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कैसा लगेगा जब कोई ग्राहक किसी दुकानदार से चीनी मांगे और दुकानदार उसे बार-बार यह बताये कि उसकी दुकान पर कोयला नहीं बिकता है। यही हो रहा है जम्मू-कश्मीर के उच्च न्यायालय में जहां याचिका किसी भी मामले में लगाई जाये, फैसला आता है कि भारतीय संविधान का अनुच्छेद 370 स्थायी है और उसे हटाना नामुमकिन है।
न्यायमूर्ति हसनैन मसूदी और न्यायमूर्ति राज कोतवाल की खंडपीठ ने अपने 60 पृष्ठों के फैसले में कहा, ‘अस्थायी प्रावधान के शीर्षक के तौर पर खण्ड 21 में अस्थायी, परिवर्तनकारी और विशेष उपबंधों के शीर्षक से शामिल किया गया अनुच्छेद 370 संविधान में स्थायी जगह ले चुका है’। पीठ ने कहा कि इस अनुच्छेद को संशोधित नहीं किया जा सकता, हटाया नहीं जा सकता या रद्द नहीं किया जा सकता, क्योंकि देश की संविधान सभा ने उसे भंग किए जाने से पहले इस अनुच्छेद को संशोधित करने या हटाए जाने की अनुशंसा नहीं की थी।
यह ठीक है कि राज्य की संविधान सभा अनुच्छेद 370 की समाप्ति अथवा संशोधन की सिफारिश किये बिना भंग हो गयी है, किन्तु उसकी सिफारिश पर जिस राष्टÑपति को आदेश जारी करना था वह संस्था मौजूद है। निर्णय राष्टÑपति को करना है और उसके लिये कोई समय सीमा निर्धारित नहीं है। राष्टÑपति जब चाहें तब फैसला ले सकते हैं। इसी प्रकार, संसद को संविधान के मूलढांचे को छोड़ अन्य सभी प्रावधानों में संशोधन करने का अधिकार है और अनुच्छेद 370 निश्चित रूप से मूल ढांचे का हिस्सा नहीं है।
न्यायालय के सामने एक सरल सा प्रश्न था-अनुसूचित जाति के राजकीय कर्मचारियों की पदोन्नति में आरक्षण लागू होना चाहिये अथवा नहीं। जम्मू काश्मीर आरक्षण अधिनियम 2004 तथा आरक्षण नियमावली 2005 के आधार पर राज्य सरकार के कुछ कर्मचारियों को आरक्षण का लाभ देते हुए पदोन्नति दी गयी जिससे वे वरिष्ठता क्रम में उनसे ऊपर पहुंच गये जिनसे भर्ती के समय वे कनिष्ठ थे। पीड़ित पक्ष ने न्यायालय के सम्मुख याचिका दायर की। याचिकाकर्ताओं के अधिवक्ताओं ने यह तर्क दिया कि 2004 का अधिनियम संघीय संविधान के 77वें संविधान संशोधन के आधार पर लाया गया है जिसे राष्टÑपति के आदेश द्वारा राज्य में लागू नहीं किया गया है। प्रतिवादियों का तर्क था कि जब मूल अधिनियम राज्य में लागू है तो उसके संशोधन को स्वत: लागू मानना चाहिये। न्यायालय को इस पर फैसला देना था कि दोनों में से कौन सा मत विधिसम्मत है और राज्य में पदोन्नति में आरक्षण की सुविधा लागू होने योग्य है अथवा नहीं।
