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ज्योतिर्मय/पाञ्चजन्य ब्यूरो
शनि शिंगणापुर से हाजी अली दरगाह तक, महिला अधिकारों की गूंज है। विभिन्न संप्रदायों और उनके मतावलंबियों पर अपने आस्था स्थलों की गरिमा और सामाजिक अधिकारों से तालमेल की चुनौती है। 'ऊपरवाले' के सामने इंसानों में फर्क का यह सिलसिला किस मोड़ पर थमेगा?
महर्षर्ि अरविंद का प्रसिद्ध कथन है: ''मंदिर मनुष्य का परमात्मा के प्रति कृतज्ञता का प्रतीक है।'' महर्षि अरविंद के इस वक्तव्य का दायरा मस्जिद, चर्च, गुरद्वारा आदि आराधना स्थलों तक भी फैलाया जा सकता है। आप देखेंगे कि गांव में किसी के पास पक्का घर हो या न हो, मंदिर जरूर होगा। उस आराधना स्थल का रख- रखाव और वैभव भी अप्रतिम होगा। गांव ही क्या, शहर में भी विराट वैभवशाली इमारतों का हिसाब लगाया जाए तो वह कोई आराधना स्थल ही होगी। वहां लोग अपने लौकिक और आंतरिक जीवन में व्याप्त वैभव के लिए परमात्मा से प्रार्थना करते, कृतज्ञता व्यक्त
करते दिखाई देंगे। ईश्वर के प्रति आभार जताने की इस व्यापक आंतरिक विवशता का
उल्लेख इसलिए कि पिछले कुछ समय से पूजास्थल विवाद और संघर्ष के केंद्र बन रहे हैं, या वे किसी न किसी तरह राजनीतिक या सामाजिक क्षेत्र में शक्ति परीक्षण का अखाड़ा बनते जा रहे हैं।
ताजा विवाद शनि शिंगणापुर को लेकर है कि वहां स्त्रियों को मुख्य वेदी पर पूजा पाठ और तेल अभ्यंग चढ़ाने का अधिकार है या नहीं। हाल तक महाराष्ट्र में अहमदनगर के पास शिंगणापुर गांव में स्थित शनि मंदिर में पारंपरिक रूप से पूजा-अर्चना होती थी। महिलाओं के लिए रोक थी कि वे शिलानुमा शनि के विग्रह पर तेल नहीं चढ़ाती थीं लेकिन पुरुषों की तरह पूजा करती थीं। हालांकि पिछले कुछ वर्षों में दर्शनार्थियों की बढ़ती संख्या के कारण मंदिर ट्रस्ट ने शनि शिला वाले चबूतरे तक पुरुषों और स्त्रियों, दोनों का प्रवेश रोक दिया था। फिर भी समानता के अधिकार का तर्क देते हुए विवाद अरसे से चल था। कुछ महिला कार्यकर्ताओं की रुचि इसे हवा देने में अधिक थी और मीडिया के एक हिस्से के लिए भी यह टीआरपी वाली खबर थी। मजेदार बात यह कि शनि शिंगणापुर का प्रबंधन करने वाले ट्रस्ट का नियंत्रण राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के स्थानीय कार्यकर्ताओं के हाथ में है और एक महिला अनिता शेटे ट्रस्ट की अध्यक्ष हैं। शेटे स्वयं शनि शिला चबूतरे पर महिलाओं के प्रवेश का विरोध करती रही हैं, लेकिन अब उनका कहना है कि ट्रस्ट इस विषय पर बातचीत का पक्षधर है और संवाद का दौर शुरू भी हो गया है। पिछले साल पुणे की ही एक महिला ने मंदिर के चबूतरे पर चढ़कर शनि के विग्रह पर तेल चढ़ाया था। महिलाओं के लिए वर्जित माने जाने वाले इस कृत्य का विरोध हुआ और कहा जाता है कि ट्रस्ट ने इसके बाद शुद्धिकरण करवाया। पूजा करने वाली महिला ने तो माफी मांग ली, पर शुद्धिकरण को लेकर महिलाओं ने काफी आक्रोश जताया।
इसके खिलाफ इस साल एक संगठन भूमाता रणरंगिणी ब्रिगेड की तृप्ति देसाई ने महिलाओं से आह्वान किया, ''शनि शिंगणापुर ट्रस्ट की दादागिरी नहीं चलेगी। हम शनि शिला पर जाकर पूजा जरूर करेंगे।'' देसाई ने सभी महिलाओं से अपील की कि वे उनकी इस 'क्रांति' में साथ दें। इससे महाराष्ट्र और समूचे देश में सामाजिक विभ्रम की स्थिति बन गई और मामले ने जल्द ही राजनैतिक रूप धारण कर लिया। 26 जनवरी को भूमाता ब्रिगेड की अगुआई में सैकड़ों महिलाओं ने मंदिर में प्रवेश करने की कोशिश की, लेकिन कड़ी सुरक्षा और स्थानीय लोगों, जिनमें बड़ी संख्या में महिलाएं भी थीं, के विरोध की वजह से परंपरा को तोड़ा नहीं जा सका। प्रवेश समर्थक महिला आंदोलनकारियों का विरोध कर रहे गांववालों का साथ देने शिवसेना की महिला कार्यकर्ता भी आगे आ गईं। आंदोलनकारी महिलाओं को आम आदमी पार्टी तथा दूसरे वामपंथी गुटों का समर्थन था, लेकिन ट्रस्टी दबाव में आने को तैयार नहीं थे.
