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सम में कांग्रेस शासन की भूमिका या कहें उसकी अनुपस्थिति को वहां के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई के एक बयान से साफ समझा जा सकता है। 2012 में जब बोडो क्षेत्रों के 400 गांवों में दंगा भड़का था, उस समय विपक्ष से चारों ओर से घिर चुके गोगोई ने लगभग मजाकिया अंदाज में कहा था, ''असम ज्वालामुखी के मुहाने पर बैठा है। असम ज्वालामुखी की तरह है। आप नहीं जानते कि यहां क्या हो रहा है।''
उनके शब्द थे, ''राज्य में दंगे लगातार होते रहे हैं, चाहे वह कोकराझार हो, कार्बी अंगलांग या दीमा हसाओ''। दुर्भाग्य यह है कि ये शब्द गोगोई ने 2012 में कहे थे जो राज्य में उनके शासन का 12वां वर्ष भी था। इसलिए अगर अतीत में झांकें तो सोचना पड़ेगा कि आखिर 2001 से 2015-16 (पंद्रह वर्ष का लंबा कार्यकाल) तक गोगोई की अपने राज्य को क्या देन रही है ?
इन्हीं बातों की रोशनी में यह भी सोचना पड़ता है कि आखिर इतने वषार्ें में कांग्रेस को गोगोई की क्या देन रही है ? आज वह कांग्रेस के निर्विवाद नेता हैं। उनका रसूख कुछ ऐसा है कि राज्य में 2011 की कांग्रेस की जीत के मुख्य कर्णधार रहे हेमंत बिस्वसरमा आज कांग्रेस पार्टी से ही बाहर हैं। वहीं इस वर्ष 22 जनवरी कोे नई दिल्ली में गोगोई ने पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा, ''हमारे सभी साथी आगे (चुनाव में) रहेंगे, परंतु कप्तान मैं रहूंगा। मैं पार्टी का जनरल हूं़.़'' यह कहते हुए उन्होंने खुद को लगातार चौथी बार मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार भी घोषित कर दिया।
कहना न होगा कि ये शब्द किसी भी कांग्रेसी नेता का अति-आत्मविश्वास ही दर्शाते हैं-जो बेशक आज दुर्लभ है! इसके उलट शासन की बागडोर संभालने के दौरान गोगोई ने जनता के बीच यदा-कदा ही आत्मविश्वास दिखाया। सच तो यह है कि गोगोई की सबसे बड़ी कमी डॉ़ मनमोहन सिंह के शासनकाल के दौरान सामने आई। गोगोई उस समय प्रधानमंत्री की सलाह के अनुसार शासन नहीं चला पाए थे जिस दौरान डॉ़ सिंह खुद असम से चुने गए सांसद थे। दरअसल असम के लिए वह दुर्लभ मौका था। परंतु अब वहां की जनता को ऐसी कोई उम्मीद नहीं है कि उनका कोई प्रतिनिधि निकट भविष्य में प्रधानमंत्री पद के लिए चुना भी जाएगा! विडंबना यह है कि गोगोई और डॉ़ सिंह दोनों ही कांग्रेस के नेता हैं!
