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गत दिनों नेहरू-गांधी परिवार की रिश्तेदार व अंग्रेजी लेखिका नयनतारा सहगल ने सांस्कृतिक विविधता पर बढ़ रहे खतरे का हवाला देते हुए अपना साहित्य अकादमी पुरस्कार वापस करने की घोषणा कर दी। इसके लिए सहगल ने प्रतीक चुना दादरी में हुई घटना को। 29 वर्ष पूर्व दिल्ली में सिख नरसंहार के बाद और 1989 के भागलपुर दंगों से पहले 1986 में यह पुरस्कार उन्होंने लिया था। तबसे लेकर अबतक उन्हें यह लौटाने का माकूल अवसर नही मिला या वे पूर्वाग्रह से ग्रसित कोई अवसर तलाश रही थीं, इसपर काफी बहस हो चुकी है। अगर वाकई उन्हें सांस्कृतिक विविधता की इतनी चिंता थी तो वे 2015 से बहुत पहले ज्यादा माकुल मौका पुरस्कार वापसी के लिए चुन सकती थीं। खैर, सहगल से यह सिलसिला शुरू हुआ फिर कुछ और नाम जुड़ते गए। पुरस्कार वापसी की इन सिलसिलेवार घटनाओं को कई नजरिये से देखा जा रहा है। प्रख्यात आलोचक डॉ. नामवर सिंह इसे प्रचार पाने का जरिया बता रहे हैं तो कई लोग इसे भाजपा सरकार को बदनाम करने की एक संगठित साजिश बता रहे हैं। एक बयान में प्रो़ नामवर सिंह ने कहा है, 'लेखकों को साहित्य अकादमी के पुरस्कार नहीं लौटाने चाहिएं, बल्कि उन्हें सत्ता का विरोध करने के और तरीके अपनाने चाहिएं, क्योंकि साहित्य अकादमी लेखकों की अपनी निर्वाचित संस्था है। लेखक अखबारों में सुर्खियां बटोरने के लिए इस तरह पुरस्कार लौटा रहे हैं। उन्होंने कहा कि मुझे समझ में नहीं आ रहा कि लेखक क्यों पुरस्कार लौटा रहे हैं। अगर उन्हें सत्ता से विरोध है तो साहित्य अकादमी पुरस्कार नहीं लौटाने चाहिएं, क्योंकि अकादमी तो स्वायत्त संस्था है और इसका अध्यक्ष निर्वाचित होता है। चूंकि यहां गंभीर प्रश्न यह उठ रहा है कि साहित्य अकादमी जैसी स्वायत्त संस्था से मिला सम्मान वापस करने का पाखंड रचने वाले साहित्यकार उन पुरस्कारों को क्यों नही वापस कर रहे हैं जो बाकायदा उन्हें केंद्र एवं राज्य सरकार द्वारा सीधे दिए गये हैं? अभी हाल ही उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के हाथों काशीनाथ सिंह सहित तमाम साहित्यकारों ने सम्मान लिया है। क्या मुजफ्फरनगर और दादरी के लिए ये उ.प्र. सरकार को जिम्मेदार नही मानते हैं?
मध्यप्रदेश सरकार से सम्मान लेने वाले अशोक वाजपेयी केवल साहित्य अकादमी पुरस्कार क्यों लौटा रहे हैं? वहीं एक सवाल यह भी खड़ा हुआ है कि उदय प्रकाश जब योगी आदित्यनाथ के हाथों सम्मान ले रहे थे, तब उनको सांस्कृतिक विविधता का ख्याल क्यों नहीं आया? उर्दू लेखक रहमान अब्बास ने कहा है कि दादरी घटना के बाद उर्दू लेखक बहुत दु:खी हैं। इसकी वजह से वे अपना पुरस्कार वापस कर रहे हैं। समझ में नही आता कि उर्दू के लेखकों के दु:ख और उ.प्र. की दादरी में हुई घटना के विरोध में वह उत्तर प्रदेश की अखिलेश सरकार और उर्दू अकादमी उ.प्र. से विरोध जताने की बजाय साहित्य अकादमी से विरोध क्यों जता रहे हैं? उनको तो चाहिये कि वे साहित्य अकादमी पुरस्कार के बजाय विरोध स्वरूप उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी से विरोध दर्ज कराएं। वहीं कश्मीरी लेखक और कवि गुलाम नबी खयाल जी को कलबुर्गी या दादरी की घटना तो दिख जाती है लेकिन उनके अपने राज्य में कश्मीरी पंडितों के साथ हुआ बुरा बर्ताव नहीं दिखता है।
इन तमाम सवालों की तह में जाने पर शक की सुई इन साहित्यकारों की मंशा पर जाती है। अगर पूरे मामले की ढंग से तहकीकात हो तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि वैचारिक प्रतिबद्घता का बाना ओढ़े वषोंर् से संस्थानों और अकादमियों में मतलबी पालेबंदी करने वाले कुछ कथित साहित्यकार आजकल आखिर क्यों बौखलाए हुए हैं। क्या यह पूरा का पूरा मामला अन्तरराष्ट्रीय साजिश के तौर पर देखा जाना चाहिए? राजग सरकार ने एक तरफ जैसे ही फोर्ड फाउंडेशन जैसी संस्थाओं पर नकेल कसना शुरू किया कि दूसरी तरफ इन लोगों के माथे पर बल पड़ने लगे। चूंकि पिछले डेढ़ साल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत का विश्व पटल पर तेजी से उभार हुआ है। भारत ने 'योग दिवस' सहित कई मुद्दों पर एक मजबूत नेतृत्वकर्ता की तरह दुनिया का 'एजेंडा सेट' किया है। अब तो मोदी सीधे तौर पर सुरक्षा परिषद के विस्तार को लेकर दुनिया में बहस छेड़ चुके हैं। ऐसे में भारत के बढ़ते वैश्विक प्रभाव और दुनिया के मुद्दों में बढ़ती रुचि ने अमरीका और यूरोप में भारत विरोधी ताकतों को परेशान करके रख दिया है। उनकी बड़ी चिंता यह है कि आखिर वे भारत के बढ़ते प्रभाव को कैसे रोक सकें। आमतौर पर अमरीका और यूरोपीय देश दो-तीन मुद्दों का हवाला देकर दुनिया के कई देशों में गृहयुद्घ जैसी स्थिति पैदा करने की नीति अपनाते रहे हैं और विश्व पटल पर उन देशों की साख में बट्टा लगाने की नीति अख्तियार करते रहे हैं। वे मानवाधिकार का प्रश्न उठाते हैं, वे सांस्कृतिक विविधता में ह्रास का प्रश्न उठाते हैं। वे लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की आजादी में हो रही कमी का जिक्र करके भी दुनिया के तमाम मुल्कों में उथल-पुथल की स्थिति पैदा करते रहे हैं। क्या दुनिया के तमाम विकासशील देशों में इन्हीं चंद प्रायोजित सवालों को ढाल बनाकर अपना हित साधने वालों द्वारा कमोबेश वैसी ही कोशिश भारत में भी की जा रही है? इराक का ही उदाहरण लिया जाये तो सद्दाम हुसैन की तानाशाही के दिनों में भी वहां हालात ऐसे नहीं थे जैसे कि अब हैं। लेकिन मानवाधिकार के प्रश्नों को विश्वपटल पर प्रायोजित पाखंड के जरिये वषोंर् तक फैलाने के बाद इराक को आज गृहयुद्घ की विभीषिका के बीच किस कदर छोड़ दिया गया है, ये बताने की जरूरत नही हैं। लेकिन भारत में रास्ता थोडा दुरूह है। एक के बाद एक साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाकर स्वनाम धन्य 'बड़े' साहित्यकारों ने किसके प्रति समर्पण दिखाया है? चाहे नयनतारा सहगल हों अथवा उदय प्रकाश या अशोक वाजपेयी, सभी के साहित्य अकादमी पुरस्कार वापस करने के बाद का बयान पढ़ा जाय तो चंद शब्दों में साम्य नजर आएगा। ये वही शब्द हैं जिनका हवाला देकर अमरीका और यूरोपीय देश अन्य देशों में मानवाधिकार आदि के नाम पर बेजा अतिक्रमण करते रहे हैं। नयनतारा सहगल भी सांस्कृतिक विविधता के खतरे की बात करती हैं और विदेशी ताकतें भी किसी मुल्क को बदनाम करने के लिए इस तर्क का हवाला देती रही हैं। नयनतारा सहगल अगर अभिव्यक्ति पर खतरे की बात करती हैं, तो इसे उनका शब्द मान लेना ही पर्याप्त नहीं है। इसका प्रयोग विदेशों में भारत के खिलाफ कैसे हो रहा है, इस खतरे पर सोचना ज्यादा जरूरी है। शिक्षाविद् साहित्यकार डॉ. अवनिजेश अवस्थी का कहना है- 'इसमें कोई शक नहीं है कि वर्तमान की इन्हीं गतिविधियों को संकलित