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हर देश की भौगोलिक एकजुटता का पैमाना होता है उसकी सीमाओं की मजबूती। भारत अगर कश्मीर से कन्याकुमारी तक और कच्छ से कामरूप तक एक सूत्र में बंधा रहा है तो उसके पीछे है हमारी सीमाओं पर सजगता और सीमान्त क्षेत्रों में बसे देशभक्त नागरिक। सीमाओं की सुदृढ़ता और सुरक्षा के लिए सेना और विभिन्न सुरक्षाबलों के जवान सन्नद्ध रहते हैं। पर कहीं कोई कसर भी बाकी है।
इस साल की शुरुआत हुई थी हमारे पठानकोट एयरबेस पर पाकिस्तान से आए आत्मघातियों के हमले से। 2 जनवरी को भारत की पाकिस्तान से सटी पश्चिमी सीमा से भारी-भरकम हथियार समेत घुसकर छह फिदायीन जिहादियों ने हमारी सुरक्षा पंक्ति में सेेंध लगाई थी। भारत राष्ट्र के विरुद्ध हुए उस हमले में देश ने अपने सात बहादुर जवानों को खो दिया। इसके ठीक अगले दिन, 3 जनवरी को पश्चिम बंगाल की बंगलादेश से सटी सीमा के एकदम पास मालदा जिले के कालियाचक में मजहबी उन्मादियों की भीड़ एक ऐसा बहाना ओढ़कर इकट्ठी हुई जो वक्त की रेत में दब चुका था।
कौन थे उस भीड़ में शामिल? वे थे उस कालियाचक क्षेत्र के युवा जो मजहब की 'आवाज' पर आ तो जुटे थे, लेकिन मकसद वह नहीं था जो सबको बताया गया था। आगे बात करने से पहले, उसे इलाके की भौगोलिक के साथ ही सामाजिक-आर्थिक स्थिति जान लेना उचित रहेगा।
मुस्लिम बहुल कालियाचक विकास की दृष्टि से अति पिछड़ा है, मगर कई लोग आपको बताएंगे कि यहां अफीम की गैरकानूनी खेती बेरोकटोक हो रही है। बंगलादेश सीमा पास होने से यहां घुसपैठियों की आड़ में असामाजिक और कट्टरवादी तत्वों के जमावड़े खुलेआम देखे जा सकते हैं। बगल के मुर्शीदाबाद जिले में मोटे तौर पर हर दूसरा व्यक्ति बंगलादेशी बताया जाता है। तो 3 जनवरी को ऐसे विभिन्न तत्वों की भारी भीड़ स्थानीय चौक पर जमा हुई और शुरुआती तकरीरों के बाद भीड़ ने जैसे पूर्व नियोजित एजेंडे के तहत वहां तैनात बीएसएफ के जवानों पर पथराव करना शुरू कर दिया। देखते ही देखते भीड़ उग्र हुई और हिन्दू बस्तियों में घरों और दुकानों को आग के हवाले कर दिया गया। मजहबी उन्मादी उस कालियाचक थाने को फूंकने के लिए बढ़ गए जहां राजनीतिक सरपरस्ती में पल रहे स्थानीय अपराधी तत्वों, मादक पदार्थों, हथियारों और गैर-कानूनी कारोबार करने वालों का कच्चा-चिट्ठा रखा हुआ था। सब जलाकर खाक कर दिया गया। बड़ा भारी उपद्रव खड़ा कर दिया गया, आतंक का ऐसा माहौल बनाया गया जिसमें पुलिस प्रशासन तक मूकदर्शक बना बैठा रहा।
आखिर उन उन्मादियों के हौसले इतने बुलंद कैसे हुए? डेढ़ लाख की भारी भीड़ पलक झपकते तो इकट्ठी नहीं हो गई होगी, नि:संदेह उसकी पूरी तैयारी की गई होगी, जिसके बारे में प्रशासन को भान होने के बावजूद कोलकाता में बैठे आकाओं ने उसे चुप्पी ओढ़ लेने का इशारा किया होगा।
क्षेत्र में 2011 की जनगणना के आंकड़े चौंकाने वाले हैं। सीमावर्ती मालदा के 12 विधानसभा क्षेत्रों में से छह का बीते 10 साल में मुस्लिम बहुल हो जाना जितना आश्चर्य पैदा करता है उतना ही सोचने पर भी विवश करता है।
पश्चिम बंगाल में 30 से ज्यादा साल के वामपंथी राज के बाद कुर्सी पर बैठीं ममता बनर्जी ने कम्युनिस्टों से दो कदम आगे जाकर वोट बैंक के समीकरण साधने में ज्यादा महारत दिखाई है। बंंगलादेश से लगातार थोक के भाव आ रहे घुसपैठियों को राशनकार्ड ही नहीं, नागरिकता पक्की करने की बाकी तमाम सहूलियतें भी आसानी से मिल जाती हैं। आने वाले विधानसभा चुनावों में एकमुश्त वोट की लालसा में देश की सुरक्षा तक से सौदा किया जा रहा है। अगर यह कहा जाए कि आज बंगाल के हालात वैसे ही बदतर होते जा रहे हैं जैसे विभाजन पूर्व थे तो यह बात सच से ज्यादा फासले पर न होगी। उस दौर में बंगाल के गांव मजहबी उन्माद की भेंट चढ़ते जा रहे थे, साम्प्रदायिकता चरम पर थी, चारों ओर हिंसा, आगजनी और मातम का मंजर था। बंग-भंग इसी पृष्ठभूमि में तो हुआ था।
ममता राज में आज बंगाल कराह रहा है। विडम्बना है कि केन्द्र के अनुदान से विकास की आस में रहने वाले राज्य देश की भौगोलिक अखंडता के बारे में केन्द्र सरकार जितने ही गंभीर और समर्पित होने चाहिए। लेकिन क्या पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी सरकार और असम की गोगोई सरकार बंगलादेशी घुसपैठ और जनसांख्यिकीय असंतुलन रोकने के प्रति गंभीर हैं? उसके जरिए देश की सुरक्षा में सेंध न लगने देने के प्रति चिंतित हैं? अपने राजनीतिक नफा-नुक्सान को देश की सुरक्षा के सामने दूसरा दर्जा देने को तैयार है? क्या वे सत्ता के लिए अल्पसंख्यक वोटों की इस दीवानगी से बाज आएंगे?
स्थिति कष्टकारी और चिंताजनक है। अगर राज्य स्वस्थ-सुगठित लोकतंत्र के घटक के नाते अपने कर्तव्यों से डिगें तो उसके निदान के कई उपाय हैं। देश की सुरक्षा से बढ़कर न कोई राजनीतिक नेता हो सकता है, न कोई राजनीतिक दल।
मालदा कुछ संकेत कर रहा है। उन्हें पहचानकर उचित कदम उठाए जाने चाहिए।
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