दरअसल, गोगोई के शासनकाल में असम सरकार कई बार हिंसक वारदातों और जातीय तनावों को रोकने में नाकाम साबित हुई। प्रदेश में जब भी दंगे भड़के, उन्हें रोकने में गोगोई प्रशासन हर बार असफल रहा। बंगलादेश से हो रही घुसपैठ के कारण राज्य में सीमावर्ती एवं अंदरूनी क्षेत्रों में मुस्लिम समुदाय की संख्या में भारी बढ़ोतरी हुई है। ऐसे भी आरोप सामने आए हैं कि गैरकानूनी तरीके से राज्य में प्रवेश कर रहे लोग राज्य सरकार के नुमाइंदों की मिलीभगत से भूमि कब्जा रहे हैं। यह अधिकांश जमीन जनजाति समुदाय की है। धुबरी या चिरंग एवं बक्सा जैसे क्षेत्रों के उदाहरणों से स्पष्ट है कि बंगलादेश से मजदूरी करने के लिए आने वाले लोग आसानी से जमीनों के 'पट्टे' हासिल कर रहे हैं।
राज्यव्यापी ऑल बोडो स्टूडेंट्स यूनियन के अध्यक्ष प्रमोद बोडो कहते हैं, ''हालात दिनोदिन बिगड़ते जा रहे हैं। बोडो क्षेत्रों में प्रवासियों के जमीन हथियाने, विकास और प्रशासनिक कायार्ें के प्रति सरकारी उदासीनता, बेरोजगारी और अवसरों की कमी के कारण स्थानीय लोगों का जीवन बेहद कठिन होता जा रहा है।''
इन परिस्थितियों के कारण कानून-व्यवस्था की बदहाली बढ़ रही और राष्ट्रविरोधी गतिविधियों को बढ़ावा मिल रहा है। अगस्त-सितंबर 2012 में सेना ने दक्षिण असम के छह जिलों में व्यापक खोज अभियान के दौरान भारी मात्रा में गोला-बारूद बरामद किया जो आतंक फैलने के काम आता। राज्य में मुस्लिम यूनाइटेड लिबरेशन टाइगर्स ऑफ असम सबसे सक्रिय अतिवादी मुस्लिम संगठन है। धुबरी और अन्य असुरक्षित क्षेत्रों से हथियार और गोला बारूद राज्य में लाने ले जाने वाले कुछ व्यक्तियों और गुटों की धरपकड़ में सफलता प्राप्त हुई है। कुछ ही समय पहले, उल्फा के एक प्रमुख लीडर मृणाल हजारिका ने कहा था कि बंगलादेशी एवं पाकिस्तानी खुफिया एजेंसियों की मदद से बंगलादेशी घुसपैठिए धुबरी क्षेत्र में सक्रिय हैं। परंतु इसके विपरीत प्रशासन ने जमीनी स्तर पर सिर्फ नाम के लिए ही कार्रवाई की है।
हाल में एक अंग्रेजी समाचार पत्र के संपादकीय में कहा गया था – कोकराझार की त्रासदी के गर्भ में सरकार की स्थानीय मांग के प्रति उदासीनता स्पष्ट झलकती है। यह मांग है स्वायत्त क्षेत्रीय परिषदों की स्थापना। जब तक क्षेत्र के विकास से जुड़ी जरूरतों पर ध्यान नहीं दिया जाएगा, तब तक उसकी कहानी हिंसा और अविश्वास के पुराने चक्र में फंसी रहेगी।''
इस तथ्य से अधिकांश लोग एकमत हैं। भाजपा नेता एवं गुवाहाटी की सांसद बिजॉया चक्रबर्ती कहती हैं, ''असम में बोडो एवं अन्य कबीलों की जमीन आर्थिक स्रोत से कहीं बढ़ कर है। वह उनकी उत्पत्ति, उनके इतिहास का प्रतिनिधित्व करती है़.़ परंतु बाहरी लोगों के आने से सबसे अधिक नुकसान कबीले वासियों एवं स्थानीय लोगों को हुआ है। असम में बोडो एवं अन्य कबीलों के मालिकाना हक वाली जमीन अब उनके पूर्वजों की जमीनों की अपेक्षा बेहद कम रह गई है। शेष जमीन प्रवासियों के कब्जे में चली गई है।''
हाशिये पर जनजातीय समाज
असम की संकट कथा और कांग्रेस तथा असम गण परिषद की छह दशक लंबी प्रशासनिक असफलता की दास्तां केवल बोडो इलाकों या बंगलादेश के गैरकानूनी घुसपैठियों तक ही सीमित नहीं है। 'आदिवासियों' या चाय-बागान कर्मियों की दुर्दशा राज्य और केंद्र की असफलता की एक और कहानी कहती है।
