जम्मू कश्मीर - सरकार के गठन में अब और देरी क्यों
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जम्मू कश्मीर – सरकार के गठन में अब और देरी क्यों

by
Jan 25, 2016, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 25 Jan 2016 14:56:28

जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) के संरक्षक शीर्ष नेता मुफ्ती मोहम्मद सईद की दु:खदायी मौत राज्य में एक खालीपन छोड़ गई है जिसकी भरपाई कठिन है। इस शून्य को पाटने की चुनौती बहुत बड़ी है। उनकी बेटी और राजनीतिक उत्तराधिकारी महबूबा मुफ्ती पार्टी के भविष्य के विचार के नाम पर अब भी अनिर्णय की शिकार हैं। इसी का परिणाम है कि राज्य में राष्ट्रपति शासन की स्थिति उत्पन्न हो गई।
जम्मू कश्मीर ऐसा संवेदनशील राज्य है जहां निर्वाचित सरकार थी लेकिन इस समय स्थिति डावांडोल है। इस समय ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई है जो नकारात्मक परिस्थितियों की ओर बढ़ती हुई दिखाई दे रही है।
पाकिस्तान द्वारा समर्थित आतंकी तत्व राज्य में अपने शैतानी एजेंडे को अंजाम देने के लिए ऐसी ही स्थिति की ताक में रहते हैं। कोई भी सामान्य व्यक्ति यह अंदाज लगा सकता है कि हाफिज सईद और सैयद सलाहुद्दीन जोर-जोर से लाउडस्पीकर पर फिर चिल्लाएंगे- ''काफिर लोग कश्मीर के गरीब लोगों के वैधानिक अधिकारों का हनन कर रहे हैं। राष्ट्रपति शासन के अधीन भारत सरकार इन पर अत्याचार कर रही है।''
पाकिस्तान समर्थित उन्मादी और आतंकी सीमा रेखा से घुसपैठ और गोलाबारी की कोशिश करेंगे और इस तनावपूर्ण राजनीतिक स्थिति में हर गलत हरकत को अंजाम देने की फिराक में रहेंगे।
पूरी दुनिया अब यह देखना चाहेगी कि किस प्रकार आगामी गणतंत्र दिवस पर जम्मू कश्मीर में राज्यपाल भारतीय तिरंगा लहराएंगे जो वास्तव में निर्वाचित मुख्यमंत्री को करना था। कुछ लोग कह सकते हैं कि यह मात्र रस्म अदायगी होगा लेकिन निश्चित रूप से यह महत्वहीन नहीं है। एक गलत प्रभाव जो लगता है, बना रहेगा, अंतरराष्ट्रीय समुदाय का भी ध्यान अपनी ओर खींचेगा।
राज्य विधानसभा चुनाव में जो लोग एक चुनी सरकार के गठन की आशा से सारी विपरीत स्थितियों और भारी व्यक्तिगत जोखिमों के बाद भी उत्साह के साथ मतदान करने आए थे वे अब स्वयं को ठगा हुआ और अपमानित महसूस कर रहे हैं। नई सरकार के गठन में जितना समय लगेगा, उनकी कुंठाएं उतनी ज्यादा बढ़ेंगी। वर्तमान में विद्यमान स्थिति विध्वंसक और विभाजनकारी तत्वों का उत्साह बढ़ाएगी और यह राज्य में अशांति को फिर से आमंत्रित करेगी। जब तक राजनीतिक दल अपने स्वार्थ से उत्पन्न मतभेदों को निबटाएंगे तब तक तो कई युवा एक बार फिर अपना ध्यान और रुझान उग्रवाद की ओर मोड़ लेंगे।
सर्दियों का समय राज्य के लिए बहुत कष्टकारी होता है। यह वह अवधि होती है जब राज्य का शासनतंत्र खतरनाक ठंड से जूझ रहे लोगों की समस्याओं के समाधान के माध्यम से अपने प्रति लोगों की सदिच्छाएं जोड़ने की कोशिश करता है। राज्य में चुनी हुई सरकार के न होने की स्थिति में कोई राजनीतिक लाभ भी हासिल होने वाला नहीं है। सरकार गठन में हो रहे निर्णय की देरी से राजनीतिक 'हाराकिरी' की स्थिति होगी। यह भी आश्चर्य की बात है कि जो दल सरकार में हैं उनमें दूरदृष्टि नहीं दिख रही है। जब हम इस परिप्रेक्ष्य को देखते है कि क्या सही और क्या सम्मानजनक है तो राज्य के राजनीतिक नेताओं को इस संकट की स्थिति में अपनी जनता की उम्मीदों को झुठलाने से चिंतित दिखना चाहिए।
