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नेताजी का कम्युनिस्ट मूल्यांकन

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Feb 1, 2016, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 01 Feb 2016 11:48:04

1940 में कम्युनिस्ट पार्टी की पुस्तिका 'अनमास्क्ड पार्टी एण्ड पॉलिटिक्स' में नेताजी को 'अंधा मसीहा' कहा गया। सभी मूल्यांकनों का स्रोत एक बनी-बनाई विचारधारा में अंधविश्वास ही था और है, जो तथ्यों को यथावत देखने की बजाए एक, और खास एक ही तरह से देखने को मजबूर करता था। यह बंदी मानसिकता देश और समाज के लिए कितनी घातक रही है, हमें इसे ठीक से समझना चाहिए।

शंकर शरण

लगभग आरंभ से ही कम्युनिस्टों को अपनी वैज्ञानिक विचारधारा और प्रगतिशील दृष्टि का घोर अहंकार रहा है। लेकिन अनोखी बात यह है कि इतिहास व भविष्य ही नहीं, ठीक वर्तमान यानी आंखों के सामने की घटना-परिघटना पर भी उनके मूल्यांकन, टीका-टिप्पणी, नीति, प्रस्ताव आदि प्राय: मूढ़ता की पराकाष्ठा साबित होते रहे हैं। यह न तो एक बार की घटना है, न एक देश की। सारी दुनिया में कम्युनिस्टों का यही रिकॉर्ड है। इसके निहितार्थ समझने से पहले नेताजी सुभाष चंद्र बोस के कम्युनिस्ट मूल्यांकन को उदाहरण के लिए देखें।
1940 में कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा प्रकाशित अंग्रेजी पुस्तिका 'बेनकाब दल व राजनीति' में नेताजी को 'अंधा मसीहा' कहा गया। फिर उनके कामों को कहा गया, 'सिद्धांतहीन अवसरवाद, जिसकी मिसाल मिलनी कठिन है'। यह सब तो नरम मूल्यांकन था। धीरे-धीरे नेताजी के प्रति कम्युनिस्ट शब्दावली हिंसक और गाली-गलौज से भरती गई। जैसे, 'काला गिरोह', 'गद्दार बोस', 'दुश्मन के जरखरीद एजेंट', 'तोजो (जापानी तानाशाह) और हिटलर के अगुआ दस्ते', 'राजनीतिक कीड़े', 'सड़ा हुआ अंग जिसे काटकर फेंकना है',आदि। ये सब विशेषण सुभाष बोस और उनकी सेना आई़ एऩ ए़ (इंडियन नेशनल आर्मी) के लिए थे। तब कम्युनिस्ट मुखपत्रों, पत्रिकाओं में नेताजी के कई कार्टून छपे थे, जिससे कम्युनिस्टों की घोर अंधविश्वासी मानसिकता की झलक मिलती है (उन पर सधी नजर रखने वाले इतिहासकार स्व़ सीताराम गोयल के सौजन्य से वे कार्टून उपलब्ध हैं)। अधिकांश कार्टूनों में सुभाष बाबू को 'जापानी, जर्मन फासिस्टों का कुत्ते या बिल्ली' जैसा दिखाया गया है, जिससे उसका मालिक जैसे चाहे खेलता है।
एक कार्टून में बोस को तोजो का मुखौटा, तो अन्य में भारतवासियों पर जापानी बम गिराने वाला दिखाया गया है। एक में बोस को 'गांधीजी की बकरी छीनने वाला' दिखाया गया। एक कार्टून में तोजो एक गधे के गले में रस्सी डाले सवारी कर रहा है, उस गधे का मुंह बोस जैसा बना था। दूसरे में बोस को 'तोजो का पालतू क्षुद्र बौना' दिखाया, आदि।