अतीत में कुछ कांग्रेसी नेताओं ने जनजातियों के प्रति गैर-जिम्मेदार बयानों से उनके जख्मों को और ताजा किया था। कुछ ही समय पहले मेघालय के विवादास्पद कांग्रेसी नेता और मनमोहन सिंह सरकार में आदिवासी मामलों के मंत्री रहे पी आर किंदया ने कहा था, ''आदिवासियों के लिए अनुसूचित जनजाति दर्जे का विचार करते समय कबीलाई विशेषताओं, आदिम पृष्ठभूमि और उनकी विशिष्ट संस्कृति-परम्पराओं को ध्यान में रखना होगा।'' यही नहीं, तत्कालीन गृह मंत्री शिवराज पाटील ने भी कहा था कि आदिवासी ''अपनी कबीलाई चारित्रिक विशेषता खो चुके हैं।''
पाटील ने इस ओर ध्यान खींचा था कि 1999 में पी. के़ महंत के नेतृत्व वाली तत्कालीन असम सरकार ने केंद्र से कहा था कि वह था इन समुदायों को अनुसूचित जाति में शामिल न करे क्योंकि इससे क्षेत्र के अन्य कबीलों की जीवनशैली पर असर पड़ सकता है। इसका नतीजा यह हुआ कि अपनी मांगों के प्रति आदिम जातियों के लोग अधिक उग्र होते गए और उन्होंने धरना-प्रदर्शन व हिंसा का सहारा लेना शुरू किया। 24 नवंबर 2007 में बेल्तोला में अनुसूचित दर्जे की मांग कर रहे आदिवासियों और 'स्थानीय' (असमिया) लोगों के बीच 'दंगा' हुआ था। हैरानी नहीं कि यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम (उल्फा) के मुखपत्र 'स्वाधीनता' ने आरोप लगाए थे कि कुछ राजनेता असम के आदिवासियों और चाय-बागान के कबीले के लोगों को अन्य असमिया लोगों से अलग करने का षडयंत्र रच रहे हैं।
खरिया एवं ओरांव जैसे कुछ अन्य समूहों के साथ चाय उगाने वाले कुछ वंचित समूहों को असम के 'चाय कबीलों' की संज्ञा दी गई है। पिछले कुछ दशकों से विशेषकर बागान क्षेत्रों में काम करने वाले समूहों ने अपनी विशिष्ट श्रेणी के आधार पर खुद को 'आदिवासी' कहलाना आरंभ किया। परंतु स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद वह अधिकांशत: हाशिये पर ही रहे हैं। अब मोदी सरकार छह ऐसे कबीलाई समूहों को अनुसूचित दर्जा देने की तैयारी कर रही है। कोक-राजबंशी, ताइ अहोम, मोरन, मोतोक एवं शुतिया से उल्फा की भी प्राथमिकता रहे हैं। क्षेत्रों की तरह असम के लिए भी हालात जटिल रहे हैं। 23 दिसंबर 2014 को सोनितपुर और कोकराझार के पांच क्षेत्रों में बोडो गुट एनडीएफबी उग्रपंथियों के हमले में 21 बच्चों सहित 76 आदिवासी मारे गए थे।
इन क्षेत्रों में अक्सर हिंसा की घटनाओं का बोडो, आदिवासियों एवं संथालों पर पड़ा है और इस संघर्ष में ईसाइयों, हिंदुओं एवं मुसलमानों की जानें गई हैं। उदाहरण के लिए, 2012 में बोडो कबीलाई क्षेत्रों में स्थानीय बोडो एवं बंगाली भाषी मुसलमानों के बीच खूनी झड़प हुई थी। इसलिए चुनावी माहौल में अब गोगोई सरकार की भूमिका को लेकर लोगों के बीच ऊहापोह के चलते बेहतर होगा कि भारत सरकार को ध्यान रखना होगा कि सभी तरह के जातीय, सांप्रदायिक, आंतरिक कबीलाई एवं कबीलाई बनाम गैर-कबीलाई संघर्ष अभी भी असम की राजनीति और उसके अस्तित्व का अभिन्न अंग हैं। नीरेंद्र देव
असम के विकास के रास्ते की रुकावट?
भ्रष्टाचार, योजना शून्यता, बिचौलियों की भूमिका, प्रशासनिक कायार्ें में बरती जाने वाली अनौपचारिकता, भूमि विवाद, नरेगा कर्मियों को भुगतान में देरी, कृषि बाजार उद्योग की कमी, कोल्ड स्टोरेज की कमी, मछली बाजार की कमी और महंगी खाद।
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