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पाञ्चजन्य, ऑर्गनाइजर द्वारा आयोजित सुरक्षा पर संवाद अपने तीसरे वर्ष में है। इस बार विशेषज्ञों के साथ दिनभर चली चर्चाओं में खंगाले गए लाल आतंक यानी नक्सलवाद से जुड़े तमाम पहलू। प्रस्तुत हैं इस विचार-विमर्श के संपादित अंश।
ताकत संवाद की- मोबाइल रेडियो कर सकता है माओवाद को पंक्चर-शुभ्रांशु चौधरी
मेरी समझ में माओवादी आतंक यानी 'लाल आतंक' छत्तीसगढ़ ही नहीं पूरे देश में फैला है। 60 के दशक में यह लड़ाई शुरू करने वाले आज भी डटे हैं और वे हिंसा से सत्ता परिवर्तन चाहते हैं। उनकी ओर से लड़ाई दो प्रकार से लड़ी जा रही है। माओवादी बिना हथियार हैं तो माओवादी समर्थकों के हाथों में हथियार हैं। माओवादियों की संख्या मात्र एक या दो फीसद है, जबकि 99 फीसद माओवादी समर्थक हैं। लोग माओवाद से प्रभावित या आकर्षित होकर उनकी तरफ नहीं गए हैं, पर ज्यादातर हमारे उनसे बातचीत न करने, संपर्क नहीं किए जाने और हम लोगों के दबाव के कारण वहां गए हैं। वैसे, बस्तर में माओवादी आंदोलन की ताकत ऊपरी तौर पर कम हुई है। उसके पोलित ब्यूरो में 40 में से मात्र 20 लोग या उससे भी कम बचे हैं। कुछ जेल में हैं, कुछ मर चुके हैं। जो बुद्धिजीवी, जिनसे लोग जुड़ते थे, उनका वह क्रम 90 के दशक के बाद से लगभग बंद हो गया है, पर वहीं थोड़े से 100-200 लोग जो भी बचे हैं उन्हें स्थानीय मदद लगातार बढ़ रही है। इन वनवासियों के साथ हमने कभी कोई संपर्क नहीं बनाया है। वे सिर्फ ऑल इंडिया रेडियो ही सुन सकते हैं और आजादी के 70 साल बाद भी 1़2 करोड़ गोंड आदिवासियों की भाषा में एक न्यूज बुलेटिन तक नहीं है। गोंडी भाषा का कोई संस्थान नहीं है। माओवाद को हम देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ी चुनौती कहते हैं, लेकिन कोई भी पत्रकार, पुलिस अधिकारी, प्रशासनिक अधिकारी नहीं मिलता जिसने इस भाषा को सीखने का प्रयास किया हो। रेडियो ऐसे में वह कर सकता है जो बंदूक नहीं कर सकती है। यह स्थिति संवाद टूटने की वजह से पैदा हुई है। हम मनुष्य हैं, यदि आप मुझसे बात नहीं करेंगे तो निश्चित ही मैं दूसरी तरफ के लोगों से बात करूंगा। उसके पास बात करने के लिए केवल माओवादी हैं। मध्य भारत में 10 करोड़ वनवासी रहते हैं। इन्हें यदि मोबाइल का प्रयोग करना, बात करना, गीत गाना सुलभ करा दें तो सुधार होगा। लोग माओवादी इसलिए बन रहे हैं क्योंकि वनवासियों की छोटी से छोटी समस्याएं हल नहीं हो रही हैं। मोबाइल रेडियो ये काम कर सकता है। हम माओवादियों की व्यवस्था मंे पंक्चर कर सकते हैं। वनवासी संपर्क टूटने से आशा खो चुके हैं, उनमें आशा जगाने की जरूरत है। माओवादियों ने कभी दावा नहीं किया कि वे वनवासियों की दशा या समस्या सुधारने में लगे हैं। उनका उद्देश्य साफ है कि वे लालकिले पर अपना झंडा फहराना चाहते हैं। उस इलाके को केवल उन्होंने चुना था छिपने के लिए, जो आज उनका मुख्यालय बन चुका है।