इस मतभिन्नता की पृष्ठभूमि में 16 नवम्बर 1992 को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इन्द्रा साहनी व अन्य बनाम भारतीय संघ मामले में सुनाया गया निर्णय है। इस वाद की जड़ें मंडल कमीशन तक जाती हैं जिसकी रिपोर्ट लागू किये जाने के विरुद्ध यह याचिका दायर की गयी थी। 1977 और 1989 में क्रमश: जनता पार्टी और जनता दल ने इसे लागू करने का प्रयास किया, किन्तु परिणाम तक पहुंचने से पहले ही दोनों बार जनता सरकारों का पतन हो गया। 1992 में तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंहाराव ने राजनैतिक निर्णय लेते हुए पदोन्नति में आरक्षण सुनिश्चित करने वाले प्रावधान 77वें संविधान संशोधन विधेयक के माध्यम से जोड़कर इन्द्रा साहनी केस में दिये सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को निष्प्रभावी कर दिया। जम्मू-कश्मीर राज्य के संदर्भ में अनुच्छेद 16 यद्यपि प्रभावी है किन्तु 77वें संविधान संशोधन को राज्य में लागू करने के लिये राष्टÑपति द्वारा किया जाने वाला आदेश जारी नहीं किया गया। इसी के आधार पर याचिकाकर्ताओं ने प्रोन्नति में आरक्षण को चुनौती दी। उनका तर्क था, चूंकि 77वां संशोधन राज्य में लागू नहीं है इसलिये इन्द्रा साहनी मामले में दिया सर्वोच्च न्यायालय का फैसला वहां लागू होता है।
सबसे पहले यह मामला न्यायमूर्ति धीरज सिंह ठाकुर की एकल पीठ के सम्मुख प्रस्तुत हुआ जिन्होंने इसे जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को इस निवेदन के साथ सौंपा कि वाद के महत्व को देखते हुए इसे बड़ी खंडपीठ को सौंपा जाय। मुख्य न्यायाधीश ने इसे न्यायमूर्ति हसनैन मसूदी और न्यायमूर्ति जनकराज कोतवाल की खण्डपीठ को भेजा। न्यायमूर्ति धीरज सिंह ने वाद को केन्द्रित करते हुए कहा कि-क्या इन्द्रा साहनी बनाम संघ के वाद में सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय, जो प्रोन्नति के मामले में आरक्षण का निषेध करता है, जम्मू-कश्मीर आरक्षण अधिनियम 2004 तथा उसके प्रकाश में बनाये गये नियम भारतीय संविधान के अनुच्छेद 16(4ए) के लागू न होने की स्थिति में जम्मू-कश्मीर राज्य में प्रवर्तित हो सकता है? खण्डपीठ ने वाद को बहुआयामी मानते हुए समाधान के लिये निम्न प्रश्नों को इस परिधि में जोड़ा-
1़ राज्य के लिये संविधान सभा का गठन और पृथक संविधान की रचना क्यों की गयी जबकि अन्य किसी भी रियासत, जिसका भारत में विलय हुआ, में ऐसा नहीं हुआ? 2़ अन्य राज्यों की भांति भारतीय संविधान के सभी प्रावधान और समय-समय पर उनमें होने वाले संशोधन जम्मू-कश्मीर में लागू क्यों नहीं होते हैं? 3़ क्या भारतीय संघ में अधिमिलन के उपरान्त संघीय संविधान के अनुच्छेद1और प्रथम अनुसूची में शामिल किये जाने के पश्चात भारतीय संविधान के राज्य में लागू प्रावधानों में होने वाले संशोधन भी स्वत: लागू हो जाते हैं? 4़ क्या राज्य की संविधान सभा द्वारा राज्य के संविधान निर्माण के पश्चात, एक अस्थायी प्रावधान के रूप में अनुच्छेद 370 की शक्तियां समाप्त हो जाती हैं, और राज्य में लागू होने वाले संविधान के प्रावधानों को राष्टÑपति संशोधित नहीं कर सकते? 5़ क्या अनुच्छेद 370 के खण्ड1 को उपखण्ड(डी) राज्य में लागू होने वाले संघीय संविधान के प्रावधानों में लघु संशोधनों और परिवर्तनों तक सीमित करता है तथा बदलने, जोड़ने, विलोपित करने तथा निरस्त करने से रोकता है?