यह मुद्दा 17 वर्ष पहले तब की भाजपा-शिवसेना सरकार के कार्यकाल में उठाया गया था। वर्तमान भाजपा-शिवसेना शासन से पहले कांग्रेस-एनसीपी ने 15 वर्ष शासन किया, लेकिन उन्होंने यह विवाद सुलझाने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई और किसी महिला संगठन ने तब यह विवाद खड़ा करने की जरूरत भी नहीं समझी। महाराष्ट्र विधानसभा में विपक्षी कांग्रेस के नेता ने तो विवाद गरमाने पर संवाददाताओं से कहा, ''हर (धार्मर्िक) स्थल की अपनी परंपराएं और रीति-नीति होती है और उसे खंडित नहीं करना चाहिए।'' लेकिन दूसरी ओर कांग्रेस आंदोलनकारियों का समर्थन भी करती रही। कई राजनैतिक विश्लेषकों को अंदेशा है कि विवाद खड़ा करने की कोशिशें इसीलिए हो रही हैं क्योंकि देवेंद्र फडणवीस की अगुआई वाली भाजपा सरकार कांग्रेस-एनसीपी के नेताओं से जुडे़ भ्रष्टाचार के मामलों की गंभीरता से जांच कर रही है। इससे दोनों दलों की कठिनाई बढ़ गई है। ऐसे में वामपंथी गुटों को साथ लेकर नए-नए विवाद खडे़ करने और राज्य सरकार के विकास कार्यक्रमों से ध्यान भटकाने के प्रयत्न जोरों पर हैं।
हालांकि आध्यात्मिक गुरु श्री श्री रविशंकर ने काशी विश्वनाथ मंदिर की तरह गर्भगृह में सिर्फ पुजारी के प्रवेश की व्यवस्था अपनाने या विवाद को मिल-बैठकर सुलझा लेने का सर्वथा उचित सुझाव दिया है और इसी सप्ताह शनि शिंगणापुर जाकर सभी पक्षों से भेंट करने की भी उनकी योजना है, लेकिन उनके सुझावों को मानने के लिए आंदोलनकारी तैयार होंगे, यह कहना मुश्किल है। उत्तर प्रदेश में सहारनपुर जिले के देवबंद में देवीकंुड स्थित महाकालेश्वर आश्रम के योग और ध्यान गुरु स्वामी दीपंकर महाराज ने 4 फरवरी को शनि शिंगणापुर में दावा किया कि मंदिर का ट्रस्ट महिलाओं को समान अधिकार देने को राजी हो गया है। लेकिन मंदिर के व्यवस्थापकों में से एक संजय बानकर ने इसकी पुष्टि नहीं की। हालांकि भूमाता ब्रिगेड की देसाई ने माना कि संवाद की प्रक्रिया चल रही है।
शनि शिंगणापुर में स्त्रियों के प्रवेश का विवाद केरल के पश्चिमी घाट में स्थित सबरीमला के अयप्पा मंदिर में 16-50 वर्ष आयुवर्ग की यानी मासिक धर्म वाले आयु वर्ग की महिलाओं के प्रवेश पर शताब्दियों से जारी प्रतिबंध की परंपरा को चुनौती देने वाली एक पुरानी जनहित याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय टिप्पणी के ठीक बाद उठा। अदालत का मत था कि महिलाओं को अयप्पा मंदिर में प्रवेश की मनाही असंवैधानिक है, हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने इस बारे में अंतिम फैसला नहीं दिया। दूसरी ओर केरल में ही अट्टुकल भगवती मंदिर है जहां केवल महिलाएं ही प्रवेश कर सकती हैं। महिलाओं का सबरीमला कहा जाने वाला यह मंदिर अपनी एक अनोखी परंपरा- अट्टुकल पोंगला के लिए प्रसिद्ध है जब लाखों की संख्या में महिलाएं मंदिर में पहुंचती हैं। लाखों स्त्रियों की उपस्थिति से मंदिर का नाम गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड्स में दर्ज हो गया है। शिंगणापुर प्रकरण के साथ ही मंुबई के महालक्ष्मी तट पर समुद्र में कुछ दूर स्थित प्रसिद्ध हाजी अली की दरगाह, जहां दुनिया भर से हजारों श्रद्धालु और दर्शक पहुंचते हैं, में मुस्लिम महिलाओं के प्रवेश पर पाबंदी के विरुद्ध मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ने वाले संगठन भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन तथा एक अन्य वाघिणी (शेरनी) संगठन के नेतृत्व में मुस्लिम महिलाओं ने मुंबई के आजाद मैदान में विरोध प्रदर्शन किया। दरगाह के ट्रस्ट ने चार बरस पहले ही दरगाह में महिलाओं के घुसने पर रोक लगाई थी। ट्रस्ट की दलील थी कि दरगाह में महिलाओं का प्रवेश इस्लाम के खिलाफ है। भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन ने बॉम्बे उच्च न्यायालय में याचिका दायर कर इस पाबंदी को हटाने की मांग की है।
