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विष्णु यादव बिहार में राजनीतिक परिवर्तन के लिए लालायित हैं। चुनाव के संबंध में पूछने पर उन्होंने कहा, ‘देखिए, नरेन्द्र मोदी की यहां बहुत चर्चा है। अब जीतेंगे तब न।’ नीतीश कुमार के विकास पर उनकी प्रतिक्रिया चौंकाने वाली रही, कहा, विकास चार आना हुआ है, लेकिन हल्ला बारह आना है। सड़क की तरफ इशारा करते हुए उन्होंने कहा, यहां से भागलपुर 36 किलोमीटर है, लेकिन सड़क की हालत ऐसी है कि पहुंचने में तीने घंटे से अधिक का समय लगेगा। क्या यही विकास हुआ है? विष्णु यादव का गांव कटोरिया विधानसभा क्षेत्र में आता है। पहले चरण में जिन 49 सीटों पर मतदान हुआ है, उनमें कटोरिया एक मात्र अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीट है। यहां भारतीय जनता पार्टी से निक्की हेम्ब्रम चुनावी मैदान में हैं। इनका सीधा मुकाबला राष्टÑीय जनता दल की स्वीटी हेम्ब्रम से है।
कटोरिया विधानसभा क्षेत्र को लेकर स्थानीय लोगों की अलग-अलग राय है। एक तो यही है कि बांका जिले में कटोरिया की वही हालत है जो देश में बिहार की है। सामाजिक कार्यों में सक्रिय भोला यादव कहते हैं, ‘यहां रोज का जीवन संघर्ष का है। वहीं नक्सली बोलकर पुलिस भी जनता को परेशान करती है। पकड़कर जेल में डाल देती है।’ कटोरिया का अधिकांश इलाका पठारी है। यहां की 60 प्रतिशत आबादी जंगल के इर्द-गिर्द रहती है। अभी ज्यादातर गांवों तक बिजली नहीं पहुंच पाई है। हालांकि, राह चलते हुए कुछ गांवों में नए-नए ट्रांसफार्मर और बिजली के खंभे गड़े हुए दिखाई देते हैं। पूछने पर मालूम होता है कि कुछ महीने पहले ही ये सब लगाए गए हैं।
कटोरिया विधानसभा क्षेत्र में आने वाले बौंसी के एक सामाजिक कार्यकर्ता ने बताया कि यहां के कई गांव सड़क-विहीन हैं और 250 से अधिक गांवों में बिजली नहीं है। यहां के लोग प्रशासन पर एक गंभीर आरोप लगाते हैं। उनकी मानेें तो पुलिस नक्सली बताकर जब-तब युवकों को पकड़ती रहती है। इससे लोगों में भय का वातावरण बना रहता है। इन स्थितियों से उबरने के लिए लोग परिवर्तन चाहते हैं। स्मरण रहे कि नक्सल प्रभावित इस क्षेत्र में 58 प्रतिशत से अधिक मतदान हुआ है। इनमें युवाओं और महिलाओं की संख्या अधिक है। कटोरिया से लगा बेलहर विधानसभा का क्षेत्र 60 किलोमीटर से भी बड़े इलाके में फैला है। स्थानीय प्रशासन के मुताबिक यह भी नक्सल प्रभावित क्षेत्र है। इसके बावजूद यहां 50 प्रतिशत के आस-पास मतदान हुआ। समर्थकों का उत्साह मतदान के बाद भी दिखता है। बेशक बांका बिहार के अति पिछड़े जिलों में एक है, लेकिन बातचीत में यहां के लोग बदलाव के प्रति आशावादी लगते हैं।
खैर, इस चुनाव में किशनगंज विभिन्न कारणों से दिलचस्पी का केंद्र बना हुआ है। स्थानीय पत्रकार गिरीन्द्र बताते हैं, 16 अगस्त को पहली बार किशनगंज में असद्दुदीन ओवैसी का भाषण हुआ था। इसके बाद प्रदेश के सीमांचल इलाके में ओवैसी ने अपनी गतिविधि बढ़ा दी। मुस्लिम बहुल जिले के पिछड़ेपन के लिए ओवैसी राज्य सरकार को निशाने पर ले रहे हैं। साथ ही उन्होंने नीतीश कुमार और लालू प्रसाद पर मुसलमानों को वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करने का आरोप लगाया है। वैसे भी आशंका बनी हुई है कि ओवैसी की गतिविधियां नीतीश-लालू गठबंधन को काफी नुकसान पहुंचा सकती हैं। मुसलमान लीक से हटकर वोट कर सकते हैं। 2010 के विधानसभा चुनाव में किशनगंज, अररिया, पूर्णिया और कटिहार जैसे इलाकों में नीतीश कुमार की पार्टी जदयू ने अधिकतर सीटें जीती थीं। इस बार हवा बदली हुई है। इलाके में विकास मुद्दा बना हुआ है। यदि सीमांचल में ओवैसी अपना कुछ भी प्रभाव दिखा पाए तो इसका असर पटना तक दिखेगा, यह तय है।