विजय क्रांति- आम आदमी को मुख्यधारा से जोड़ना होगा। सड़क से दूर जंगल में रहने वाले आम आदमी को जब तक देश की व्यवस्था का लाभ नहीं मिलेगा, वह हमारे संपर्क में नहीं रहेगा तो उसे कोई भी अपने साथ ले जाएगा।
ल्ल पवन देव -उपेक्षित करने वाला तथ्य गलत है। वहां पर असल में नक्सलियों का एक भय है और भय के कारण ग्रामीण उन्हें समर्थन देते हैं। उन्हें भय है कि पुलिस 24 घंटे उन्हें सहयोग नहीं दे सकती है। यह जो भय का कारण है, वही सबसे बड़ी समस्या है।
अता हसनैन- यह पता करना बेहद जरूरी है कि माओवाद इतने लंबे समय तक आखिर चल कैसे गया और उसके पीछे क्या ताकतें हैं। यदि कोई उनसे जुड़ा है तो कौन है और उसकी क्या भूमिका है। इस तरह की चीजें बिना किसी आर्थिक मदद के चल नहीं सकतीं और बिना मदद के इतना लंबा चलना नामुमकिन हो जाता है। दूसरी बात यह है कि जब तक निचले स्तर पर राजनीति न की जाए, तब तक आप सफल नहीं हो सकते। देश में बहुत जगहों पर पंचायती राज्यों की भूमिका रही है। क्या छत्तीसगढ़ में ऐसी कोई व्यवस्था है?
शुभ्रांशु- मैं समस्या को भाषा की दृष्टि से देख रहा हूं, यह 'फॉल्ट लाइन' है। बस्तर दक्षिण भारत का हिस्सा है और उस पर एक उत्तर भारतीय मानसिकता के साथ शासन किया जा रहा है। वही उत्तर में अता हसनैन जी को ग्राम पंचायत और राजनीति के बारे में देना चाहूंगा। आप दो किलोमीटर अंदर चले जाइए, भूखे मर जाएंगे। पराई भाषा का कोई एक शब्द भी नहीं समझता, विशेषकर महिलाएं। हिन्दी और गोंडी के बीच गहरी खाई बन चुकी है। अनुवाद ज्यादातर गलत होते हैं। शिक्षा और जमीनी स्तर पर देखभाल बेहद जरूरी है।
आलोक बंसल- मेरा मानना है कि विकास नहीं हुआ इसलिए लोग माओवादी बन गए, यह गलत है। जिस चीज से लोग असंतुष्ट हैं, वह अन्याय है। इस मत में मेरी शुभ्रांशु से भिन्नता है। वे बोलते हैं कि 90 के दशक में ऐसा हुआ जिससे लोग माओवादी बन गए। मैं बस्तर में उस समय रहा हूं जब लिखा जाता था 'बस्तर की गलियां सूनी हैं, डी़ पी़ मिश्रा खूनी है।' प्रवीरचंद भंजदेव को उसके घर में घुसकर सोफे के नीचे गोली मार दी गई थी। उसके बावजूद वहां नक्सलवाद नहीं बढ़ा। मैं जब वहां रहा, तब वहां शांति थी। हिन्दी और गोंडी में कोई विवाद न था। बस्तर के वनवासी संतुष्ट लोग हैं। वहां एक विचारधारा को संगठित किया जा रहा है। इस्लामी कट्टरवाद में भी यही हो रहा है। 1970 में भी वहां नक्सलवाद की कोशिश की गई पर वे कामयाब नहीं हो पाए। विषय यह है कि नक्सलवाद 1990 में क्यों हुआ?