कम्युनिस्ट अखबार पीपुल्स डेली (10 जनवरी 1943) में तब कम्युनिस्ट पार्टी के सवार्ेच्च नेता रणदिवे ने अपने लेख में बोस को 'जापानी साम्राज्यवाद का गुंडा' तथा उनकी सेना को 'भारतीय भूमि पर लूट, डाका, विध्वंस मचाने वाला भड़ैत' बताया। लेकिन रोचक बात यह है कि यह सब कहने के बाद, समय बदलते ही, जब आई़ एऩ ए. की लोकप्रियता देशभर में बढ़ने लगी, तो कम्युनिस्टों ने उसके बंदी सिपाहियों के पक्ष में लफ्फाजी शुरू कर दी!
उपर्युक्त इतिहास के संदर्भ में स्मरण रखने की पहली बात है कि यह सब न अपवाद था, न अनायास। दूसरी बात, जो बुद्धि अपने सामने हो रही घटना, व्यक्तित्व का ऐसा मूढ़ मूल्याकंन करती रही, वह दूसरे लोगों, घटनाओं, सत्ताओं का मूल्यांकन भी वैसे ही करती है। यानी जड़-विश्वास, घोर मतिहीन। सभी मूल्यांकनों का स्रोत एक बनी-बनाई विचारधारा में अंधविश्वास ही था और है, जो तथ्यों को यथावत देखने की बजाए एक, और खास एक ही तरह से देखने को मजबूर करता था। यह बंदी मानसिकता देश और समाज के लिए कितनी घातक रही है, हमें इसे ठीक से समझना चाहिए। अतएव तीसरी बात यह है कि नेताजी सुभाष, जय प्रकाश नारायण, गांधीजी आदि के अपमानजनक और जड़मति मूल्यांकनों की क्षमा मांग लेने के बाद भी इस देश में कम्युनिस्ट वही काम बार-बार करते रहे हैं। उनकी देश-समाज-विरोधी प्रवृत्ति नहीं बदली है। आज भी अयोध्या, कश्मीर, गोधरा, इस्लामी आतंकवाद आदि गंभीर मुद्दों और अटलबिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी या नरेन्द्र मोदी जैसे शीर्ष नेताओं के मूल्यांकन और तद्नुरूप कम्युनिस्ट अभियान चलाने में ठीक उसी मूढ़ता और देशघाती जिद की अक्षुण्ण परंपरा है। यह काम कम्युनिस्ट पार्टियों के साथ-साथ तमाम मार्क्सवादी प्रोफेसर, लेखक, पत्रकार, बुद्धिजीवी भी करते रहे हैं। चूंकि ये लोग कम्युनिस्ट पार्टी से सीधे जुड़े हुए नहीं हैं तथा बड़े-बड़े अकादमिक या मीडिया पदों पर रहे हैं, इससे इनका वास्तविक चरित्र पहचानने में गलती नहीं करनी चाहिए।
इस प्रकार, नेताजी व आई़ एऩ ए. को 'तोजो का कुत्ता' और राष्ट्रीय स्वयंयेवक संघ को 'तालिबान, अल कायदा सा आतंकवादी' बताने में एक सी भयंकर मूढ़ता और हानिकारक क्षमता है, यह हमें देखना, समझना चाहिए। कभी भगवाकरण, तो कभी असहिष्णुता के बहाने चलते अभियान उसी घातक अंधविश्वास व हिन्दू-विरोध से परिचालित हैं। इस से देश-समाज बंटता है, जो कम्युनिस्ट 1947 में एक बार सफलतापूर्वक करवा चुके हैं। आज भी प्रगतिशील, सेक्युलर, लिबरल आदि विशेषणों की आड़ में वही भारत-विरोधी और हिन्दू-द्वेषी राजनीति थोपी जाती है। क्योंकि घटनाओं, स्थितियों, व्यक्तियों, समुदायों की माप-तौल के पैमाने, बाट, इंच-टेप वही हैं।
लंबे नेहरूवादी-कम्युनिस्ट गठजोड़ के कारण वही पैमाने हमारे बुद्धिजीवियों की मानसिकता में अनायास जमा दिए गए हैं। तभी जन-समर्थन के बावजूद मोदी सरकार को अपदस्थ, लांछित करने में हर हथकंडा आसानी से चलता है। इससे जो हानि होती है, उससे युवाओं  को पूरी तरह अवगत होना चाहिए। नेताजी के कम्युनिस्ट मूल्यांकन का यही जरूरी सबक है।
(लेखक राजनीतिक विज्ञान के प्रोफेसर हैं)

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