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पोप बेनेडिक्ट ने एक बार पादरियों की बैठक में कहा था-‘ऐसा लगता है लोगों को ईश्वर और ईसा की जरूरत नहीं है। तभी तो परंपरागत चर्च खत्म हो रहे हैं।’ पोप की बात में काफी सचाई है। कभी सारी दुनिया को ईसाइयत का पाठ पढ़ाने वाले पश्चिमी देशों में आज एक अजूबा हो रहा है-ईसाइयत ढह रही है। उसके पैरों तले से जमीन खिसकती जा रही है। इसका सबसे बड़ा सबूत यह है कि वहां चर्च जाने वालों की संख्या लगातार घट रही है। कुछ देशों में तो यह पांच प्रतिशत ही रह गई है। कुछ अर्सा पहले अमरीका के सुप्रसिद्ध आर्थिक अखबार ‘वॉल स्ट्रीट जरनल’ ने एक आलेख प्रकाशित किया था, शीर्षक था-‘यूरोप्स एम्पटी चर्च आॅन सेल’(यूरोप के खाली चर्च बिकाऊ हैं)।
दरअसल ईसाइयत पश्चिमी देशों के लिए एक ऐसी चीज बन गई है जिसका उनकी अपनी जिंदगी में न कोई अर्थ है, न उपयोग है। वह केवल तीसरी दुनिया के देशों में ‘निर्यात’ के लिए है। ठीक वैसे ही जैसे पश्चिमी देश पुरानी दवाइयों और ‘आउट आॅफ डेट’ तकनीक को तीसरी दुनिया के देशों में ‘डंप’ कर देते हैं। लेकिन ईसाइयत को खतरा किसी दूसरे पंथ से नहीं, वरन् अपने ही लोगों से है, जिनकी ईसाइयत में दिलचस्पी खत्म हो गई है। कुछ जानकार लोग कहते हैं कि एक और परिवर्तन आया है यूरोप और अमरीका के चर्च में। वह यह कि भले ही इस पंथ को पुरुषों ने ईजाद किया है, लेकिन आजकल चर्च में महिलाएं ही ज्यादा होती हैं। कुल मिलाकर वह महिला क्लब होते जा रहे हैं, जिनमें कुछ पुरुष अफसर भी हैं।
असलियत यह है कि आधुनिक लोग अब ईसाइयत से दूर जा रहे हैं, क्योंकि उनके लिए ईसाइयत निरर्थक है। एक लेखक ने कहा था-उत्तरी यूरोप तो चर्च का कब्रिस्तान है। इसलिए यूरोपीय देशों में चर्च खाली पड़े रहते हैं, जहां श्रद्धालु आते नहीं, उनकी कोई देखभाल भी नहीं करता। कई चर्च अब रिहायशी मकानों या अन्य कामों के लिए इस्तेमाल किये जा रहे हैं। कई चर्च गैर ईसाइयों को बेचे जा रहे हैं जहां वे अपने पूजास्थल या प्रार्थनाघर बना रहे हैं।
नीदरलैंड के अर्नहम शहर में कभी सेंट जोसफ चर्च हुआ करता था, वहां बड़ी भीड़ होती थी।1000 से भी ज्यादा ईसाई श्रद्धालु जुटते थे। अब उसका अर्नहम स्केट हाल के रूप में पुनर्जन्म हुआ है। ईसा के जीवन से जुड़े दर्जनों चित्रों और मूर्तियों के बीच वहां युवक स्केटिंग करते देखे जा सकते हैं।
यह तो पश्चिम यूरोप के उन सैकड़ों चर्चां में से एक का हाल है जो श्रद्धालुओं के न आने के कारण बंद हो चुके हैं या बंद होने की कगार पर हैं। इंग्लैंड से लेकर डेनमार्क तक के सभी देशों के सामने आज सवाल है कि श्रद्धालुओं के अभाव में वीरान होते जा रहे चर्चों का क्या करें। हकीकत यह है कि आखिरकार ऐसे चर्च बेचे जा रहे हैं। यूरोप में आज जगह-जगह खाली पड़े चर्चों को बेचा जा रहा है। कही मॉल बन गए हैं, कहीं दुकानें, कुछ गैर ईसाइयों को बेचे गए हैं जिन्होंने वहां अपने पूजास्थल बना लिए हैं। कई चर्चों में