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लाला लाजपत राय (28 जनवरी ) की 150वीं जयंती पर विशेष
लाला लाजपत राय के पिता लाला राधा कृष्ण अग्रवाल को इस्लाम में गहरी आस्था थी और वह बड़ी निष्ठा के साथ मुस्लिम त्योहारों और नियमों का पालन करते थे। यह बात कई लोगों को बेहद अटपटी लग सकती है, पर अंग्रेजों के खोले एक फारसी मदरसे में मौलवी की देखरेख में प्राप्त की गई शिक्षा का यह एक स्वाभाविक असर था। वह रोजाना नमाज पढ़ते और बचपन से ही रोजे रखते आए थे। कुरान उनके जीवन का हिस्सा बन चुकी थी। हालांकि, उन्होंने औपचारिक रूप से धर्म परिवर्तन नहीं किया, क्योंकि उनकी पत्नी श्रीमती गुलाब देवी 'केशधारी'; सिख परिवार की एक धर्मनिष्ठ हिंदू महिला थीं। उन्होंने अपने पति को जता दिया था कि अगर उन्होंने अपना धर्म बदला तो वह बच्चों के साथ उन्हें छोड़कर अपनी मां के घर चली जाएंगी। लाला राधाकृष्ण अग्रवाल परिवार का टूटना नहीं देख सकते थे।
फिर भी, अग्रवाल जी ने युवा लाजपत राय को कुरान की शिक्षा दी, नमाज अता करना सिखाया और रोजे रखने के लिए भी प्रेरित किया। लेकिन किशोरावस्था पर पहुंच रहे लाला लाजपत राय धीरे-धीरे इस्लाम से दूर होने लगे। 17 वर्ष की उम्र में लाहौर में पढ़ाई करने के दौरान वह आर्य समाज के संपर्क में आए। इस चिंतन का उन पर गहरा प्रभाव पड़ा और वह इसके सच्चे अनुयायी बन गए। उनकी जिंदगी एक अहम मोड़ लेे रही थी जिसके साथ हिन्दू धर्म को समर्पित एक नेता आकार ले रहा थी। 1914 में लिखी आत्मकथा में लाजपत राय कहते हैं, ''आर्य समाज की नाव मेरे लिए हिंदू राष्ट्रवाद की नाव थी। 1882 में नाव छोटी और अकेली थी, पर पिछलेे 32 वषार्ें के दौरान, हिंदू राष्ट्रवाद का उत्थान हुआ और यह सशक्त होकर जहाजों के एक मजबूत बेड़े में तब्दील हो चुकी है जिसमें आर्य समाज को एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है।''
1897 में एक कट्टरपंथी मुसलमानों ने आर्य समाज के समर्पित कार्यकर्ता और पंजाब में शुद्धि आंदोलन के अग्रणी नेता पंडित लेख राम की हत्या कर दी जिससे लाला लाजपत राय को गहरा धक्का पहुंचा। उन्होंने हिंदू धर्म के प्रति लेखराम के महती योगदान को याद किया और उन्हें आर्यसमाजी शहीद कहते हुए भावभीनी श्रद्धांजलि दी।
लाला लाजपत राय जिन्हें 'लालाजी' बुलाया जाता था, 1888 में कांग्रेस में शामिल हो गए, फिर भी आर्य समाज में शामिल होते समय खायी गई कसम पर दृढ़ बने रहे। 1896 और फिर 1899 में, मध्य प्रांत, राजपूताना, पंजाब, संयुक्त प्रांत और काठियावाड़ में अकाल पड़ा। हजारों काल के ग्रास हो गए और पीछे छोड़ गए सैकड़ों अनाथ बच्चे। इन असहाय बच्चों पर ईसाई मिशनरियों ने अपनी गिद्ध नजरें गड़ा रखीं थीं। कांग्रेस नेतृत्व इस समस्या के प्रति उदासीन बना हुआ था। पर लालाजी सचेत थे। उन्होंने सरदार भगत सिंह के पिता सरदार किशन सिंह को सुदूर क्षेत्रों से सभी अनाथ बच्चों को लाने की जिम्मेदारी सौंपी और उन बच्चों के पुर्नवास के लिए पंजाब में अनाथालय खोले। जब कांगड़ा और आसपास के जिलों को भूकंप की त्रासदी से गुजरना पड़ा तो उस विपदा में बेसहारा हो गए बच्चों को भी लालाजी की स्नेहिल देखरेख में आश्रय मिला। उनके परोपकारी उद्देश्य में हाथ बंटाने के लिए कई अमीर हिंदू आगे बढ़े और उत्तरी भारत में जगह-जगह अनाथालयों के निर्माण के लिए खुलकर योगदान किया।