इस चुनाव की सबसे अहम बात यह है कि मुसलमान बिरादरी लालू प्रसाद, नीतीश कुमार और सीधे-सीधे कांग्रेस आलाकमान पर अंगुली उठाने लगी है। बिहार के मुसलमान कह रहे हैं कि नीतीश कुमार और लालू प्रसाद 1989 के भागलपुर दंगे की चर्चा कर अपना उल्लू सीधा करते रहे हैं, लेकिन उन्होंने कभी मुसलमानों की जरूरतों का ख्याल नहीं किया। फिलहाल सीमांचल के चुनाव पर आक्रामक राजनीतिक रंग नहीं चढ़ा है। हालांकि, करीब दो महीने पहले से विभिन्न दलों के कार्यकर्ता पूरे सीमांचल में सक्रिय हैं। बड़े नेताओं के आने-जाने का दौर लगा हुआ है, लेकिन स्थानीय जनता चुप है। वह अपना मुंह नहीं खोल रही है। हां, इतना सवाल जरूर करती है- नीतीश बाबू किससे डराना चाहते हैं? हालांकि, सीधे सवाल पर मुस्लिम बिरादरी सहज नहीं दिखती है। क्या आप नरेन्द्र मोदी को वोट देंगे? इस पर वे साफ-साफ कुछ नहीं बोलते हैं, लेकिन यह साफ है कि अब वे सेकुलर राजनीति के र्इंधन के तौर पर इस्तेमाल होने के लिए तैयार नहीं हैं। वैसे दादरी के बिसहड़ा गांव की घटना की चर्चा किशनगंज और उसके निकटवर्ती इलाकों में सुनी जाने लगी है। अब देखना है कि इस चर्चा का वोट पर कितना असर होता है? हालांकि, युवा अनवर बताते हैं, सीमांचल में मुद्दा विकास का है।
वैसे बिहार के विभिन्न जिलों में घूमते हुए यह अंदाजा कोई भी लगा सकता है कि पारंपरिक मतदाताओं के टूटने और जुड़ने की प्रक्रिया गुप-चुप तरीके से चल रही है। जगह-जगह समूह में बैठे लोग चुनावी बातें करते हुए मिले। बिहार की हवा को जो लोग जानते-पहचानते हैं, वे बताते हैं, ग्रामीण इलाके की जनता उम्मीदवारों को नाप-तौल रही है। झंझारपुर विधानसभा के निवासी नरेश कुमार कहते हैं, ‘यहां से भाजपा की जीत पक्की लग रही है। पहले लग रहा था कि जोर हल्का हो गया है, लेकिन मोदी की रैलियों में आने वाली भीड़ को देखकर कोई भी यही कहेगा कि यह केसरिया लहर है। खासकर, युवाओं के बीच। निश्चित रूप से वे चुनाव को प्रभावित कर रहे हैं।’
शायद यही वजह है कि बिहार चुनाव में भाजपा के जो बैनर दिखाई दे रहे हैं उन पर केवल नरेन्द्र मोदी की तस्वीरें हैं। पटना शहर ऐसे बैनरों से पटा पड़ा है। उन पर लिखा है, ‘बिहार के विकास में अब नहीं बाधा, मोदी ने दिया है वादे से ज्यादा।’ वहीं जनता दल यूनाइटेड का नारा कम तीखा नहीं है। इनका नारा है, ‘झांसे में नहीं आएंगे, नीतीश को जिताएंगे।’
दरअसल, अपने प्रचार अभियान और पोस्टरबाजी में भाजपा और जदयू एक-दूसरे से कम नहीं हैं। भारतीय जनता पार्टी से जुड़े अनेक युवा अत्याधुनिक तकनीक का इस्तेमाल कर प्रचार अभियान को आगे बढ़ा रहे हैं। हालांकि, महागठबंधन का केंद्र बिंदु बदल गया है। अब नीतीश कुमार पीछे हैं। लालू प्रसाद महागठबंधन का चेहरा बनकर उभर आए हैं। वे लगातार चुनावी मुद्दा बदलने की कोशिश कर रहे हैं।