वास्तव में पुराणों में मंदिरों की व्यवस्था और विधि-निषेध का वर्णन मिलता है। अग्नि पुराण में इस बारे में सबसे ज्यादा जानकारी दी गई है। यह पुराण 15 वीं शताब्दी के आसपास रचा गया। उस दौरान लोगों का ध्यान चूंकि मंदिरों के आंतरिक वैभव की ओर जा रहा था, इसलिए कुछ समीक्षकों के अनुसार मंदिरों की पूजा व्यवस्था के बारे में कई नियम-उपनियम अस्तित्व में आए। छठी-सातवीं शताब्दी में रचे गए वृहत्संहिता ग्रंथ के अनुसार नदियों के पास, एकांत में और गिरि पर्वतों की गोद में मंदिर बनाने चाहिए।
विष्णुधमार्ेत्तर के अनुसार मंदिर पहाड़ों, गुफाओं और प्रकृति के आंगन में स्थित होने चाहिए। निर्माण का विधि-विधान और व्यवस्था तंत्र भी है। महर्षि अरविंद के अनुसार इस तरह बनाए गए मंदिर देवता के निवास ही नहीं, उनके जीवंत शरीर भी होते थे। इन्हें 'जागृत' रखने के लिए पुरश्चरण, तितिक्षा, तप-पुण्य परमार्थ और यज्ञ-याग का आयोजन होता था। लिहाजा उन स्थानों की सुरक्षा के लिए व्यवस्था करने की जरूरत नहीं होती थी, बल्कि वहां चलने वाले जप-तप और अनुष्ठान आदि की व्यवस्था पर ध्यान दिया जाता था।
आठवीं-नवीं शताब्दी में मंदिर और पूजा गृह लोकजीवन में रच बस गए तो इन केंद्रों या देवस्थानों को भी अलग अलग स्तरों पर बांटा गया। इस तरह के मंदिरों को चार वर्गों में बांटा गया। एक तीर्थमंदिर, दूसरे उत्सव मंदिर, तीसरे ग्राम मंदिर और चौथे सामान्य मंदिर, जिन्हें देवल, देवरा या देवस्थान भी कहा जाता है। साधु-संन्यासियों और गुरुजनों या पूर्वजों की स्मृति में बनाए मंदिरों को स्मारक या चबूतरा भी कहते हैं। तीर्थ मंदिर, जहां लोग यदा कदा जाते हैं, देवताओं और अवतारों से संबंधित उन स्थानों की यात्रा करते और अपनी पुण्य भावनाएं जताते हैं। इस तरह की यात्रा में चार धाम, सात पुरियां और बारह नगरी, बावन तीर्थ और शक्ति पीठ शामिल हैं। दूसरे, उत्सव मंदिर में कला संस्कृति का विकास होता था। इसमें नृत्य-कला, संगीत, साहित्य आदि गतिविधियां शामिल हैं। ग्राम मंदिर प्राय: हर बस्ती में होते, और कभी-कभार आबादी के हिसाब से ज्यादा भी हो सकते थे। ये मंदिर लोगों की दैनिक चर्या से जुड़े होते और घर-परिवार में जब भी कोई विशिष्ट आयोजन होता, तो उसकी शुरुआत इन जगहों से होती। ये आयोजन चाहे पर्व उत्सव के हों ब्याह-शादी के हों या जन्म मृत्यु के भी क्यों न हों, हर अवसर पर इनमें हाजिरी लगाई जाती। शक्ति पीठ गांव बस्ती में चलने वाली तांत्रिक गतिविधियों के लिए सुरक्षित थीं। वहां लोग बीमारी के समय फरियाद करते अथवा भेंट पूजा चढ़ाते। मंदिरों के इन दसियों प्रकार और हजारों की संख्या में होने पर जाहिर है कि सबकी विधि-व्यवस्था और अनुशासन-मर्यादा अलग-अलग थी। कई स्थानों पर पुरुषों का प्रवेश वर्जित था तो कुछ स्थानों पर महिलाओं का। कई जगह बच्चों और किशोरों के जाने पर रोक थी।
मंदिरों की विधि-व्यवस्था में वहां की गरिमा और परंपरा से सुसंगति करते हुए सुधार होते रहे हैं और कालबाह्य हो चुके नियमों का त्याग कर विधि-विधान में समय की जरूरत के हिसाब से बदलाव भी हुए हैं। नए
युग में विभिन्न संप्रदायों और मतों के अनुयायियों के सामने बड़ी चुनौती है कि वे अपने मंदिरों की आध्यात्मिक गरिमा का सामाजिक अधिकारों से तालमेल कैसे बनाए रखें। समन्वयवादी धर्मों के लिए इससे पार पाना कोई मुश्किल नहीं।
— साथ में राजेश सालगांवकर एवं सुरेंद्र सिंघल
अधिकार कहां, क्यों है और क्यों नहीं
