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पिछले कुछ वर्षों में एआइएमआइएम के नेताओं, ओवैसी भाइयों ने मुसलमानों पर हिन्दू अनुसूचित जातियों के समकक्ष ही कमजोर वर्ग का ठप्पा लगवाने की जी-तोड़ कोशिश की है और कहा है कि मुसलमानों और दलितों की समस्याएं एक सी हैं और ये भाई-भाई हैं। इस कोशिश से समाज में विभाजक ताकतों को बल मिल मिला हैल्ल
आयुष नादिमपल्ली
हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय परिसर में शोधार्थी रोहित वेमुला की आत्महत्या की पृष्ठभूमि में कई नए तथ्य सामने आए हैं। हालांकि विश्वविद्यालय के एक साथी छात्र पर हमले और पांच छात्रों के निलम्बन का मामला अभी अदालत में है, पर रोहित में उत्तरोत्तर आए बदलाव को उसकी फेसबुक वॉल के आइने में देखना समीचीन होगा। ऐसा लगता है, पिछले कुछ वर्षों के दौरान वह ऐसे लोगों की सरपरस्ती में रहा था, जो पहले उसे एसएफआइ से आम्बेडकर स्टूडेंट्स एसोसिएशन की तरफ ले गए, फिर ओवैसी भाइयों के नेतृत्व वाली ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन (एआइएमआइएम) की तरफ आकर्षित करने में कामयाब हो गए।
मुस्लिम-दलित एकता का शिगूफा
पिछले कुछ वर्षों में एआइएमआइएम के नेताओं, ओवैसी भाइयों ने मुसलमानों पर हिन्दू अनुसूचित जातियों के समकक्ष ही कमजोर वर्ग का ठप्पा लगवाने की जी-तोड़ कोशिश की है और कहा है कि मुसलमानों और दलितों की समस्याएं एक सी हैं, इसलिए ये भाई-भाई हैं। (खोलें, वीडियो लिंक-
https://www.youtube.com/watch?v=ks_eHu4HYM&feature=youtube)
यह अनुसूचित जाति के हिन्दुओं के बीच भ्रम फैलाने की एक रणनीति से ज्यादा कुछ नहीं है, भ्रम यह कि वे सदियों से मुसलमानों के बहुत नजदीक रहे हैं। कुछ साल से ओवैसी भाई और उनकी पार्टी इस भ्रम को पूरी सक्रियता से फैला रही है, अब उनका पूरा जोर अकादमिक संस्थानों पर है।
भाग्यनगर के नाम पर दुष्प्रचार
उस्मानिया विश्वविद्यालय के एक वरिष्ठ प्रोफेसर कहते घूम रहे हैं कि भागमती एक अनुसूचित जनजाति की महिला थीं और उनकी शादी कुली कुतुब शाह से हुई, वहीं से भाग्यनगर या आगे चलकर हैदराबाद नाम आया। वे इससे आगे बढ़कर यह रट लगाने लगते हैं कि अनुसूचित जनजातीय समाज और मुसलमानों के बीच शादियां आम बात हैं और ये जारी रहनी चाहिए। यह कोरे झूठ के सिवाय कुछ नहीं है। यह एक बड़े दुष्प्रचार का हिस्सा है, बस। दुर्भाग्य से कुछ लोग जानकारी के अभाव में इस दुष्प्रचार के झांसे में आ रहे हैं।
दोहराई जा रही है आजादी से पहले की रणनीति
एआइएमआइएम अपनी जड़ें कासिम रिज़वी की एमआइएम में बताती है। लोगों को पता होना चाहिए कि इन्हीं कासिम रिज़वी ने हैदराबाद में हिन्दुओं और भारतीय संघ के खिलाफ रज़ाकार आंदोलन छेड़ा था। यहां 1947 से पहले के उस दौर का स्मरण करना उपयुक्त रहेगा जब मुस्लिम लीग ने इसी तरह की कोशिशें की थीं।
मुस्लिम लीग के इस दुष्प्रचार के झांसे में आने वाले नेताओं को बाद में गलती का एहसास हुआ था। पाकिस्तान बनाने के मकसद में कामयाब होने के बाद लीगियों के लिए अनुसूचित जाति के हिन्दुओं का कोई मोल नहीं रह गया था। दारुल-इस्लाम अभियान के तहत सभी वर्गों के हिन्दुओं की मार-काट मचाई गई थी।