निश्चित रूप से खण्डपीठ को यह अधिकार है कि वह तय करे कि अपने निर्णय तक पहुंचने के लिये किन प्रश्नों पर विचार करना आवश्यक समझती है। लेकिन यह प्रश्न पीठ के सम्मुख उपस्थित याचिका के निस्तारण के लिये हों, यह स्वाभाविक रूप से अपेक्षित है। संदर्भित निर्णय में पीठ अपने निर्णय का दो-तिहाई भाग यह स्थापित करने के प्रयास में लगाती है कि अनुच्छेद 370 किस प्रकार स्थायी रूप ग्रहण कर चुका है। इस प्रयास में अनेक स्थानों पर वह अपने मत की पुष्टि के लिये तत्कालीन राजनेताओं के बयानों को भी प्रमाण के रूप में प्रस्तुत करती है।
पीठ के सम्मुख विचारार्थ प्रश्न था कि समानता के आधिकार से सम्बंधित प्रावधानों में जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में राष्टÑपति का आदेश आवश्यक है अथवा यह अन्य राज्यों की भांति स्वत: लागू होता है। याची ने इसे स्वत: लागू मानते हुए संरक्षण की मांग की थी जिसे पीठ ने निरस्त कर दिया। पीठ ने कहा कि चूंकि 77वें संविधान संशोधन को जम्मू-कश्मीर में लागू करने संबंधी आदेश राष्टÑपति महोदय द्वारा जारी नहीं किया गया इसलिये इन्द्रा साहनी का निर्णय राज्य में आज भी प्रभावी है। इसलिये अनुसूचित जाति और जनजाति के लिये प्रोन्नति में आरक्षण का लाभ दिया जाना संभव नहीं है।
उसके सम्मुख अनुच्छेद 370 के स्थायी अथवा अस्थायी दर्जे का प्रश्न था ही नहीं, फिर भी इस प्रश्न पर विचार के लिये पीठ द्वारा व्यय की गयी समय और ऊर्जा से ये संकेत मिलते हैं कि पीठ की रुचि इस वाद के माध्यम से कुछ अन्य मुद्दों और लोगों को भी संबोधित करने में थी। यह संकेत तब और अधिक उभर कर आता है जब इसे एक अन्य खण्डपीठ द्वारा भूपेन्द्र सिंह सोढ़ी बनाम यूनियन आॅफ इंडिया और संतोष गुप्ता बनाम यूनियन आॅफ इंडिया मामलों में दिये गये निर्णय के साथ रख कर देखते हैं। इस वाद में भी पीठ ने अनुच्छेद 370 के स्थायी होने और उसके कारण संसद के सीमित अधिकारों को सिद्ध करने में काफी श्रम खर्च किया था। क्या कारण है कि वहां की खण्डपीठें बार-बार राज्य की विशेष स्थिति की समीक्षा करने का अवसर ढ़ूंढती हैं?
अनुच्छेद 370 भारतीय संविधान के 21वें भाग में समाविष्ट है जिसका शीर्षक है-अस्थायी, परिवर्तनीय और विशेष प्रावधान। अनुच्छेद 370 के शीर्षक के शब्द हैं-जम्मू-कश्मीर के संबंध में अस्थायी प्रावधान। उल्लेखनीय है कि संविधान के 21वें भाग का शीर्षक प्रारंभ में अस्थायी तथा अंत:कालीन उपबंध था। 1962 में 13वां संविधान संशोधन लाकर शीर्षक में विशेष प्रावधान शब्द जोड़ा गया। लेकिन फिर भी अनुच्छेद 370 के साथ अस्थायी प्रावधान शब्द जुड़ा रहा, क्योंकि विशेष प्रावधान जम्मू-कश्मीर के लिये न होकर नागालैंड के लिये प्रयोज्य था। इससे यह तथ्य भी स्पष्ट होता है कि न केवल 1949 में, जब अनुच्छेद 370 संविधान का भाग बना, संविधान निर्माताओं की मंशा इस प्रावूधान को अस्थायी तौर पर शामिल करने की थी, बल्कि 1962 तक भी इसमें कोई परिवर्तन नहीं आया था। यदि तत्कालीन सरकार अथवा संसद की मंशा इसे स्थायी बनाने की होती तो इसे भी संशोधन में शामिल किया जाता। उल्लेखनीय यह भी है कि दोनों ही अवसरों पर संसद में जम्मू-कश्मीर के प्रतिनिधि मौजूद थे। 1949 में जब इसे अस्थायी प्रावधान के रूप में संविधान में शामिल किया गया तब तो स्वयं शेख अब्दुल्ला भी संविधान सभा के सदस्य थे।
तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 21 अगस्त 1962 में जम्मू-कश्मीर के एक प्रतिष्ठित लेखक पं. प्रेमनाथ बजाज को 21 अगस्त 1962 को लिखे पत्र में कहा-वास्तविकता तो यह है कि संविधान का यह अनुच्छेद, जो जम्मू-कश्मीर राज्य को विशेष दर्जा दिलाने का कारण बताया जाता है, उसके होते हुए भी कई अन्य बातें की गयी हैं और जो कुछ किया जाना है, वह भी किया जायेगा। मुख्य सवाल तो भावना का है, उसमें दूसरी और कोई बात नहीं है। इससे यह स्पष्ट है कि नेहरू के मन में भी यह भाव था कि राज्य की शेष देश के साथ यह दूरी क्रमश: समाप्त होगी।
तकनीकी और विधिक बातों से इतर, यह भी ध्यान देना होगा कि राज्य के जिन निवासियों के नाम पर यह सब किया जाता है उन्हें इसका कितना लाभ है। अंतत: कोई कानून नागरिकों की सुरक्षा और विकास के हेतु से ही बनाया और लागू किया जाता है। जम्मू-कश्मीर का आम नागरिक अनुच्छेद 370 की आड़ में लागू किये गये प्रावधानों का बंधक है, पीड़ित है। वह विकास की मुख्यधारा से दूर है। देश के अन्य सभी नागरिकों को सहज उपलब्ध संवैधानिक अधिकारों से वंचित है। अनुच्छेद 370 के अंतर्गत पनपी राजनैतिक व्यवस्था लाखों लोगों के हितों की कीमत पर मुट्ठी भर लोगों के निहित स्वार्थों को पूरा करने का जरिया बन गयी है। वही लोग हैं जो इस दूरी को बनाये रखना चाहते हैं और स्थिति में बदल आने की संभावना से ही कांप उठते हैं।
श्री जगमोहन, जिन्होंने जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल रहते हुए वहां की प्रशासनिक और राजनैतिक व्यवस्था को अत्यंत निकट से देखा है, अनुच्छेद 370 के दुरुपयोग के संबंध में लिखते हैं-अनुच्छेद 370 इस स्वर्ग रूपी राज्य में केवल शोषकों को ही समृद्ध करने का साधन है। यह सत्ताधारी कुलीनों की जेबें भरता है। संक्षेप में यह एक ऐसे भू-क्षेत्र की रचना करता है जहां न्याय नहीं है और जो अपरिपक्वताओं तथा अंतर्विरोधों से भरा है। यह अनुच्छेद धोखे, दोहरेपन और जनोत्तेजना की राजनीति को बढ़ावा देता है। दो-राष्टÑ धारणा की हानिकारक विरासत को जीवित रखने में सहयोग देता है। एक भारत के विचार और कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक के महान सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण की हत्या करता है।
सामान्य जनता को यह समझने ही नहीं दिया जाता कि दरअसल 370 उन्हें पनपने ही नहीं दे रहा है, न्याय नहीं मिल रहा है और आर्थिक विकास में उनकी भागीदारी से भी उन्हें दूर रख रहा है। आज देश की राजनीति अनुसूचित जाति, जनजाति, पिछड़ा वर्ग, महिला, वंचित आदि मुद्दों के इर्द-गिर्द घूम रही है। देश यह स्वीकार कर चुका है कि समाज की कमजोर कड़ी को ताकत दिये बिना देश की विकास यात्रा पूरी कर पाना संभव नहीं है। ऐसी स्थिति में किसी एक राज्य में इन वर्गों के साथ जिस प्रकार का भेद-भाव हो रहा है वह किसी भी सभ्य समाज में अस्वीकार्य होना चाहिये। दुर्भाग्य से उन वर्गों के प्रतिनिधित्व की दावेदारी करने वाले भी जम्मू-कश्मीर के सवाल पर मौन साध लेते हैं। लोकतांत्रिक और मानवीय मूल्यों का तकाजा है कि अब यह जड़ता टूटनी ही चाहिये। आशुतोष भटनागर
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