बारह ज्योतिलिंर्गों में से एक त्र्यंबकेश्वर मंदिर (नासिक) के गर्भगृह में भी महिलाओं द्वारा पूजा-अर्चना किए जाने पर रोक है। ब्रिटिश राज के दौरान पेशवाओं ने उन्नीसवीं शताब्दी में रोक लगाई गई थी। महिलाएं कुछ दूर से दर्शन कर सकती हैं, वे गर्भगृह में नहीं जा सकतीं।
पुष्कर तीर्थ (अजमेर ) सावित्री मंदिर में सिर्फ महिलाएं ही जा सकती हैं। ब्रह्मा मंदिर के सामने रत्नागिरी पहाड़ी पर इस मंदिर में पुरुषों का जाना मना है। ब्रह्मा द्वारा उपेक्षित होने पर सावित्री ने उन्हें शाप दिया था और खुद रूठ कर दूर बैठ गई थीं।
सावित्री मंदिर से कुछ दूर स्थित कार्तिकेय मंदिर में महिलाओं के जाने पर रोक है।
विशाखापत्तनम (आंध्रप्रदेश) के कामख्या देवी मंदिर में भी सिर्फ महिलाएं ही जा सकती हैं। वहां पुजारी भी स्त्री ही है।
चंदौसी (उ़प्र) जिले के शहर सकलडीहा में करीब 120 साल पुराना मंदिर है। संत श्रीपथ की स्मृति में बने इस मंदिर में पुरुष बाहर से ही दर्शन करते हैं। कहते हैं कि जब कोई पुरुष मंदिर में जाने की इच्छा भी करता है तो उसका कुछ न कुछ अनिष्ट होता है। लोग परिवार की किसी स्त्री के साथ ही यहां आते हैं और मंदिर के बाहर खड़े रहते हैं।
इंदौर स्थित 350 साल पुराने शनि मंदिर में महिलाएं तिल-तेल चढ़ाती हैं। मंदिर की व्यवस्था भी किसी जमाने में महिला पुजारी के पास थी। मौजूदा पुजारी के दादा की अचानक मृत्यु हो जाने से दादी ने ही सालों तक मंदिर का कामकाज संभाला।
गुना (मध्यप्रदेश) में मुक्तागिरी तीर्थ में कोई महिला पाश्चात्य परिधान पहनकर प्रवेश नहीं कर सकती। मंदिर परिसर में ऐसे पहनावे पर पूर्ण प्रतिबंध है।
सबरीमला मंदिर (केरल) में मासिक धर्म वाले आयु वर्ग की महिलाओं को परिसर में जाने की अनुमति नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय ने इस परंपरा पर सवाल उठाए हैं। लेकिन फिलहाल कोई व्यवस्था नहीं दी है। मामला दस साल से चल रहा है।
ऐसे मंदिरों का तो कोई हिसाब ही नहीं है जहां गैर हिंदुओं के जाने की सख्त मनाही है। केरल के गुरवायूर मंदिर, ओडिशा में पुरी स्थित जगन्नाथ मंदिर, कांचीपुरम में कामाक्षी मंदिर और माउंट आबू के दिलवाड़ा जैन मंदिरों में इतर पंथ के अनुयायियो को जाने की मनाही है। कुछ मंदिरों में तो परावर्तित हिंदुओं के लिए भी मनाही है। वहां जन्मना हिंदू ही जा सकते हैं। आपको याद होगा कि इस्कान से प्रभावित हो कर कृष्णभक्त बने विदेशियों को पुरी के जगन्नाथ मंदिर मे ंजाने से रोक दिया गया था। उसके बाद प्रभुपाद भक्तिवेदांत ने इस्कान के स्तर पर अलग रथयात्राएं शुरु की थीं।
''भगवान को छूने से वे अपवित्र कैसे हो सकते हैं''
तृप्ति देसाई
संस्थापक, भूमाता रणरागिणी ब्रिगेड
माता ब्रिगेड आज से नहीं बल्कि 12 साल से, खासकर महिलाओं पर हो रहे अन्याय, अत्याचार के मुद्दे को उठाती रही है। अभी शनि मंदिर पर हुए आन्दोलन ने देश का ध्यान खींचा है लेकिन इससे पहले हमारी ब्रिगेड ने अण्णा हजारे के लोकपाल आन्दोलन, बाबा रामदेव के भ्रष्टाचार आन्दोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। हम महाराष्ट्र में किसानों के हक के लिए उनकी आत्महत्याओं के मुद्दे पर भी हमने बहुत बार आन्दोलन किए हैं। यानी हम सभी लोगों के लिए काम करते हैं। आज जिस शनि शिंगणापुर आन्दोलन की चर्चा हो रही है उसके बारे में कुछ तथ्य गौर कराने लायक हैं। नवंबर महीने में एक महिला शनि मंदिर गई थी और वहां जाकर उस महिला ने शनि शिला को स्पर्श किया था। उसके बाद मंदिर के ट्रस्ट ने कहा कि शनि भगवान 'अपवित्र' हो गए। बाद में पुजारियों ने दूध से शिला को अभिषेक कराकर उसे 'पवित्र' किया।