सूत्र खंगालिए: कहां-कहां जुड़े हैं तार- पी.वी. रमन्ना
चीजों को तब से ध्यान से देखना होगा जब 1980 में पीपुल्स वार की स्थापना हुई। इसके बाद 1991 में एक दस्तावेज आया जिसमें कोंडापल्ली सीतारमैय्या ने कहा कि अबूझमाड़ हमारे लिए रणनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। यह हमारा कमान मुख्यालय बनेगा। चलो, आगे बढ़कर यहां कब्जा करें। आज बस्तर जो भी है वह लंका पापी रेड्डी की वजह से है।
क्रांति भले ही जिनका एजेंडा न हो, ऐसे अन्य समूहों से भी रणनीतिक संबंध रखना और वहां पैठ बनाना यह माओवादी रणनीति का हिस्सा है। आप सबने वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम और इसकी बैठकों के बारे में सुना होगा। जहां भी वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम का आयोजन होता है वहां-वहां वर्ल्ड सोशल फोरम का भी आयोजन होता है। बैठकें की जाती हैं। मगर वर्ल्ड सोशल को तो पश्चिमी साम्राज्यवाद ने ही खड़ा किया है! माओवादियों को यह बात समझने में देर लगी। और बाद में इसके जवाब में उन्होंने 'एमआर2004' या 'मुंबई रजिस्टेंस' का गठन किया। लैटिन अमेरिका से फिलीपींस तक, दक्षिणपूर्व एशिया के 43 देश इस बैठक में शामिल हुए। उन्होंने मुंबई में रैलियां की, वृतचित्र बनाए।
समन्वय की जरूरत : मिल कर चलें केन्द्र और राज्य -प्रकाश सिंह
आज सवाल है कि हम माओवादी समस्या का कैसे सामना करें? इसमें केन्द्र और राज्यों का समन्वय अहम है लेकिन यह देखने को नहीं मिलता है। सवाल यह भी है कि समन्वय किस स्तर पर हो, किन मुद्दों पर हो। माओवादी समस्या से निबटने के लिए अब तक कोई राष्ट्रीय नीति नहीं बनी। ऐसा क्यों हुआ? केन्द्र और राज्य के बीच समन्वय न होने का प्रमुख कारण ही है राष्ट्रीय स्तर की सुरक्षा नीति का न होना। मुख्यमंत्री अपनी बुद्धि, विवेक और समझ के अनुसार माओवाद का सामना कर रहे हैं। हर प्रदेश अलग ढंग से लड़ रहा है। किसी का बल प्रयोग तो किसी का आर्थिक प्रगति का दृष्टिकोण है। यही कारण है कि यह समस्या एक गांव से शुरू होकर आज 180 जिलों में फैल चुकी है। कई मुख्यमंत्रियों पर आरोप लग चुके हैं कि वे माओवादी नेताओं को अपने पक्ष में मतदान के लिए बोलते हैं।
साथ ही, केन्द्र का राज्य और राज्य का दूसरे राज्यों से सूचनाओं का आदान-प्रदान भी काफी महत्वपूर्ण है एक बार पश्चिम बंगाल और झारखंड एक-दूसरे पर सूचनाओं का आदान-प्रदान न करने का आरोप लगा रहे थे। आंध्रप्रदेश की एसआईबी का काम सराहनीय रहा है, एसआईबी न केवल अपनी, बल्कि दूसरे राज्यों और कई बार राष्ट्रीय स्तर की सूचनाएं रखती थी। दिल्ली तक उन्होंने अपनी सूचनाएं पहंुचाई हैं। आंध्रप्रदेश में जिलाधिकारी और पुलिस अधीक्षक अपने स्तर पर गांव-गांव में लोगों से संपर्क साधते थे। बच्चों के लिए खेल-कूद प्रतियोगिताओं का आयोजन करवाते थे। जिन परिवारों के बच्चे माओवादियों के संपर्क में आकर चले जाते थे, उनके परिवार के सदस्यों की पुलिस देखभाल करती थी। बीमार परिजनों के उपचार से लेकर उन्हें आर्थिक मदद मुहैया करवाई जाती थी। इसका असर हुआ। माओवादियों का इस तरह की कार्यप्रणाली से हृदय परिवर्तन भी हुआ। हमारे निष्क्रिय रहने की वजह से छोटे रूप में उभरी समस्या विकराल रूप ले लेती है जिसे बाद में हम देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा मानते हैं। वैसे, जान को जोखिम में डाले बिना समस्या से कभी नहीं लड़ा जा सकता। एक समय ऐसा आ गया था कि केन्द्र की नीतियां भी आमने-सामने के संघर्ष में जान के जोखिम से कतराती थीं।
कर्नल जयबंस सिंह- माओवाद-नक्सवाल से देश के पांच-छह राज्य जूझ रहे हैं। नक्सलियों की अलग-अलग धाराएं हैं, अलग भाषाएं और दूसरे अंतर हैं तो फिर केन्द्र सरकार किस प्रकार एक ही योजना से इस समस्या का समाधान कर सकती है? दूसरे, एक ही विभाग इस समस्या का हल कैसे निकाल सकता है?