पठानकोट उग्रवादी हमले के बाद भारत और पाकिस्तान के संबंधों के रास्ते में एक बार फिर रोड़े पैदा हो गए हैं। परिस्थिति को समझदारी से संभलते हुए बातचीत की प्रक्रिया को लीक से हटकर जारी रखने की कोशिशें हुई हैं। ऐसी स्थिति में राज्य में एक मजबूत चुनी हुई सरकार वार्ता में भारत की स्थिति को ताकत और गति देने का काम करती। यह अच्छा होता कि केन्द्र सरकार जम्मू कश्मीर सरकार को पाकिस्तान के साथ संबंधों के मामले में कम महत्व देने के विकल्प को अपनाती। राज्य में चुनी हुई सरकार के अभाव में निर्णय लेने की बाध्यता उत्पन्न हो रही है।
पीडीपी के अंदर भी कुछ ऐसे सत्ता केन्द्र हैं जो मुफ्ती मोहम्मद सईद की मौत को  राज्य में राजनीतिक बदलाव के रूप में भुनाना चाहते हैं। वे महबूबा पर दबाव बना रहे हैं कि वह भारतीय जनता पार्टी के साथ जारी गठबंधन से बाहर आ जाएं क्योंकि उनके पिता गठबंधन के बावजूद अपने बड़े कद और परिपक्वता के चलते अपने हिसाब से काम करते थे और निर्णय लेते थे।
पार्टी में इतने ही लोग हैं जो हालात को हवा देने के पक्ष में नहीं है। उन्होंने अपनी बात केवल पार्टी की बैठकों में ही नहीं रखी बल्कि मीडिया के सामने भी वे अपने विचार व्यक्त कर रहे हैं। अपने एक लेख में पीडीपी के वरिष्ठ नेता कैप्टन अनिल गौड अपने एक लेख, ''पीडीपी-बीजेपी : मुफ्ती साहब की विरासत को हर कीमत पर बचाना होगा'' में कहते हैं, ''और अधिक परिवर्तन और अनुभव की आवाजें ऐसे किसी विवादास्पद निर्णय को हवा देने के पक्ष में नहीं हैं, बल्कि इसका विरोध हो रहा है। इससे न केवल मुफ्ती साहब द्वारा छोड़ी गई विरासत पर प्रश्न खड़ा होगा बल्कि यह राज्य की सामाजिक बनावट में भी संकट उत्पन्न करेगा।'' इस लेख को जम्मू और श्रीनगर में दोनों ही जगह बड़े पैमाने पर मीडिया ने उछाला है। इससे पता लगता है कि इस धारणा को व्यापक रूप से स्वीकार किया जा रहा है।
सरकार गठन के निर्णय पर पीडीपी के कोर ग्रुप ने पार्टी अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती को अधिकृत किया है। हालांकि कोर गु्रप ने औपचारिक रूप से महबूबा को सर्वस्वीकृति से  मुख्यमंत्री प्रत्याशी के रूप में घोषित नहीं किया है। और पेच यहीं है। इंतजार करो और देखो का खेल शुरू हो गया है। गेंद अब पूरी तरह से महबूबा मुफ्ती के पाले में है। अब महबूबा ही हैं जो मुफ्ती युग बीतने के बाद इस अनिश्चिय पर विराम लगाकर जम्मू कश्मीर की सत्ता का निर्णय करेंगी। यह सर्वविदित है कि महबूबा मुफ्ती अपने पिता से न  केवल निकट भावनात्मक संबंध से जुड़ी रहीं अपितु मुफ्ती उनके राजनीतिक संरक्षक, पार्टी में वरिष्ठ सहयोगी और पिता थे। इसलिए उनकी क्षति ने महबूबा के लिए उससे उबरना मुश्किल हो गया है। इस स्थिति में उनकी भावनात्मक संवेदना को समझा जा सकता है।
ऐसे समय में इस बात का उल्लेख करना भी बहुत जरूरी है कि राज्य में स्थिर सरकार में देरी और दिक्कतें पैदा करेगी जबकि पहले ही  जम्मू कश्मीर में गठबंधन सरकार के गठन में हुई देरी से राज्य और देश को बहुत नुकसान उठाना पड़ा है। इस विषम स्थिति से सुरक्षा बल भी दुविधा की स्थिति में हैं क्योंकि इस स्थिति से राज्य में सभी महत्वपूर्ण सुरक्षा स्थितियों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। लोगों की इच्छाओं और आकांक्षाओं के लिए जिन्हें उनके पिता मुफ्ती मोहम्मद बहुत प्यार करते थे, महबूबा को अपना दु:ख और पीड़ा भूलकर प्रभावी निर्णय लेने के लिए खड़ा होना होगा। ऐसा करते हुए उन्हें अपनी पिता की दृष्टि और विरासत को दिमाग में रखना होगा। बाकी सब चीजें अपने आप ही हो जाएंगी।  -जयबंस सिंह
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

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