शनि की बहुत सी महिला भक्त हैं और वहां जाकर अगर वे उस शिला को स्पर्श करती हैं और पूजा करती हैं तो भगवान अपवित्र कैसे हो सकते हैं? मेरा उन पुजारियों और मंदिर ट्रस्ट से यही सवाल है। शनि महाराज ने भी किसी मां की कोख से जन्म लिया है और जिस दूध से उस शिला का अभिषेक किया गया वह दूध बैल का तो नहीं था? गाय या भैंस का ही दूध था। कुछ लोग कह रहे हैं कि हम परंपरा तोड़ रहे हैं तो यह बिल्कुल गलत है । कुछ वर्ष पहले महिलाएं वहां जाती थीं। मैं भी जब 5-7 वर्ष की थी तो उस शिला का पूजन और स्पर्श करती थी। अब भी हमारे संपर्क में कुछ महिलाएं हैं जो वर्ष 2000 के बाद उस स्थान पर जाकर शिला पूजती रही हैं। लोग 400 वर्ष की पुरानी परंपरा की दुहाई देते हैं, यह झूठ है। ऐसे लोगों का मानना है कि महिलाओं को पुरुष के समान अधिकार न दो, किसी तरीके से उनको उनके अधिकार से वंचित रखो।
शनि शिंगणापुर मंदिर में दो तरह के कानून हैं। पुरुषों के लिए अलग और महिलाओं के लिए अलग। पुरुष को ग्यारह हजार एक सौ ग्यारह रुपये की पर्ची कटाकर उस शिला के पास जाने, उसका अभिषेक करने की अनुमति है लेकिन जब बात महिलाओं की आती है तो पर्ची कटाने के बाद भी उनको अभिषेक और पूजा करने की अनुमति नहीं है। मैं उन लोगों से पूछना चाहती हूं जो इसे सही ठहराते हैं कि, क्या समाज में इस प्रकार का रवैया ठीक है? असल में कुछ पुरुषवादी लोग इस प्रकार के कार्यों से महिलाओं के विषय में असमानता दिखा रहे हैं। ऐसा नहीं है कि हम सिर्फ हिन्दू मंदिरों की परंपराओं के विषय में ही यह विरोध कर रहे हैं। हम हाजी अली दरगाह पर भी विरोध करने वाली महिलाओं के साथ हैं। अभी जिन महिलाओं ने हाजी अली दरगाह में जाने के लिए विरोध प्रदर्शन किया है हमारी भूमाता रणरागिणी ब्रिगेड उनके साथ है। अगर आगे भी उनके द्वारा कोई विरोध प्रदर्शन किया जायेगा तो मैं खुद उसमें शामिल रहूंगी। यह महिलाओं के अधिकार की बात है, किसी मत-पंथ की बात नहीं है। कुछ लोग कहते हैं कि यह पब्लिसिटी स्टंट है तो उनका यह सोचना बिल्कुल गलत है। साथ ही कुछ लोग किसी न किसी दल से मुझे जोड़ रहे हैं तो वह भी गलत है। हमारा किसी भी दल के साथ कोई संबंध नहीं है। हमें जब लगा कि शनि मंदिर में बिल्कुल गलत हो रहा है तो अपने पदाधिकारियों से बात करके हमने शनि शिंगणापुर में प्रदर्शन की रूपरेखा तय की। मैं उनसे पूछना चाहती हूं कि हम पब्लिसिटी स्टंट क्यों करेंगे? मैंने तो मीडिया से इससे पहले बात नहीं की और यहां तक कि 1 जनवरी से लेकर 26 जनवरी तक मेरे द्वारा किसी भी प्रकार की कोई प्रेस विज्ञप्ति जारी नहीं की गई। क्या महिलाओं के अधिकारों की बात करना कोई गुनाह है? मेरा मानना कि समय के हिसाब से कई परंपराएं बदली हैं और बदलनी ही चाहिए। हमने सती परंपरा में बदलाव किया है। महिलाओं के केश मुंडन की भी एक परंपरा थी, उसमें भी बदलाव हुआ है। लोग समानता की बात करते हैं तो फिर दोयम दर्जे का व्यवहार क्यों? भगवान के यहां भी अगर दोयम दर्जे का व्यवहार होगा तो फिर महिलाएं कहां जाएंगी? ऐसा नहीं है कि सिर्फ हिन्दू धर्म में ही ऐसी रूढि़यां हैं बल्कि मुस्लिम और ईसाई पंथ में भी ऐसी रूढि़यां हैं, लेकिन सत्य यह है कि परंपराओं के नाम पर महिलाओं का हक छीना जा रहा है। यह पुरुषवादी मानसिकता का परिचायक है और कुछ नहीं।
सबरीमला
लंबी यात्रा और शुचिता का सवाल
केरल के पश्चिमी घाट पर स्थित सबरीमला मंदिर में हर साल लाखों श्रद्धालु उमड़ते हैं। भगवान शिव और विष्णु के अंश अयप्पा प्रभु का यह पावन मंदिर अपनी अनोखी परंपराओं के लिए प्रसिद्ध है। 'महिलाओं के लिए निषिद्ध' परंपरा के बावजूद लाखों महिलाएं हर वर्ष सबरीमला आती हैं। यह ठीक है कि प्रतिबंध केवल मासिकधर्म के आयु वर्ग यानी 16 से 50 वर्ष तक की आयु वाली महिलाओं के लिए है। यह परंपरा मंदिर के इतिहास जितनी ही पुरानी है और इसलिए क्योंकि मंदिर के अनूठे स्थापना संकल्प की धारणा ही उन आजीवन ब्रह्मचारी 'देव' को केन्द्र में रखकर की गई है जो समाधिस्थ हैं।