प्रकाश सिंह- देखिए, राष्ट्रीय नीति सभी राज्यों में इस समस्या का समाधान कर सकती है। दिक्कत यह है कि हमारे पास न कोई आतंकवाद निरोधक नीति है और न ही कोई राष्ट्रीय स्तर की नीति है जिससे हम आतंकवाद का सामना कर सकें। अमेरिका और ब्रिटेन में उनकी सुरक्षा नीति को बखूबी देख सकते हैं जबकि हमें अपने देश में इन नीतियों से संबंधित कोई पत्र या कागजात देखने को नहीं मिलते। आज तक कभी किसी सरकार ने इस नीति को क्यों नहीं बनाया, जबकि यह पांच से छह माह में तैयार हो सकती है?
पवन देव- मुझे लॉस एंजिलिस जाने का अवसर मिला। वहां एक सवाल किया गया पुलिस अधिकारियों से कि 9/11 के बाद वहां बड़ा हमला क्यों नहीं हुआ, जबकि भारत मंे हर साल-दो साल में कुछ न कुछ घटना हो जाती है। इस पर उन अधिकारियों का कहना था कि इसके लिए परिणाम पर काम करना होगा। घटनाएं रोकने के लिए अपराधियों को पकड़ना होगा।
प्रकाश सिंह- दिक्कत यह है कि यदि कोई सरकार आतंकवाद या नक्सलवाद पर कड़ाई करनी शुरू करती है तो कार्रवाई से पहले ही विपक्ष हंगामा खड़ा कर देता है। जबकि सुरक्षा के मुद्दे पर कोई दखल नहीं होना चाहिए। फ्रांस में हुए हमले के बाद वहां की सरकार ने तुरंत कार्रवाई का निर्णय कर लिया, लेकिन भारत में बटला हाउस एनकाउंटर हुआ तो दुनियाभर में बवाल मच गया। राष्ट्रीय सुरक्षा नीति तैयार करनी चाहिए, यहां राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर कोई विचारधारा ही नहीं है।
केजी सुरेश-हम विचारधारा की बात करते हैं। इसे राष्ट्रीय परिपेक्ष में देखें। पिछले 65 साल से देश में एक ही दल का शासन रहा है और ये इसलिए रहा क्योंकि इसके सामने इसे चुनौती देने वाली कोई अन्य विचारधारा नहीं दिखती थी। कोई भी विचारधारा ऐसी स्थिति में हावी होने लगती है जब उसके सामने उसे चुनौती देने वाला विचार मौजूद न हो। विचार की गैरमौजूदगी में राज्य इसकी जगह नहीं ले सकता, कोई विचारधारा नहीं हो सकता। यह इसका जवाब नहीं हो सकता। पुलिस भी इसका जवाब नहीं हो सकती। विचारधारा को तो विचारधारा से ही चुनौती दी जा सकती है। मुझे लगता है नक्सल समस्या को सुलझाने की दृष्टि से यह बात समझना महत्वपूर्ण है।
सब साफ-साफ हो : नीतियों में स्पष्टता से मिलेंगे परिणाम- पवन देव
संविधान के अनुसार पुलिस राज्य का विषय है और आंतरिक सुरक्षा राज्य का हिस्सा है। अभी सीआरपीएफ या आईटीबीपी को नहीं पता कि उन्हें क्या करना है। दुविधा यही है। सीआरपीएफ, आईटीबीपी या बीएसएफ बोलती है कि नक्सलवाद खत्म करना है, राज्य पुलिस ऐसे में क्या करे? यदि पुलिस को कहीं ऑपरेशन का संचालन करना है तो फिर सीआरपीएफ की क्या भूमिका है? सीआरपीएफ स्थानीय पुलिस महानिरीक्षक की सुनेगी या अपने पुलिस महानिरीक्षक की? आईटीबीपी आती है तो कहती है क्षेत्र में पुलिस तंत्र विफल हो चुका है। यदि अभियानों में नियंत्रण और संचालन अलग-अलग होगा तो माओवाद या किसी दूसरी समस्या का समाधान नहीं हो सकता है। नीतियों में स्पष्टता से आतंकवाद के विरुद्ध अभियानों के परिणाम बेहतर हो सकते हैं।
