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जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय घटनाक्रम, जाट आरक्षण आंदोलन और संसद की ठिठकन… संस्थान बंधक, राज्य बंधक, संसद बंधक! देश, समाज और एक लोकतंत्र के रूप में हम क्या हैं? क्या सातवें दशक में पहुंचती स्वतंत्रता यात्रा का यही पड़ाव हमने, हमारे पुरखों ने सोचा था? निश्चित ही हाल की घटनाएं गंभीर प्रश्न उठाने वाली हैं। लेकिन ठहरिए, बेकाबू होते बच्चे, सड़कों पर हिंसक हुजूम और संसद में तीखी बहसों में दब जाने वाली काम की बात, यह तस्वीर का एक पहलू है।
यह देश एक बड़े बदलाव से गुजर रहा है। इस बदलाव को जेएनयू में लगी किसी राष्ट्रविरोधी पुकार, रोहतक-मुरथल के घृणित घटनाक्रम या विपक्ष के अकर्मण्य रवैये से जोड़कर देखेंगे तो गच्चा खा जाएंगे।
बदलाव का दायरा इन घटनाओं से ज्यादा बड़ा है। ये घटनाएं ताजा हैं,तीखी हैं झकझोरती हैं। लेकिन, धीरे-धीरे पूरे देश के मानस को मथने वाले परिवर्तन के सामने यह कुछ भी नहीं है।
हैरान मत होइए, जेएनयू की दीवारों के भीतर कमोबेश वही हुआ था जो पिछले चार दशक से हो रहा था। परंतु उस पर ऐसी प्रतिक्रिया हुई जो पहले कभी नहीं हुई थी। यह बदलाव है। आरक्षण की आग में पहले भी यह देश सुलगा था मगर मुद्दे का राजनैतिक नफा भुनाने से पहले यह आग पहली बार ठंडी पड़ी है। बदलाव यह भी है।
संसद में विपक्ष के चार दर्जन से भी कम बेंच पर जा सिमटी परिवारवादी राजनीति की सिकुड़न…अगर यह बदलाव नहीं तो और क्या है?
दरअसल भारत के सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य का महापरिवर्तन कई तरह के राजनैतिक-वैचारिक उद्वेलनों का कारण है जिसका असर समाज तक अलग-अलग घटनाओं के रूप में सामने आ रहा है।
कैसे? देखिए। जेएनयू घटना की पड़ताल में जुटी विश्वविद्यालय की आंतरिक जांच समिति की रिपोर्ट संकेत कर रही है कि आरोपी छात्रों के अलावा उस रात परिसर में बाहरी तत्व भी बुलाए गए थे और यह साजिश जितनी दिखती है, उससे कहीं ज्याादा बड़ी है। तथ्य है कि परिसर में सेकुलर नेताओं की कतार 'भारत के दस टुकड़े होंगे, इंशाअल्लाह-इंशाअल्लाह' के नारों को सुनने के बाद और बावजूद लगी थी।
जाट आंदोलन भी अपने आप नहीं भड़का ।़8 फरवरी को पहले जेएनयू घटनाक्रम का विरोध करते वकीलों और व्यापारियों के गलतफहमी में भिड़ जाने की खबरें आईं, फिर आया एक संदिग्ध टेप। प्रदेश के शीर्ष कांग्रेसी नेता के करीबी व्यक्ति का बताया गया यह टेप कई अनकही बातें और राजनैतिक षड्यंत्र के संभावित पहलू सामने रख गया।
इसके बाद संसद… बहस से कतराते, वक्ताओं से खाली और मन में पिछले सत्र का गुबार लिए असहयोग की वही पुरानी मुद्रा।
वैसे, इस मुद्रा को किसी चेहरे तक मत बांधिए। लोकतंत्र पर हमले का, आंदोलन की आग का, विकास योजनाओं के विरोध का वह चेहरा है कहां?
जेएनयू में जो पकड़े गए ,उनके पीछे कोई…अज्ञात
जाट आंदोलन में सड़कों पर बिना नेता के भीड़ और इसके पीछे कोई…अज्ञात
प. बंगाल से लेकर देश की संसद तक राजनैतिक शत्रुओं को आपस में हाथ मिलाने को मजबूर करता…कोई अज्ञात
इस अज्ञात की पहचान ही समस्या का हल है, क्योंकि जागते-उठते और निरंतर आगे बढ़ते देश से यह अज्ञात ही सबसे ज्यादा डरा हुआ है।
पहचान ज्यादा मुश्किल नहीं है। एक देश, एक लोकतंत्र, एक समाज और एक लक्ष्य के लिए एकात्म होते हुए पहचानें तो यह चेहरा उजागर ही नहीं होगा, इसकी कमजोरी भी हमारे सामने आ जाएगी।
आइए मिलकर सोचें, देशव्यापी परिवर्तन के बैरी को पहचानें।
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