करके कुछ सालों बाद भारत विरोधी अन्तरराष्ट्रीय फोरम से कोई रपट जारी की जाएगी कि भारत में सांस्कृतिक विविधता और अभिव्यक्ति की आजादी आदि पर घोर खतरा है और भारत को बचाने के लिए विश्व मानवाधिकार संगठनों को भारत में काम करना होगा।' श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ के वेद विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो. लक्ष्मीश्वर झा कहते हैं, 'पुरस्कार वापसी के इस प्रकरण को महज प्रचार का जरिया और विरोध का प्रतीक भर मानने की जरूरत नहीं है। इसे एक अन्तरराष्ट्रीय साजिश के तौर पर समझने की भी जरूरत है।'
लेखिका डॉ. मालती कहती हैं 'भारत के खिलाफ विश्व जगत में माहौल तैयार करने के लिए भारत विरोधी ताकतों द्वारा अभी 'कंटेंट' जुटाने का काम किया जा रहा है। इस साजिश को समझना होगा। जिन लेखकों ने भी पुरस्कार लौटाने की शुरुआत की, उनका विदेशों से खास लगाव रहा है। चाहे वह नयनतारा सहगल हों या उदय प्रकाश हों अथवा अशोक वाजपेयी हों। कुल-मिलाकर अगर देखा जाये तो यहां सारा का सारा खेल वर्तमान भारत सरकार को अन्तरराष्ट्रीय पटल पर घेरने की सुनियोजित साजिश है।' अभी इसके लक्षण बेशक भारत में चंद प्रतीकों के विरोध में दिख रहे हैं, लेकिन कुछ सालों बाद ये सारे सवाल अन्तरराष्ट्रीय विषय के तौर पर स्थापित होंगे और भारत को बदनाम करने की कोशिश और तेज होगी। आयातित वाम विचारधारा का पोषण करने के बदले में तमाम साहित्यकार भारत विरोधी ताकतों से पोषित होते रहे हैं।
वरिष्ठ कवि डॉ. रमानाथ त्रिपाठी कहते हैं, 'आज जब समाज में विद्वेष बोने वाले वामपंथी विचार की बहारी खुराक पर लगाम लगा दी गयी है तो यह बौखलाहट खुराक देने वालों और खुराक लेने वालों, दोनों में है। इसी बौखलाहट में अब भारत के आंतरिक हालात को वैश्विक पटल पर असहिष्णु और साम्प्रदायिक साबित करने की साजिश के तहत यह सब कुछ किया जा रहा है।'
शिवानन्द द्विवेदी
—सुरेश चौधरी, वरिष्ठ रचनाकर्मी, कोलकाता है।
हमने देखा है कि पिछले दो-तीन दशकों में साहित्य अकादमी भी अछूती नहीं रही एवं जितने भी पुरस्कार दिये गए प्राय: प्रगतिशील लेखकों को ही दिए गए। साहित्य का सत्यार्थी, उसे राजनीति से क्या लेना। हां, राजनीति पर अंकुश लगाना देश की दिशा एवं दशा पर निगरानी रखना उनका मुख्य काम है। पर मात्र खामियां ही नहीं देखनी चाहिए। क्या राष्ट्रभक्ति के गीत देश को दिशा नहीं दे सकते या प्रेरणा के गीत मनुज के चरित्र का निर्माण नहीं कर सकते? विदेशी फिल्मकारों का चलन है कि भारत की गरीबी-दरिद्रता ही उन्हें दिखती है, उन्नति नहीं। वैसे ही इन लेखकों को केवल खामियां ही दिखती हैं। प्रकृति सौंदर्य, हरे-भरे खेत, खलिहान, 21वीं सदी का भारत नहीं दिखता। मैं निजी तौर पर इसे सही नहीं मानता। लेखक का कर्तव्य है वह देश-समाज के सब पक्षों को देखे। अब साहित्य के नाम पर राजनीति कर पुरस्कार लौटाने की भेड़चाल में शामिल होना साहित्य का अपमान करना है। यह परंपरा शुरू हुई तो देश कहां जाएगा, सब सोच सकते हैं। सम्मान लौटाने से क्या देश में फैली हिंसा बंद हो जाएगी? हिंसा की इतनी ही परवाह थी तो 1847 से आज तक हुए हिंसक कार्य को देखना चाहिए। जब वे सब हुए हैं तब कहां था यह बुद्धिजीवी वर्ग? अब पुरस्कारों को लौटाना साफ तौर पर गंदी राजनीति केसिवाय कुछ नहीं
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