मंदिर में प्रभु अयप्पा की मूर्ति योगीस्वरूप में है। इसी कारण अन्य मंदिरों की तुलना में सबरीमला मंदिर पूजा के लिए नवंबर-दिसंबर में मण्डलपूजा, मकर संक्रान्ति, महा विश्व संक्रान्ति और प्रत्येक मलयाली माह के पहले पांच दिन खुलता है। सबरीमला में आने वाले श्रद्धालुओं को कड़ाई के साथ 41 दिन की व्रती जीवनचर्या पालन करने का निर्देश दिया जाता है।
मंदिर सघन पेरियार टाइगर रिजर्व फॉरेस्ट के अंदर है जहां अब मार्ग आसान हो गया है। समुद्रतल से 1260 मीटर ऊपर स्थित इस मंदिर तक परम्परागत दुर्गम वनमार्ग से जाया जाता था। अभी भी जंगल के रास्ते में शेर, तेंदुए और हाथी का खतरा रहता है।
जनवरी, 2016 में 10 वर्ष पुरानी एक याचिका का संज्ञान लेते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने इस मंदिर में महिलाओं के प्रवेश के निषेध को असंवैधानिक बताया। इस जनहित याचिका को सबरीमला मंदिर में महिलाओं और बालिकाओं के प्रवेश को लक्षित कर यंग लॉयर्स एसोसियेशन ने दायर किया था। जबकि मंदिर प्रशासन त्रावणकोर देवासम बोर्ड की ओर से न्यायालय में उपस्थित वरिष्ठ अधिवक्ता के.के. वेणुगोपाल ने बताया कि जो महिलाएं मासिक धर्म के आयु वर्ग के अंदर हैं वे मंदिर की शीर्ष चोटी तक की इस धार्मिक यात्रा में आवश्यक शारीरिक शुचिता नहीं रख सकतीं क्योंकि इस यात्रा और कर्मकांड में आमतौर पर 41 दिन लगते हैं। अदालत इस मामले की विस्तृत सुनवाई के लिए 8 फरवरी को याचिका पर पुनर्विचार करेगी।
समय के साथ सुधार से परहेज नहीं
अद्वैता काला, लेखिका
महिला अधिकारों को लेकर देश भर में जारी चर्चा-विमर्श के संदर्भ में कहा जा रहा है कि सभी पंथ पुरुष-प्रधान हैं। इसमें से महिलाओं को कमतर दिखाने का एक तंत्र उभरता दिखता है। हिन्दुत्व के संदर्भ में इस सामान्यीकरण को आंख बंद करके स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए। पांच सौ वर्ष के छोटे से काल में रस्मों का रूप ले चुके रिवाजों और हिन्दुत्व के असल मूल्यों के बीच अंतर किया ही जाना चाहिए। शनि शिंगणापुर मंदिर ट्रस्ट के महिलाओं को पूजन न करने देने के मत को उचित ठहराने वाला कोई तर्क सामने नहीं आया है।
प्रदर्शनों और उनको राजनीतिक हवा दिए जाने के बारे में तर्क दिया जा सकता है, लेकिन महिलाओं प्रति ऐसा व्यवहार दर्शाने वाली आस्था में खामियों का प्र्रकटीकरण इसके अनुयायियों से बढ़कर और कौन कर सकता है? या फिर उन लोगों के फर्जी दावों से बढ़कर, जिन्होंने खुद को वर्तमान हिन्दू विमर्श के अगुआ की तरह पेश किया हुआ है। महिलाओं को अवरोधों के तहत रखा जा रहा है।
यह वह 'हिन्दुत्व' नहीं है जो वैदिक काल में अवस्थित था। इसके बजाय वैदिक ग्रंथों से हम जो प्राप्त कर सकते हैं, वह है महिलाधिकार आंंदोलनों से पहले, समाज में महिलाओं की भूमिका पर क्या कहा गया था। ग्रंथों के ऐसे संदर्भ और हमारी सदियों पुरानी आध्यात्मिक परंपरा हमें सही रास्ता दिखाने और चुनौती भरे इतिहास से होने वाले भटकाव से बचाने में मदद करेगी। हमें इन मूल्यों का सम्मान करना होगा, इनसे मार्गदर्शन लेना होगा। इससे हम अपने सार्वजनिक चेहरे को चमकाने की घबराहट और पुराने हिन्दू विमर्श को ध्वस्त करते हुए मौजूदा पर हावी होने की जरूरत के चलते पैदा होने वाले राजनीतिक स्वार्थों और गुटों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली लैंगिक संबंधों की विस्फोटक स्थिति को सही से समझ सकेंगे। वेदों ने लिंग-भेद को माना है, लेकिन तो भी समानता के मार्ग की वकालत की है। वेद मानवता के उद्धार के लिए सर्व-सुलभ हैं। नि:संदेह यजुर्वेद इस सर्व-सुलभता पर खुलकर कहता है-वेद की शिक्षाएं सार्वभौमिक हैं (26-2)। यह सभी ज्ञानियों का आह्वान करता है कि वे महिलाओं सहित सभी को वेद अध्ययन कराएं। जाति व्यवस्था, महिलाओं को दबाए रखना, ये सब वैदिक काल के बाद रास्ते में आए भटकाव की तरह हैं जो हमारी आध्यात्मिक परंपरा को लांछित करते हैं।
