार के.आर. गौरी और एम.वी. राघवन जिन्होंने माकपा को बनाने में बड़ी भूमिका निभायी थी। उन्हें 'वर्ग शत्रु' घोषित किया गया। राजनीतिक रूप से कभी 'लाल राज्य' माने जाने वाले इन दो राज्यों में राजनीतिक मजबूरी जैसी भी हो इससे पार्टी की दिक्कत बढ़ने वाली है। खासकर उस पार्टी के लिए जो अपने हर कदम के लिए वैचारिक और अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य की दुहाई देती हो। इस बात से दो राय नहीं कि प. बंगाल में माकपा के लिए यह अस्तित्व बचाए रखने की अंतिम कोशिश है। पार्टी को भय है कि जैसे-जैसे चुनाव के दिन नजदीक आएंगे वैसे-वैसे बचे-खुचे कामरेड भी भारतीय जनता पार्टी या तृणमूल कांग्रेस की ओर जा सकते हैं। विडंबना की बात यही है कि आज प. बंगाल में माकपा वही काट रही है जो उसने राज करने के दौरान बोया था। यह माकपा ही थी जिसने सत्ता में रहते हुए राज्य में हिंसा की राजनीति शुरू की। आज सत्ता में बैठी तृणमूल कांग्रेस भी पूरी तरह उसी राह पर है। माकपा का राजनैतिक आधार ऐसा नहीं बचा है कि वह आगामी चुनाव में अकेले अपने दम पर कोई कमाल दिखा सके। पार्टी को डर है कि प. बंगाल में उसका बोरिया-बिस्तर लिपट सकता है। शायद इसीलिए आखिरी इलाज के तौर पर कांग्रेस के साथ की कड़वी गोली भी पार्टी को लेनी पड़ी लेकिन यह गोली क्या काम करेगी इसका अंदाजा लगाने में राजनीतिक पंडित तो क्या पार्टी के अंदर के लोग भी असमर्थ हैं। यह नाप-तोलकर लिया गया राजनीतिक जोखिम है। यदि माकपा को इससे कुछ विधानसभा सीटें मिल भी जाएं तो भी प. बंगाल में कांग्रेस के साथ यह नजदीकी केरल में पार्टी की संभावनाओं को नुक्सान पहुंचाएगी। यही कारण है कि माकपा का केन्द्रीय नेतृत्व कांग्रेस के साथ इस रिश्ते पर न तो स्पष्ट है और न ही साफ-साफ कुछ कह रहा है। यह दोहरापन प्रकाश करात की बातों में भी झलकता है। वे कहते हैं, ''राजनीति में ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न होती हैं जब न तो हां कहा जाता है और न ही न। कई बार एक समय में दोनों ही बातें हो जाती हैं।''
प. बंगाल की फांस ऐसी है जिसके कारण केवल राज्य इकाई में नहीं बल्कि माकपा की केन्द्रीय इकाई में भी मतभेद बढ़ते दिखाई दे रहे हैं। सीताराम येचुरी और प्रकाश करात के बीच चलने वाला शीतयुद्ध अब गोपनीय नहीं रह गया है। येचुरी प. बंगाल में हर हालत में कांग्रेस के साथ समझौता चाहते हैं, जबकि करात किसी भी प्रकार के समझौते या आपसी बातचीत के खिलाफ हैं। माकपा हमेशा से ही कांग्रेस पार्टी के प्रश्न पर बंटी रही है। किसी जमाने में पार्टी का एक धड़ा स्व. ज्योति बसु को कांग्रेस के समर्थन से प्र्रधानमंत्री बनाना चाहता था जबकि प्रतिद्वंद्वी गुट इसका विरोध कर अभियान की हवा निकाल देता था। नई दिल्ली में ज्योति बसु के प्रधानमंत्री न बनने को ऐसे ही कांग्रेसपरस्त माकपाइयों ने 'ऐतिहासिक भूल' कहा था। इसी प्रकार की विभाजक स्थिति पार्टी के सामने 2008 में संप्रग सरकार से समर्थन वापसी के समय उपस्थित हुई थी। दोबारा सोमनाथ चटर्जी के निष्कासन पर पार्टी के अंदर ही इसका विरोध हुआ था। प. बंगाल में भी कांग्रेस के साथ गठबंधन को लेकर माकपा एकजुट नहीं है। राज्य में विमान बोस और मदन घोष के नेतृत्व में पार्टी का एक धड़ा कांग्रेस के साथ जाने का विरोध कर रहा है। जबकि बुद्धदेव भट्टाचार्य पूरी तरह से कांग्रेस के साथ गठबंधन के लिए खुली रणनीति बना रहे हैं। केरल में माकपा की धड़ेबाजी को येचुरी और करात के खुले झगड़े ने हवा दे दी। राज्य में वी.एस. अच्युतानंदन और पिनरई विजयन के नेतृत्व वाले प्रतिद्वंद्वी धड़े पार्टी की प. बंगाल रणनीति पर भिड़े पड़े है।
अच्युतानंदन ने तेजी दिखाई और प. बंगाल में पार्टी द्वारा कांग्रेस के साथ चुनावी सहमति की प्रक्रिया का स्पष्ट समर्थन किया। नई दिल्ली में पार्टी की केन्द्रीय समिति में सीताराम येचुरी के साथ बंद कमरे में गहन मंत्रणा के साथ ही अच्युतानंदन ने केन्द्रीय समिति के सामने माकपा और प. बंगाल कांग्रेस के बीच सहमति के समर्थन में एक प्रस्ताव भी दिया था। प्रश्न यह है कि प. बंगाल में जो रणनीति होगी क्या वे अपने गृहराज्य केरल में भी वही रणनीति अपनाएंगे।
करात पिनरई को बढ़ावा और संरक्षण दे रहे हैं तो येचुरी हमेशा से ही अच्युतानंदन को बढ़ावा देते रहे हैं। दोनों धड़े विधानसभा चुनाव के मौके पर हिसाब बराबर करने के लिए मैदान में कूद पड़े हैं लेकिन दोनों के लिए ही केरल में सफाई देना आसान नहीं है। कांग्रेस के लिए भी स्थिति कम दु:खदायी नहीं है। भाजपा जरूर खुश है जो केरल में दो पालों में बंटी राजनीति को अंतिम करवटें बदलते देख रही है। हरि एस. कारथा
राजनीतिक हत्याओं का सिलसिला बदस्तूर जारी
1997 में राज्य विधानसभा में एक प्रश्न का उत्तर देते हुए तत्कालीन मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने स्वीकार किया था- 1977 से 1996 के बीच पश्चिम बंगाल में 28,000 राजनीतिक हत्याएं हुईं।
अर्थात हत्याओं का औसत प्रतिमाह 125 और प्रतिदिन लगभग चार था। लगभग 19 वर्ष की पूरी अवधि में प्रत्येक छह घंटे में एक राजनीतिक हत्या हुई।
सुन्दरबन स्थित मारिचझापी द्वीप में तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बसु से शरण की आस में पूर्वी पाकिस्तान से कुछ हिन्दू परिवार आए थे। जनवरी 1979 में उस द्वीप को घेरा गया, हिन्दू शरणार्थियों को मारा गया और महिलाओं के साथ बलात्कार हुआ।
ल्ल मार्च 1970 में माकपा के हत्यारों ने सेनबरी में कांग्रेस समर्थक परिवार के पुरुषों के सिर काट दिए थे।
अप्रैल 1982 में माकपा कार्यकर्ताओं ने आनंद मार्ग से जुड़े दो दर्जन भिक्षुओं और ननों की हत्या कर दी।
ल्ल जुलाई 2000 में ननूर में एक दर्जन मुसलमान किसानों की हत्या इसलिए कर दी गई क्योंकि वे कांग्रेस कार्यकर्ता थे।
ल्ल मार्च 2007 में नंदीग्राम में किसानों की उपजाऊ जमीन पर 10,000 एकड़ क्षेत्र में रासायनिक कारखानो की स्थापना का विरोध करने पर माकपा कार्यकर्ताओं ने 15 लोगों की हत्या कर दी।
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