अनुसूचित जाति वर्ग के बंधुओं को याद रखना चाहिए कि खुद डॉ. आम्बेडकर ने इस गठजोड़ के खतरे के प्रति आगाह किया था। उन्होंने चेताया था, ''इस्लाम का बंधुत्व इंसानियत का सार्वभौमिक बंधुत्व नहीं है। यह मुसलमानों के लिए मुसलमानों का बंधुत्व है। यह एक बिरादरी तो है पर इसके लाभ उस बिरादरी के भीतर वालों के लिए ही हैं। जो उस बिरादरी के बाहर हैं, उनके लिए बेइज्जती, गुलामी और दुश्मनी के सिवाय और कुछ नहीं है।''
आम्बेडकर जैसे द्रष्टा इस रणनीति की असलियत समझ चुके थे। उन्होंने आसानी से समझ लिया होता कि मुस्लिम लीग और एमआइएम तथा आज की उस एआइएमआइएम की विचारधारा में खास फर्क नहीं है जो नए खोल में बंद पुरानी एमआइएम ही है।
बीते दौर में हिन्दू समाज ने कई प्रहार झेले हैं। किसी भी समाज की तरह, इस समाज में भी कुछ कमजोरियां हैं। समय-समय पर समाज ने इनके निदान के कदम उठाए हैं। उस दिशा में सकारात्मक प्रयास जारी रखने होंगे। इसके साथ ही, देश को उन ताकतों से भी सावधान रहना होगा जो समाज में खाई पैदा करने के लिए एक-दूसरे में नफरत फैलाकर उसको गुटों में बांटने में लगी रहती हैं और साथ ही खुद को उनका मसीहा बताती हैं। देश को एकजुट शक्ति के रूप में इस रणनीति को परास्त करना ही होगा।
(लेखक हैदराबाद में सोशल मीडिया एक्टिविस्ट हैं)
दलित और मुस्लिम गठजोड़ का ऐतिहासिक 'सच'
जोगेन्द्रनाथ मंडल उन प्रमुख नेताओं में से एक थे जिन्होंने अनुसूचित जाति के उद्धार के लिए काम किया था। वे पाकिस्तान सरकार में कानून व श्रम मंत्री थे, बाद में उन्होंने उस पद से इस्तीफा दे दिया था। हर हिन्दू, खासकर उन हिन्दुओं, जो 'दलित-मुस्लिम का साझा मकसद है' के बहकावे के शिकार हुए थे, को जोगेन्द्रनाथ मंडल द्वारा पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री लियाकत अली खान को लिखा पूरा पत्र पढ़ना चाहिए। 8 अक्तूबर 1950 को लिखे उस पत्र में मंडल शुरुआत में ही बताते हैं कि उन्होंने मुस्लिम लीग सरकार में जुड़ना स्वीकार क्यों किया? वे लिखते हैं-''जिन प्रमुख उद्देश्यों ने मुझे मुस्लिम लीग के साथ काम करने का उत्साह दिया उसमें यह था कि बंगाल में मुसलमानों के आर्थिक हित आमतौर पर वे ही थे जो अनुसूचित जातियों के थे।''
साफ है कि उस वक्त भी कोई इसी तरह का दुष्प्रचार रहा होगा कि मुसलमानों और अनुसूचित जातियों के उद्देश्य एक से ही हैं। यह उस जमाने की ताकतों की हिन्दुओं के बीच खाई पैदा करने के एक चाल थी। वह दौर था जब देश जिन्ना के आह्वान पर 'डायरेक्ट एक्शन' में उतरकर दंगों की आग में झुलस रहा था। लेकिन तब भी मंडल शांति की उम्मीद में लीग के साथ खड़े रहे थे। मंडल लिखते हैं, ''…कलकत्ता हिंसा के बाद अक्तूबर 1946 में नोआखली दंगे हुए। उसमें अनुसूचित जातियों सहित तमाम हिन्दुओं का कत्लेआम हुआ और सैकड़ों को इस्लाम में कन्वर्ट किया गया। हिन्दू महिलाओं से बलात्कार किए गए, उनका अपहरण किया गया। मेरे समुदाय के लोगों को भी जान-माल का नुकसान भुगतना पड़ा। इन सब घटनाओं के फौरन बाद, मैं तिप्पेरा और फेनी गया था और वहां कुछ दंगा-प्रभावित इलाकों को देखा। हिन्दुओं की दर्दनाक पीड़ा देखकर मेरे दुख का पारावार न रहा, मगर तब भी मैं मुस्लिम लीग के साथ सहयोग की राह पर ही चलता रहा।…'' जिन्ना ने वादा किया था कि हिंदुओं और मुसलमानों के साथ पाकिस्तान में बराबरी का सलूक किया जाएगा। मंडल शायद लीग की विचारधारा को ठीक से नहीं जानते थे। वे लिखते हैं-