विदेश में अपने प्रवास (1914-1919) के दौरान, लालाजी ने भारतीय स्थिति पर रोशनी डालते हुए यंग इंडिया नाम की एक प्रभावशाली किताब लिखी थी जिसमें उन्होंने भारतीय मुसलमानों के बारे में अपने विचार पेश किए हैं। पेज 33 पर उन्होंने लिखा है, ''मुसलमानों में अलगाववादी विचारधारा रखने वाले अब समझ चुके हैं कि जिस अलगाववाद का उन्होंने इस्तेमाल किया वह अन्तत: उनके अपने समाज के हित में नहीं है। अपने हिंदू देशवासियों की तरह उन्हें भी एहसास हो गया है कि उनके विचार और निष्ठा भारत के प्रति ही समर्पित हों। धर्म से मुसलमान कहलाने वाला व्यक्ति भी राजनीतिक परिदृश्य पर एक भारतीय की पहचान ही रखता है।' पेज 35 पर वह कहते हैं कि 70 लाख भारतीय मुसलमानों में करीब 8 लाख ही ऐसे हैं जिनके पूर्वज गैर-भारतीय होंगे।
यह निष्कर्ष तिलक युग (1899-1919) की स्थिति के आकलन से निकला था। इसी पृष्ठभूमि में लालाजी स्वामी श्रद्धानंद, और शंकराचार्य (पुरी) जैसे कांग्रेस कार्यकारी समिति के अन्य सदस्यों के साथ खिलाफत आंदोलन को समर्थन देने के सहर्ष तैयार हो गए थे जिसका प्रस्ताव सी़ आऱ दास ने नागपुर कांग्रेस (1920) में रखा था और गांधीजी ने समर्थन दिया था। यह आंदोलन मुख्यत: भारतीय मुसलमानों ने चलाया था जिसका उद्देश्य प्रथम विश्व युद्ध में विजयी अंग्रेजों द्वारा अपदस्थ तुर्की में खलीफा (राजनीतिक और धार्मिक शासक) की बहाली के लिए दबाव बनाना था। लेकिन इस आंदोलन में कदम मिला कर चलते हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच बसी दोस्ती जल्दी ही काफिरों के विरोध में उभरे विकराल इस्लामी उग्रवाद की भंेट चढ़ गई जिसने हिंदुओं को भी इसी श्रेणी में डाल दिया था। देशभर में खिलाफत आंदोलन के साए में खून की होली खेली गई।
गांधी युग के पहले दशक के दौरान हर साल 900 सांप्रदायिक दंगे हुए। स्वामी श्रद्धानंद और लालाजी ने कांग्रेस छोड़ दी। स्वामीजी शुद्धि आंदोलन के साथ जुड़ गए, जबकि लालाजी ने मदन मोहन मालवीय के साथ स्वतंत्र कांग्रेस पार्टी (आईसीपी) का गठन किया। 1925 में उन्होंने कलकत्ता में हिंदू महासभा की अध्यक्षता भी की। उनसे अपने विचारों को साझा करते हुए अनुभवी वकील सी़ आर दास, जिन्होंने इस्लामी धर्मशास्त्र का गहराई से अध्ययन करने के बाद ही नागपुर में खिलाफत प्रस्ताव पेश किया था, कहा था कि हिंदू-मुसलमान एकता संभव नहीं, न ही इसकी जरूरत है। लालाजी ने देशभर का दौरा करते हुए हिंदुओं में उत्साह का संचार किया और उन्हें आत्मरक्षा की बातें सिखाईं। उन्होंने गौर किया कि हिंदू-मुसलमान एकता की दिशा में कांग्रेस के प्रयासों से सिर्फ मुसलमानों को ही फायदा पहुंच रहा था।
मोती लाल नेहरू ने आईसीपी को 'लाला-मालवीय गुट' नाम दिया था। 1926 के विधान परिषद चुनावों में आईसीपी ने मोतीलाल नेहरू की स्वराज पार्टी को पूरे उत्तरी भारत में जबरदस्त पटखनी दी जिसे कांग्रेस का समर्थन प्राप्त था। इलाहाबाद में भी मोती लाल ने बड़ी मुष्किल से अपनी सीट बचाई।
यह साफ है कि अगर लाहौर में साइमन कमीशन विरोधी आंदोलन के दौरान (30 नवंबर 1928) लालाजी उस घातक लाठी प्रहार का शिकार नहीं होते तो वह आगे भी देश का नेतृत्व कर रहे होते। कांग्रेस के हिन्दू विरोधी और मुस्लिम समर्थक चेहरे को धूल फांकनी होती और भारतीय इतिहास आज अलग ही अध्याय बांच रहा होता। 1928 के अंत तक 'पंजाब का शेर' या 'पंजाब केसरी' के नाम से लोकप्रिय लाला लाजपत राय जनता के मन में एक महान राष्ट्रीय नेता के रूप में अमिट छवि बना चुके थे। -अजय मित्तल
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