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राजधानी दिल्ली इस समय कूड़े के ढेर और उससे फैलती बदबू की त्राहि-त्राहि कर झेल रही है। कहना चाहिए कि इसके लिए वह खुद को ही कोस रही है। यह नजारा और आत्मग्लानि का भाव ऐसा है जिसका कोई दूसरा उदाहरण खोजे नहीं मिलेगा। एक वर्ष में ही ऐसी घटिया गिरावट के दिन क्यों देखने पड़े? यह सवाल हर दिल्लीवासी खुद से पूछ रहा है। उसे अपने से ही जवाब खोजना है। किसी नागरिक की ऐसी लाचारी क्या लोकतंत्र का ही बड़ा मजाक नहीं है? जवाब में इससे भी तीखे प्रतिप्रश्न उभरते हैं।
ज्यादा दिन नहीं हुए। इसलिए हर किसी को अपनी याददाश्त पर अधिक जोर डालने की जरूरत नहीं पड़ेगी। करना इतना ही होगा कि नजर फेरें और पिछले वर्ष की हलचलों को देखना शुरू करें। यह करते ही पूरी तस्वीर बोलने लगेगी। लोकसभा चुनावों से पहले दिल्ली विधानसभा के चुनाव एक खास कशमकश में हुए थे। एक तरफ भ्रष्टाचार के खात्मे के लिए बहुत दिनों बाद आंदोलन था, तो दूसरी तरफ एक भ्रष्ट सरकार को हटाने की राजनीतिक प्रेरणा उभरी थी। आंदोलन का नेतृत्व अरविंद केजरीवाल कर रहे थे। भ्रष्ट सरकार की प्रतीक बन गई थीं, शीला दीक्षित। विकल्प की दावेदारी भाजपा की थी। लेकिन जनादेश अस्पष्ट आया। फिर चुनाव हुए। उसका परिणाम हर किसी को अचंभे में डाल गया। अरविंद केजरीवाल का नाम जीता। जिन्हें भी उम्मीदवार बनाया उन पर जनता ने मोहर लगा दी। भाजपा सिर्फ तीन चेहरों में सिमट गई। सोचिए कि वह जनादेश था किसलिए? सीधा सा जवाब है।
दिल्लीवासियों ने अरविंद केजरीवाल से बड़ी उम्मीदें बांधीं। इसके अनेक स्पष्ट कारण थे। ऐसे ही वक्त के लिए विचारक लॉर्ड ऐक्टन ने एक चेतावनी दे रखी है, ''सत्ता भ्रष्ट करती है और संपूर्ण सत्ता तो पूर्णरूपेण भ्रष्ट कर देती है।'' इस पर अरविंद केजरीवाल को ध्यान देना चाहिए था, पर उन्होंने इसका अर्थ ही गलत लगा लिया। वे संपूर्ण सत्ता की मृगमरीचिका को पाने के लिए दौड़ने लगे।
चंद दिन पहले बनी पार्टी पर अपना पूरा वर्चस्व कायम करना उन्हें इसके लिए जरूरी लगा। बड़ी निर्ममता और अनैतिक राजनीति को अपना कर प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव को धक्के मारकर बाहर करवा दिया। तब अरविंद केजरीवाल को मदांध माना गया। शुरुआती दिनों में ही ऐसा लक्षण था जिससे दिल्लीवासियों को सावधान हो जाना चाहिए था। मतदाताओं ने समझा कि यह तो उनके घर का मामला है। इसलिए उपेक्षा कर दी। उसे कई तरह से देखा गया। किसी ने जनता पार्टी में कभी किसी जमाने में उभरे कलह का उसे मात्र प्रहसन माना। वास्तव में वह घटना अरविंद केजरीवाल के चेहरे से नैतिकता और जवाबदेही का नकाब उतारने के लिए काफी थी। उस घटना से आआपा पर एक चौकड़ी का कब्जा हो गया जिसके सरदार अरविंद केजरीवाल बने।
संपूर्ण सत्ता पाने की नासमझ लालसा से प्रेरित केजरीवाल ने केंद्र सरकार से टकराव का रास्ता चुना। उसके लिए उपराज्यपाल को निशाने पर लिया। फिर पुलिस को अपने हमले के लिए चुना। वे भूल ही गए कि एक संवैधानिक व्यवस्था में दिल्ली की सरकार चलाने का उन पर जिम्मा आया है। असल में तो दिल्ली की विधानसभा से बनी सरकार शहर की व्यवस्था को सुचारू तरीके से चलाने के लिए जवाबदेह होनी चाहिए। उसको कुछ मर्यादाओं में काम करना होता है। अरविंद केजरीवाल के रंग-ढंग से कौन-कौन हैरान और परेशान नहीं हुए! वे सभी लोग हैरत में पड़ गए जिन्हें दिल्ली की संवैधानिक स्थिति का थोड़ा-बहुत ज्ञान और अनुभव है। ऐसे लोगों में पूर्व मुख्यमंत्री और पूर्व मुख्य सचिव भी हैं। समय-समय पर अरविंद केजरीवाल के बयानों को भी यहां दोहराने की जरूरत नहीं है। जानने की जरूरत इतनी ही है कि एक बढ़ई अपने रंदे से ही जूझने में पहले दिन से जुटा हुआ है।
जरूरत सिर्फ अरविंद केजरीवाल की राजनीति को खोलकर समझने की है। वे ब्लैकमेलिंग की राजनीति कर रहे हैं। इससे दो लक्ष्य साधने का उनका विचार है। केंद्र को हर बात के लिए दोषी ठहराकर अपनी प्रशासनिक अक्षमता और अयोग्यता को ढक कर रखना चाहते हैं। दूसरी तरफ अपने राजनीतिक समर्थकों को भ्रमित किए रखने का जुगाड़ कर रहे हैं और उन्हें बता रहे हैं कि अगर मेरी सरकार कुछ नहीं कर पा रही है तो इसमें मेरा कोई दोष नहीं है। केंद्र का सहयोग नहीं मिल रहा है। उनके समर्थक इस बात के विस्तार और गहराई में नहीं जा सकेंगे कि संवैधानिक मर्यादा क्या है। कुछ लोग इसे भ्रमित करने की राजनीति भी कह सकते हैं। जो सही नहीं होगा।
किसी आंदोलन से निकली पार्टी और फिर बनी सरकार का जो बड़ा दायित्व होता है उसे अरविंद केजरीवाल न समझते हों, ऐसे नादान तो वे नहीं हैं। समझ-बूझकर एक मुख्यमंत्री जो कुछ कर रहा है उससे दिल्ली के जनजीवन पर बड़ी विपदा आ गई है। इससे नुकसान उस मनोभावना का भी हो रहा है जिससे समाज बड़े परिवर्तन के लिए आंदोलन की राह अपनाता है। यह आंदोलन के साथ दोहरा विश्वासघात है। अरविंद केजरीवाल इसके दोषी हैं। आंदोलन से दगा कर दल बनाया। दल बन सके इससे पहले ही असहमति की आवाज को दबा दिया। परिणाम यह हुआ कि आआपा न तो आंदोलन का अस्त्र रहा, न संसदीय लोकतंत्र के औजार के रूप में राजनीतिक दल बन सका। वह लफंगों का राजनीतिक गिरोह बनकर रह गया है। ऐसा गिरोह जब सत्ता में आ जाए तो जो नजारा हो सकता है वह दिल्ली में खूब साफ दिख रहा है।
रामबहादुर राय
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और 'यथावत' पत्रिका के संपादक हैं)
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