तो शराबघर भी खुल गए हैं। छोटे चर्चों को लोग घरों की तरह इस्तेमाल करने लगे हैं। वहां दरअसल खाली चर्चों के लिए ग्राहक खोजना अच्छा-खासा कारोबार बन गया है। इंग्लैंड और स्कॉटलैंड के चर्चों की बिक्री के विज्ञापन तो आॅनलाइन मिलने लगे हैं। एक चर्च के पादरी ने दु:खी होकर कहा, ‘हम चर्च की इमारत में कोई जुआघर नहीं बनने देना चाहते, उसे यौनाचार के सौदागरों के हाथों में नहीं जाने देना चाहते।’
पूर्वी यूरोप में पोलेण्ड एक बड़ा कैथोलिक देश है। वह भी अपने यहां चर्च में घटती उपस्थिति से परेशान है। खासकर पढ़े-लिखे युवा चर्च से दूर हो रहे हैं। पोलेण्ड सांख्यिकीय विभाग के मुताबिक 1987 में 53 प्रतिशत लोग चर्च जाते थे, यह आंकड़ा अब 40 प्रतिशत रह गया है। ज्ञात इतिहास में यह सबसे कम है।
चर्चों का इस तरह खाली होते जाना और फिर बिक जाना इस बात का प्रमाण है कि ईसाई मत अपने ही गढ़ों में अपना प्रभाव खोता जा रहा है। वॉल स्ट्रीट जरनल की सामाजिक सर्वेक्षण सांख्यिकी बताती है कि यूरोप में चर्च जाने वालों की संख्या घट चुकी है। ध्यान रहे, ईसाइयत में सामूहिक प्रार्थना में विश्वास किया जाता है, सप्ताह में एक बार चर्च जाना आवश्यक समझा जाता है।यह प्रर्चा ईसाइयत की नींव है। 2012 के आंकड़ों को देखें तो आज सप्ताह में एक बार चर्च जाने वाले ईसाई मतावलंबियों का प्रतिशत इस प्रकार है-आयरलैण्ड-48 प्रतिशत, इटली-39 प्रतिशत, नीदरलैण्ड-25 प्रतिशत, स्पेन-22 प्रतिशत, यूके-12 प्रतिशत, जर्मनी/फ्रांस-11 प्रतिशत और डेनमार्क-5 प्रतिशत।
नीदरलैण्ड के 1600 रोमन कैथोलिक चर्चों में से दो तिहाई के अगले दस वर्र्ष में बंद होने का अनुमान स्वयं रोमन कैथोलिक चर्च के नेतृत्व ने ही लगाया है। इसी प्रकार हॉलैण्ड के 700 प्रोटेस्टेंट चर्चों के भी अगले चार वर्ष में बंद होने का अनुमान है। जर्मनी के रोमन कैथोलिक चर्च ने 515 चर्च गत दशक में बंद किए हैं। 200 डैनिश चर्च अनुपयोगी हो चुके हैं। इंग्लैण्ड भी प्रतिवर्ष प्राय: 20 चर्च बन्द कर रहा है। ‘यही कहानी है सारे पश्चिम यूरोप के चर्चों की। यह संख्या इतनी बड़ी है कि सारे समाज को इसका सामना करना पडेÞगा’, यह कहना है ‘ग्रुट्सवेजर’ संस्था का, जो ईसाइयत की परम्परा को बचाने का काम करती है।
अमरीका के आर्थिक अखबार वॉल स्ट्रीट जरनल में कुछ दिन पहले छपे एक लेख में कहा गया है-‘अमरीका अभी भी बचा हुआ है। लेकिन वहां भी चर्च जाने वालों की संख्या तेजी से घट ही रही है। आने वाले वर्षों में अमरीका को भी इसी समस्या का सामना करना पड़ेगा।’ वॉल स्ट्रीट जरनल का लेख भले ही कुछ कहे, हकीकत यह है कि अमरीका और कनाडा भी इस मामले में पीछे नहीं हैं। यह बात अलग है कि वहां भी बडेÞ पैमाने पर चर्च बिक रहे हैं। पर उनके आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। वैसे अमरीका और कनाडा में भी चर्च बिकने के विज्ञापन कई जगह देखने को मिल जाते हैं। अमरीकी जनगणना ब्यूरो के दस्तावेजों से कई सनसनीखेज तथ्य उभरकर आते हैं। जैसे,