बिहार की राजनीति को लंबे समय से जो लोग देख रहे हैं, वे बताते हैं, लालू प्रसाद इसी अंदाज में 1995 और 2000 का विधानसभा का चुनाव जीत चुके हैं। इस बार भी उसी रणनीति पर चल रहे हैं। वे अपनी जाति के मतदाताओं को उकसा रहे हैं। क्या यादव मतदाताओं में फूट हो रही है? इसके जवाब में मधुबनी के मनोज यादव कहते हैं, ऐसा लग रहा है कि यादव बिरादरी का युवा वर्ग पूरी तरह लालू प्रसाद के साथ नहीं है। स्मरण रहे कि कोसी क्षेत्र में पप्पू यादव अपना जनाधार फैलाने की गंभीर कोशिश कर रहे हैं। यह माना जा रहा है कि इसका सीधा असर लालू प्रसाद की पार्टी राष्टÑीय जनता दल को होगा। भागलपुर के सुंदरवती महिला महाविद्यालय से पढ़ाई कर रही पूर्णिया की विभा की चिंता दूसरी है। वे कहती हैं, नैतिक रूप से लालू प्रसाद को चुनाव प्रचार नहीं करना चाहिए, लेकिन वे अपने बेटे और पार्टी के लिए वोट मांग रहे हैं। हम लोग किताबों में ही पढ़ते हैं कि ऊंचे आदर्श स्थापित करने वाले राजनेता हुए हैं, लेकिन देखा तो नहीं है। आगे वे कहती हैं, हमें जिनकी बातें तर्कसंगत और अच्छी लगेंगी, हम उन्हें वोट देंगे।
बिहार के चुनावी माहौल पर पूर्व मंत्री व सांसद जनार्दन यादव ने जो बात कही, वह महत्वपूर्ण है। वे कहते हैं, यादव अधिक दिनों तक किसी को बर्दाश्त नहीं करता है। यह उसकी प्रवृत्ति है। इसलिए कोई समझता है कि यादव मात्र होने से वह इस बिरादरी का पूरा वोट प्राप्त कर लेगा, तो वह भूल कर रहा है। वे आगे कहते हैं, लालू प्रसाद जिस क्षेत्र से जुड़े हैं, वहां यादवों का वोट उन्हें मिल सकता है, लेकिन वे पूरे बिहार पर दावा कर रहे हैं तो गलती कर रहे हैं। वे मानते हैं कि आज बिहार चुनाव भिन्न परिस्थिति में लड़ा जा रहा है। यहां मुद्दे बदल गए हैं और सभी जातियों ने अपनी हैसियत बना ली है। वह अपने-अपने तरीके से सत्ता में भागीदारी प्राप्त कर रही हैं। क्या बिहार चुनाव में जाति महत्वपूर्ण नहीं है? इसके जवाब में वे कहते हैं, निश्चित रूप से जाति का महत्व है, लेकिन स्थानीय स्तर पर है। बिहार के विभिन्न जिलों में घूमते हुए इस बात का आभास हुआ कि यादव बिरादरी का एक वर्ग नए नेतृत्व की तलाश में है। वह पुराने से खिन्न है।
युवाओं की तरह किसान भी परेशान हैं। पिछले मौसम में गेहूं खरीद के साथ जो उलट-फेरी हुई थी उसे वे भूल नहीं पाए हैं। वे सरकार को संदेह की निगाह से देख रहे हैं। वहीं धान की सूखती फसल उनकी कठिनाई बढ़ा रही है। परशुराम राय ने कहा, ‘लोग नीतीश कुमार को ‘विकास पुरुष’ कहते हैं, लेकिन किसानों का कोई विकास नहीं हुआ। इन दिनों कम बारिश हो रही है। किसान अपनी धान की फसल को जिंदा रखने की जद्दोजहद में लगे हैं। वे अपनी फसल की चिंता करें या बड़बोले राजनेताओं की। चुनाव जिस दिन होगा उस दिन वोट कर आएंगे। पहले से कुछ नहीं कहा जा सकता है।’
विधानसभा चुनाव में पटना से लेकर दिल्ली तक विकास के दावे और वादे खूब किए जा रहे हैं, लेकिन जनता उन बातों को हंसी में उड़ा रही है। एक तरफ वह नीतीश कुमार को शंका की नजर से देख रही है, वहीं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से पुराने वादों के विषय में जानने की इच्छा भी रखती है। जमुई विधानसभा क्षेत्र में विमल कुमार से बात हुई तो वे सवालिया लहजे में बोले, नीतीश कुमार की बात समझ में नहीं आती है। वे लालू यादव के साथ रहेंगे और विकास भी करेंगे। यह कैसे संभव है? प्रदेश के युवाओं की नजर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की गतिविधियों पर है। वे इनके हाव-भाव को जानने, समझने की कोशिश में जुटे हैं।