प्रकाश सिंह- देखिए, दिक्कत राज्य पुलिस की ओर से भी रही है। ऐसा इसलिए हुआ कि जब राज्य पुलिस की ओर से माओवाद की समस्या को दूर करने के लिए कोई रुख स्पष्ट नहीं हुआ तो अर्द्धसैनिक बलों की जरूरत पड़ी। पुलिसकर्मी अधिक संख्या में क्यों नहीं भेजे जाते? राज्य सरकार अपने स्तर पर कार्य तो करे तो यह विवाद खत्म हो सकता है।
धु्रव कटोच- सुरक्षाबलों के परस्पर समन्वय का महत्व बहुत ज्यादा है यह बात समझनी होगी। इसके लिए संयुक्त कार्रवाई करनी होगी।
छोड़नी होगी हिचक : डर के आगे जीत है-प्रकाश सिंह
आज की तारीख में एक शहरी और दूसरा ग्रामीण क्षेत्र है। जहां पर प्रशासन की देखभाल नहीं है, वहां वनवासी सरकार के पास न जाकर माओवादी से संपर्क करता है।
सरकार की विफलता ही है कि वहां, आजादी के सात दशक बाद भी विकास न हो सका। सवाल यह है कि वहां तक क्यों नहीं पहंुचा गया? मैं अबूझमाड़ की सीमा तक गया, लेकिन वहां की पुलिस ने मुझे आगे नहीं जाने दिया, कहा कि सुरक्षा की जिम्मेदारी हम नहीं ले सकते हैं। लोग माउंट एवरेस्ट पर जा सकते हैं तो फिर अबूझमाड़ जाना संभव क्यों नहीं है? एक बार वर्चस्व होने के बाद पीछे क्यों हटते हैं?
क्यों नहीं होती चर्च की चर्चा?
नक्सली भय फैलाना चाहते हैं। इसके लिए हमें वनवासी समाज को सामर्थ्यवान बनाना होगा। पहले तो हम वनवासियों को राजनीति से दूर कर चुके हैं, केवल ऊपरी लोग ही राजनीति में सक्रिय हैं। इन लोगों से कोई संवाद नहीं है। क्या हम एक ऐसा कोई प्लेटफार्म संवाद का बना सकते हैं, जहां पर इन लोगों से संपर्क किया जा सके? रेडियो को वहां बढ़ावा दिया जाए, जो कि क्रिश्चियन मिशनरी कर रही हैं। नारायणपुर में चर्च के प्रति वनवासियों का रुझान बढ़ रहा है। चमत्कार बताकर बांटी जा रही अंग्रेजी दवाओं की पुडि़या से बीमारी ठीक हो रही है। गांव के गांव टुकड़ों में बंट रहे हैं। कन्वर्जन तेजी से बढ़ रहा है। — शुभ्रांशु चौधरी
माओवाद जब नेपाल में बढ़ा, उसकी कम चर्चा हुई। वहां कन्वर्जन वालों को करोड़ों रुपया विदेशों से आता है। नेपाल में चर्च ने बहुत बड़ी रकम माओवादियों को दी। चर्च आतंकवादी संगठनों को धन उपलब्ध करवाकर कन्वर्जन को बढ़ावा दे रहा है और पिछड़े इलाकों में खूब सक्रिय हो रहा है। वे सुनियोजित तरीके से अपनी योजना को अंजाम दे रहे हैं।
—विजय क्रांति
मैं जब नागालैण्ड में तैनात था तो देखा कि चर्च कन्वर्जन के लिए राशि मुहैया करवाता था।
—धु्रव कटोच
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