वैदिक स्तोत्र महिलाओं (लोपमुद्रा, गार्गी) और शूद्रों (लाविश आयलश) के सामने उद्घाटित किया गया था। दुर्भाग्य से, हम ऐसे समय में रह रहे हैं जहां छलावे हैं, जो 'परंपरा' की आड़ में असमानता प्रसारित कर रहे हैं और ईश्वरीय ज्ञान को नजरअंदाज कर रहे हैं। बहसों और चर्चाओं को बेहद निम्न स्तर पर उतार लाया गया है, टीआरपी बटोरने की उग्र चीख-पुकारू प्रतियोगिताएं चल रही हैं और अधकचरी जानकारी अधिकार के साथ परोसी जा रही है।
आज वे आदि शंकराचार्य नहीं हैं जिन्होंने अपनी छोटी सी जिंदगी में वेदों पर तर्क-वितर्क और अद्वैत वेदान्त का पुनरोन्मेष करते हुए देश का एक से दूसरे छोर तक भ्रमण किया था। अपने सफर में उन्होंने उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती देने वाले उन मंडन मिश्र को भी अपना शिष्य बना लिया था जिन्हें उनके काल में अद्वैत वेदान्त का सबसे प्रभावी विद्वान बताया जाता था। कई दिनों तक चले उस तर्क-वितर्क का संचालन मंडन मिश्र की पत्नी विदुषी उभय भारती ने ही किया था। हम ऐसे वाद-विवादों के समय में नहीं रह रहे हैं। हमें तो आलोचकों और आस्था के उन स्वयंभू व्याख्याताओं के हमलों को परास्त करने के लिए जानकारियों की खोज करनी चाहिए, जिनकी मंशा हमारी आध्यात्मिक परंपरा की बेहद 'संकुचित' व्याख्या सामने रखकर उनसे चिपके रहने की प्रेरणा जगाने की रहती है। ऐसे तीखे आग्रह से क्या हासिल होगा? वास्तव में तो इसमें खुद हिन्दुत्व के प्रति एक दुराव झलकता है। 'अलग' दिखाने की इस जरूरत, भेदों के आधार पर हिन्दू समाज को बांटने (पुरुष और महिला में) की सोच न केवल हिन्दुत्व के लिए घातक साबित हुई है बल्कि इसने इसको निस्तेज भी किया है।
मंदिरों में ऐसा भेद किए जाने के पीछे कोई आध्यात्मिक तर्क नहीं है। ऐसा कोई कानूनी तर्क नहीं है और न ही कोई संवैधानिक तर्क है। ये तो बस एक रिवाज और व्यक्तिगत आचार-व्यवहार का मामला है। इसमें कोई दखल नहीं होनी चाहिए। अगर आपको लगता है कि महिलाओं के मंदिर में प्रवेश करने से आपके रस्म-रिवाज पर चोट होती है तो आप इसे मत मानें। लेकिन दूसरों को अपनी पसंद को मानने के लिए बाध्य करना, उनको धार्मिकता की अपनी समझ के अनुसार चलने का आदेश देना हिन्दुत्व नहीं है, न ही सांस्कृतिक रूप से, न ही आध्यात्मिक रूप से।
अपनी भक्ति नहीं, बल्कि अपने आचार-व्यवहार में यह एक सुधार लाना होगा, जो हम बदलते वक्त के साथ करते आ रहे हैं। यह हिन्दुत्व की सबसे बड़ी ताकत है। यह विभिन्न पंथों में बंधुत्व पैदा करके आत्मविश्वास जगाएगा। शनि मंदिर पर प्रदर्शन के कुछ दिन बाद, 31 जनवरी 2016 को मुस्लिम महिलाओं का एक समूह मस्जिदों में प्रवेश के अधिकार की मांग करते हुए सर्वोच्च न्यायालय जा पहुंचा था। यह वह लड़ाई है जो अदालतों में तो लड़ी जाएगी, साथ ही यह हमारे दिलों और दिमागों में भी लड़ी जाएगी।
बर्दाश्त नहीं मजहब के नाम पर बंदिश
डॉ. नूरजहां नियाज
संस्थापक, भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन
वर्ष 2012 में मैं हाजी अली दरगाह गई थी। मुझे मजार पर जाने से रोक दिया गया था। कहा गया कि मजार पर महिलाओं के जाने पर रोक है। यह सुनकर मैं अचंभित थी, क्योंकि उससे पहले वर्ष 2011 में तो मैं मजार पर गई थी। बचपन से ही मैं इबादत के लिए मजार पर जा रही थी। फिर अचानक ऐसा क्या हो गया जो महिलाओं को मजार पर जाने से रोका जा रहा है? इस घटना के बाद मैंने हाजी अली ट्रस्ट के लोगों से बात की। उन लोगों ने अलग-अलग वजह बताई। किसी ने कहा कि मजार पर महिलाएं नहीं आ सकती हैं, तो किसी ने कहा कि महिलाएं सही ढंग से कपड़े नहीं पहनती हैं। मजार पर महिलाओं का आना इस्लाम के खिलाफ है। ये तर्क मुझे ठीक नहीं लगे। इसके बाद मैंने महाराष्ट्र सरकार से बात की। मैंने कहा कि हाजी अली ट्रस्ट कोई निजी ट्रस्ट नहीं है, यह पब्लिक ट्रस्ट है। ट्रस्ट के निजी फैसले यहां लागू नहीं हो सकते हैं। ट्रस्ट का काम दरगाह की व्यवस्था और देखरेख के लिए फैसले लेना है, वह मजहबी फैसले न ले। महिलाओं को मजार पर जाने से नहीं रोका जा सकता है। सरकार ने हमारी नहीं सुनी। अल्पसंख्यक विभाग से थोड़ा समर्थन जरूर मिला, लेकिन महिलाओं को न्याय नहीं मिला। तब हमने अदालत का दरवाजा खटखटाया। अगस्त, 2014 में हमने बॉम्बे उच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर की। हम महिलाओं को उनका मूलभूत और संवैधानिक अधिकार दिलाने की लड़ाई लड़ रहे हैं। अदालत से हमें न्याय मिलने की पूरी उम्मीद है। हाजी अली दरगाह मुंबई शहर की एक पहचान है। यहां न सिर्फ मुंबई, बल्कि देश और दुनिया से रोजाना बड़ी संख्या में पुरुष और महिलाएं आते हैं। इस दरगाह में पीर हाजी अली शाह बुखारी की मजार है। इस मजार से यहां आने वाले लोगों की अपनी यादें जुड़ी हुई हैं।
दु:खद बात यह है कि इस मसले पर सब मजहब को आगे रखते हैं। मजहब के नाम पर तोड़-मोड़कर अपनी बातें पेश करते हैं। कहते हैं कि महिलाओं को मजार पर नहीं जाना चाहिए। जबकि पवित्र कुरान में इस तरह की कोई बात नहीं है। महिलाओं को समान अधिकार मिला हुआ है। हमारे आंदोलन को महिलाओं का समर्थन मिल रहा है। महिलाएं अपने संवैधानिक अधिकारों के बारे में सोच रही हैं। उनमें एक आशा है। वे शिक्षित हो रही हैं। अलग-अलग क्षेत्रों में अपना कौशल दिखा रही हैं, तब मजहब के मामले में सिर्फ महिलाओं के साथ भेदभाव क्यों किया जा रहा है? देश का संविधान महिलाओं को समानता का अधिकार देता है। पुरुष-महिला के बीच भेदभाव नहीं करता। रोक गलत है। यही बात हम अदालत के सामने भी रख रहे हैं, क्योंकि अल्पसंख्यक आयोग हमारी बातें सुनने को तैयार नहीं है।
चाहे दरगाह हो या मंदिर, हर जगह महिलाओं के मूलभूत अधिकारों का हनन हो रहा है। मजहब और परपंरा के नाम पर महिलाओं पर ही बंदिश क्यों? हाजी अली दरगाह के मामले पर जब हम महाराष्ट्र के तत्कालीन अल्पसंख्यक मंत्री नसीम खान से मिले थे तब उन्होंने इसे मजहबी मसला कहकर हमें समर्थन देने से इनकार कर दिया था। जब सरकार का यह रवैया रहेगा तो महिलाओं को उनका हक कैसे मिल पाएगा, इस समाज में महिलाएं कैसे रह पाएंगी?
हर मजहब में महिलाओं का शोषण हो रहा है। यही वजह है कि हमारे आंदोलन के साथ वाघिनी, सूफी विचार मंच और विस्डम फाउंडेशन जैसी संस्थाएं जुड़ी हैं। जब हम मजार पर महिलाओं के प्रवेश पर रोक के खिलाफ आजाद मैदान में प्रदर्शन कर रहे थे तो इन संस्थाओं की महिलाएं भी शामिल थीं। यह पूरी तरह से महिला आंदोलन है।
70 के दशक से कई मुस्लिम महिला संस्थाएं काम कर रही हैं, लेकिन वे महिलाओं के मजहबी अधिकारों की बात नहीं करना चाहतीं, चर्चा भी नहीं करती हैं। आज महिलाएं मजहबी अधिकार, शिक्षा या रोजगार, हर क्षेत्र में भागीदारी बढ़ाने के लिए लड़ रही हैं। हमें हमारा अधिकार मिलना ही चाहिए। प्रस्तुति-कंचन गुप्ता
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