आश्चर्य है कि इस चुनाव में कांग्रेस पार्टी का कहीं कोई नाम लेने वाला भी नहीं मिला। बैनरों के लिहाज से राजद का चुनावी अभियान भी फीका है। यह बात दूसरी है कि लालू यादव महागठबंधन की धुरी बने हुए हैं। वामपंथी दल भी बड़ी तैयारी के साथ चुनावी मैदान में हैं। वामपंथी अपने कैडर मतदाताओं के साथ संवाद स्थापित करने की कोशिश में जुटे हैं। यदि वे इस काम को पूरा करने में सफल रहे तो उनका वोट प्रतिशत बढ़ सकता है।
तीसरे गठबंधन के रूप में सपा जहां-तहां महागठबंधन को कमजोर कर रही है। इस राजनीतिक घमासान को बिहार की जनता थोड़ी दूरी बनाकर देख रही है। वह आखिरी वक्त में भी चुप है। वह अपने स्वभाव से अलग व्यवहार कर रही है। इससे रहस्य बना हुआ है। मतलब साफ है वह परिणाम चौंकाने वाले देगी। ब्रजेश कुमार झा
प्रथम चरण में टूटीं जाति की सीमाएं
इन दिनों बिहार में हो रहे चुनाव में एक खास बात यह देखी जा रही है कि पुरुषों की अपेक्षा महिलाएं अधिक मतदान कर रही हैं। 12 अक्तूबर को सम्पन्न हुए मतदान में 59.5 प्रतिशत महिलाओं और 54.5 प्रतिशत पुरुषों ने वोट डाले। सबसे ज्यादा मतदान खगड़िया जिले में हुआ। कभी ‘बिहार का लेनिनग्राद’ कहे जाने वाले बेगूसराय में 59 प्रतिशत मतदान हुआ। लक्खीसराय और मुंगेर जैसे नक्सल प्रभावित जिलों में भी महिलाओं ने खुलकर मतदान किया। माना जा रहा है कि महिलाओं को मतदान केन्द्र तक खींचने में ‘प्रधानमंत्री जनधन योजना’, ‘प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना’ जैसी योजनाओं की अहम भूमिका है। वहीं युवा मतदाता भी जाति के बंधन से ऊपर उठकर मतदान कर रहे हैं। गत लोकसभा चुनाव में जो लोग नीतीश की तारीफ कर रहे थे अब वे लोग उन्हें कोस रहे हैं। नीतीश को लालू के साथ जाने से जितना फायदा नहीं हुआ उससे अधिक नुकसान होता दिख रहा है। नीतीश से अधिक सुर्खियां लालू बटोर रहे हैं। हालांकि लालू के परिवारवाद ने उन्हें यादव मतों से भी कुछ दूर कर दिया है। यादव बहुल मनेर, राघोपुर समेत कई विधानसभा क्षेत्रों में इसकी आहट सुनाई पड़ रही है। बिहार में चुनाव को लेकर कई सर्वेक्षण हुए। ‘पेस’ नामक संस्था ने जो रपट प्रस्तुत की है वह सबसे हटकर है। इसके अनुसार बिहार में भाजपानीत राजग की सरकार बनेगी। रपट के अनुसार नीतीश के लालू से हाथ मिलाने पर 53 प्रतिशत लोगों ने माना कि चुनाव में इसका नकारात्मक असर पड़ेगा।
वैसे तो नीतीश कुमार ने पंचायत में पचास प्रतिशत सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित कर एक नया मार्ग दिखाया। महिला शक्ति को पहचान कर नीतीश ने महिलाओं को अनेक प्रलोभन भी दिखाया है। लेकिन नीतीश और लालू के एक साथ आने से महिलाएं अपनी सुरक्षा को लेकर चिन्तित दिख रही हैं। उन्हें लालू-राबड़ी राज के वे दिन याद आने लगे हैं जब राजधानी पटना में भी महिलाएं सुरक्षित नहीं थीं। यही कारण है कि इस चुनाव में महिलाएं बढ़-चढ़कर भाग ले रही हैं। पटना से संजीव कुमार
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