|
ँपहले एक चिट्ठी, अब सौ फाइलें! क्या यह कोई राजनैतिक साजिश है? जी नहीं, यह देश के लिए जिज्ञासा और राजनीतिक दलबंदियों के लिए असहजता का शाश्वत अध्याय है। ऐसा अध्याय जिसका हर अक्षर समाज ने अपनी स्मृति में सहेजे रखा और जिसे दबाने-मिटानेे में राजनीति ने कोई कसर नहीं छोड़ी। आधुनिक भारतीय इतिहास के इस अध्याय का नाम है-सुभाष चंद्र बोस, यानी इस देश के मन में बसे 'नेताजी'।
भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा नेताजी के भतीजे अमिय बोस की गतिविधियों पर नजर रखने के लिए विदेश सचिव सुबिमल दत्त को लिखी चिट्ठी की बात सामने आने पर कांग्रेस का शीर्ष परिवार गत वर्ष पर्दे के पीछे जा छिपा था। 26 नवंबर, 1957 को लिखा गया यह पत्र राजनीति में जबरन चमकाए 'रत्नों' की आभा का सच सामने रखने वाला था। इस एक खुलासे ने नेताजी के प्रति इस देश के प्रेम और राष्ट्रनायकों के जीवन पर से रहस्य हटाने की मुहिम को गति और बड़ा जनाधार दिया। नेताजी की 119 वीं जयंती के मौके पर, इस वर्ष 23 जनवरी से नेताजी से जुड़ी फाइलों की धूल हटने लगी है। जनभावना का आदर करते हुए नौकरशाही और राजनीति की रची धुंध छांटने का यह संकेत लोकतंत्र के लिए नि:संदेह शुभ है।
लेकिन, सच-झूठ का फर्क सामने लाने के लिए देर से की गई इस साहसपूर्ण पहल से नई बहस छिड़ने वाली है। सबसे पहला और तीखा सवाल तो यही है कि इस देश से इसके नायकों का सच छिपाने की कोशिशें इतने लंबे समय तक कैसे होती रहीं। ऐसा क्यों है कि लंबे समय तक वंशवाद की बंधक रही भारतीय लोकशाही की यात्रा में कई अहम सामाजिक-राजनैतिक लोगों के जीवन अतार्किक-रहस्यपूर्ण अंत पर जाकर ठिठकने और चर्चाओं का हिस्सा बने रहने को अभिशप्त हैं!
लोकतंत्र में राजकीय पत्राचार को संवेदनशीलता के नाम पर कितने समय तक छिपाया जा सकता है। दस, बीस, तीस वर्ष…आधी सदी…या इससे भी ज्यादा? भारत में इस पत्राचार को सार्वजनिक करने का समय और मापदंड क्या है? नेताजी की फाइलों के सार्वजनिकीकरण ने लोकतंत्र में जनता के जानने के अधिकार के वह दरवाजे खोले हैं जिन्हें खोलने में आरटीआई के हाथ थक चुके थे। आशा है इस पहल के बाद शासकीय गोपनीयता की समयसीमा भी तय होगी। वैसे, यह कहना कि राजग सरकार की मंशा इन फाइलों के जरिए राजनैतिक हित साधने की है, ठीक नहीं है। गैर कांग्रेसी परंपरा के प्रधानमंत्रियों में नरेंद्र मोदी पहले नहीं हैं। उनसे पहले के गैर कांग्रेसी राज में भी इन फाइलों को सामने लाना शायद संभव रहा हो। मगर काम अब हुआ। क्यों? संभवत: इसके लिए भाजपा को मिले स्पष्ट बहुमत और वर्तमान प्रधानमंत्री के साहसी स्वभाव, दोनों ही पक्षों को देखना होगा।
स्वतंत्रता सेनानियों के लिए मोदी का यह नया उमड़ा प्रेम नहीं है। वर्ष 2003 में जब मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तब वे स्विटजरलैंड से क्रांतिकारी श्यामजी कृष्ण वर्मा की वह अस्थियां भारत लाए थे जिनकी सुध 1930 के बाद से किसी भारतीय राजनेता ने नहीं ली थी। 2010 में इस महान क्रांतिकारी को समर्पित 'क्रांति तीरथ' भी मोदी ने ही बनवाया।
सो, सियासी फायदे या सुभाष चंद्र बोस की राजनैतिक विरासत पर दावे की बजाय इसे स्वतंत्रता सेनानियों को सम्मान दिलाने की आत्मीय कोशिश ही माना जाएगा। वैसे भी, सुभाष बाबू का व्यक्तित्व विराट है। इसका फैलाव ऐसा है कि नेताजी की वैचारिक, राजनैतिक विरासत पर संपूर्णता से दावा करना आज भी किसी राजनैतिक दल के लिए आसान नहीं है। तत्कालीन राजनीति के पितृ पुरुषों को ललकारतेे, ब्रिटिश ढंग-ढर्रे के वंशवादियों को डराते, वामपंथियों में घृणा की हद तक सिहरन पैदा करते नेताजी का व्यक्तित्व वास्तव में सुविधा और शौक की राजनीति के किसी सांचे में नहीं बैठता। जहां देश का, समाज का हित दिखा उन्होंने स्थापित सीमाएं लांघने में देरी नहीं कीं। कार्य-व्यवहार और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सीमोल्लंघन के यह उदाहरण निकट दृष्टि दोष के साथ नहीं समझे जा सकते। इन्हें तात्कालिक परिस्थितियों और राष्ट्रहित में नेताजी द्वारा अपनाई दूरगामी रणनीतियों के संदर्भ में ही समझना पड़ेगा।
फाइलों का सार्वजनिक किया जाना शोध, जिज्ञासा समाधान और इतिहास को सही अथार्ें में पकड़ने का ईमानदार प्रयास है। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि आजाद हिन्द फौज के शीर्ष सेनानी का सच कुनबा पार्टी और वामपंथी 'मोचार्ें' का दम फुलाने वाला है। नेताजी को लेकर नेहरू की दबी चिट्ठियां और वामपंथियों के खुले चिट्ठे (देखें पेज-13,14) अगर साथ रखे जाएं तो शोधार्थियों को आधुनिक भारत के इतिहास के अछूते अध्याय सामने लाने का मौका मिलेगा। आइए, इतिहास के इन अनमोल टुकड़ों को जोड़कर पढ़ें।
टिप्पणियाँ