''…इस बारे में यहां यह उल्लेख भी किया जा सकता है कि मैं बंगाल-विभाजन के खिलाफ था। इस बारे में आंदोलन छेड़े जाने के वक्त भी मुझे न केवल सभी तरफ से जबरदस्त विरोध झेलना पड़ा, बल्कि बेइज्जती और बदनामी की ऐसी-ऐसी बातें सुननी पड़ीं कि बता नहीं सकता। वह वक्त बहुत सालता है जब इस भारत-पाकिस्तान उपमहाद्वीप के 33 करोड़ हिन्दुओं ने मेरी तरफ पीठ कर ली थी और मुझे हिन्दुओं और हिन्दुत्व का दुश्मन बताया था, लेकिन मैं भी पाकिस्तान के लिए अपनी निष्ठा से इंच भर भी नहीं डिगा था। यह बड़े फख्र की बात है कि मेरी अपील पर पाकिस्तान में अनुसूचित जाति के 70 लाख लोग जोश के साथ हुंकार भर उठे। उन्होंने मुझे पूरा समर्थन, सहयोग दिया, मेरा जोश बढ़ाया था।…''
क्यों दिया मंडल ने इस्तीफा?
पाकिस्तान बनाने के अपने मकसद में कामयाब होने के बाद मुस्लिम लीग हिन्दुओं को निकाल बाहर करने के अपने मिशन पर आगे बढ़ी। तथाकथित नारा-'मुस्लिम-अनुसूचित जाति भाई भाई'हवा में छू-मंतर हो गया। आखिर, अनुसूचित जातियों के लोग हिन्दू ही थे, सो काफिर ही तो थे। मंडल उन भयावह हालात का खाका खींचते हैं जो हिन्दुओं, खासकर अनुसूचित जातियों को सहने पड़े थे। ''…सिलहट जिले के हबीबगढ़ में निर्दोष हिन्दुओं, खासकर अनुसूचित जातियों पर पुलिस और सेना ने जो जुल्म किए, उनकी बाबत बता दूं। मासूम पुरुषों और महिलाओं को यातनाएं दी गईं, कुछ महिलाओं का बलात्कार किया गया, पुलिस और स्थानीय मुसलमानों ने घर-जायदाद लूटी। इलाके में सेना की चौकी लगाई गई। सेना ने न केवल इन लोगों को यातनाएं दीं, हिन्दू घरों से जबरन सामान लूटा, बल्कि अपने शिविरों में सैनिकों की वासना तृप्त करने को हिन्दुओं को रात में अपने घर की महिलाओं को भेजने का दबाव डाला।…''
लुटेरों को प्रशासन की शह
''…शहर के सभी हिस्सों में हिन्दुओं के घरों, दुकानों में आगजनी, लूटमार तथा जहां मिलें हिन्दुओं की हत्याएं शुरू हो गईं। मेरे पास मुसलमानों के भेजे सबूत हैं कि पुलिस के आला अधिकारियों की मौजूदगी में भी आगजनी और लूटमार की गई। पुलिस अधिकारियों के सामने हिन्दू सुनारों की दुकानें लूटी गईं। उन्होंने लूटमार को रोकने की कोशिश तो की नहीं, बल्कि लुटेरों को हिदायतें देकर उनकी इसमें मदद ही की…मैंने जो खुद देखा और अनुभव किया उससे जो जाना वह हिला कर रख देने वाला है। पूर्वी बंगाल में आज क्या हालात हैं? देश बंटने के बाद से करीब 50 लाख हिन्दू पलायन कर चुके हैं।''
''पूर्वी पाकिस्तान को एक तरफ करके, अब मैं पश्चिम पाकिस्तान, खासकर सिंध का जिक्र करना चाहूंगा। बंटवारे के बाद पश्चिमी पाकिस्तान में अनुसूचित जाति के करीब एक लाख लोग थे। ध्यान रहे, उनमें से बड़ी तादाद में लोगों को इस्लाम में कन्वर्ट कर लिया गया था। शरियत के इस जमावड़े में मुस्लिम ही शासक हैं जबकि हिन्दू और दूसरे अल्पसंख्यक तो वे बेचारे हैं जिनको कीमत चुकाने पर संरक्षण मिलता है, और यह बात आप से बढ़कर और कोई नहीं जानता….।''
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