- हर साल 4000 चर्च अपने दरवाजे बंद करते हैं जबकि 1000 नए चर्च शुरू होते हैं।
- हर साल 27 लाख चर्च जाने वाले उदासीन हो जाते हैं। हमने अपने शोध में पाया कि उनको या तो कोई ठेस लगी है या उनका किसी तरह का शोषण या दुरुपयोग हुआ है अथवा उनके साथ दुर्व्यवहार किया गया है या इन लोगों के प्रति उदासीनता बरती गई है।
- अमरीका में 1990 से 2000 के बीच प्रोटेस्टेंट चर्चों की कुल सदस्यता 50 लाख कम हुई है, जबकि अमरीका की आबादी 2 करोड़ 40 लाख बढ़ी है।
इससे सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ है पादरी वर्ग। कभी एक चर्च में दो या तीन पादरी होते थे। अब एक भी नहीं होता। रविवार की प्रार्थना भी ‘विजिटिंग’ पादरी ही कराते हैं। इसलिए चर्चों के कई डायोसिस का पुनर्गठन किया जा रहा है। बात बिल्कुल साफ है कि लोगों की ईसाइयत में दिलचस्पी नहीं रही। उनके सवालों का कोई जवाब ईसाइयत के पास नहीं है। कभी पश्चिम यूरोप के हर गांव में एक और शहरों में तो बहुत से चर्च होते थे। चर्च अब भी हैं पर अब लोग उनमें नहीं फटकते। ईसाइयत अपना प्रचार करने के लिए कई तरह के नुस्खे अपनाती है, जैसे नर्क से बचाने और स्वर्ग में पहुंचाने के कल्पित वायदे। इनमें से एक है-‘आप भले पाप करें, पर ईसाइयत स्वीकार करने पर आपका स्वर्ग में स्थान आरक्षित हो जाएगा।’ अब जब विज्ञान तरक्की कर चुका है, इसलिए पढ़ी-लिखी जनता इसे स्वीकार करने में हिचकिचाती है। दरअसल उनके पास आज पृथ्वी पर ही दिल बहलाने के लिए काफी चीजें हैं जिनसे उनकी जिंदगी ही जन्नत हो गई है। इस कारण चर्च जाने वालों की संख्या लगातार घटती जा रही है। आज का बुद्धिमान ईसाई ऐसे झूठे वादों के झांसे में नहीं आता। नतीजतन उसका ईसाइयत में विश्वास घट रहा है। वैसे इसके अन्य कारण भी हो सकते हैं। विभिन्न मतों के अनुयायियों की संख्या के बारे में एक रपट में कहा गया है-2050 तक यूरोप में ईसाइयों की आबादी घटेगी, क्योंकि लोग अपने को ईसाई बताना बंद कर देंगे। वॉल स्ट्रीट जरनल में छपे लेख में तीन बिके हुए चर्चों के रंगीन फोटो भी छपे हैं। बिक चुके इन बड़े-बड़े चर्चों का उपयोग कैसे किया जा रहा है, इसका जरा अनुमान लगाइए। हम बताते हैं। ब्रिस्टल, इंग्लैण्ड का सेंट पॉल चर्च सर्कस प्रशिक्षण स्कूल बना हुआ है। ऊंची दीवारों के कारण उसे इस काम में लिया जा रहा है। दूसरा एडिनबर्ग का लूथेरन चर्च ‘फ्रेंकेस्टीन का बार’ बन चुका है। 19वीं शताब्दी का नीदरलैण्ड का अर्नहम चर्च कपड़ों की बड़ी सी दुकान बन गया है। पश्चिम यूरोप के देशों के चर्चों की वास्तुकला आकर्षण का केंद्र हुआ करती थी, वह सब अब गुजरे जमाने की बात बनती जा रही है। इन देशों में हर शहर में ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक महत्व की एक इमारत है, जिसका स्वामित्व चर्च के पास है। पर उसका उपयोग करने वाले श्रद्धालु ही नहीं हैं। सतीश पेडणेकर
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