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शक्ति की कामना और तदनुसार उसकी उपासना, आदिकाल से ही मनुष्य की सहज स्वाभाविक प्रवृत्ति रही है। प्रारंभ में शक्ति-प्राप्ति का उद्देश्य केवल शिकार करना और उससे अपना पेट भरना था। इसलिए उस आदिम काल में पत्थरों के अनगढ़ से और बेडौल सी आकृति वाले हथियार ही पर्याप्त समझे जाते थे। उदरपूर्ति के इस उद्देश्य के साथ, आत्मसुरक्षा की भावना भी सहज रूप से जुड़ी हुई थी। धीरे-धीरे इन उद्देश्यों के साथ अन्य बातें भी जुड़तीं चली गईं जैसे विरोधियों को परास्त करना, उनकी सम्पत्ति (पशु, दास आदि) छीनना तथा अपने प्रभाव क्षेत्र को बढ़ाना आदि। ज्यों-ज्यों समाज का स्वरूप विकसित होता चला गया, त्यों-त्यों उसकी उलझने भी बढ़ती चली गईं और उसके साथ हथियारों का स्वरूप भी भयानक से भयानकतर बनता चला गया। पत्थरों के स्थान पर धाुत के हथियार बनने लगे। उनके आकार प्रकार में परिवर्तन हुए। बारुद के आविष्कार ने उन्हें एक नया मोड़ दिया। युद्ध का क्षेत्र जब भूमि से आगे समुद्र और आकाश तक बढ़ गया तो हथियारों की प्रहार क्षमता भी काफी बढ़ गई। आणविक शक्ति के आविष्कार ने हथियारों को एक क्रांतिकारी और खतरनाक मोड़ दिया। शक्ति की कामना, अब शक्ति-संचय की उग्र भावना के रूप में बदल गई तथा उसका उद्देश्य भी बहुमुखी हो गया। आत्मसुरक्षा तथा शत्रुओं को समाप्त करने की भावना के साथ राजनीतिक प्रभाव में वृद्धि की कामना और हथियारों का व्यापार करके धन कमाने की दुकानदारी लालसा भी काफी बड़ी मात्रा में इसके साथ जुड़ गई।
19वीं शताब्दी के मध्य में जब कुछ खतरनाक हथियार बनाये गए तो फ्रांस के एक युद्ध विशेषज्ञ ज्योमिनी ने घोषणा की थी कि उनसे अधिक खतरनाक बन ही नहीं सकते। किन्तु केवल एक शताब्दी के उपरान्त अगस्त 1945 में, जब परमाणु बमों ने जापान के हिरोशिमा और नागासाकी, दो हंसते चहकते शहरों को जलते शोलों के रूप में बदल दिया तो संपूर्ण विश्व आतंक से कांप उठा। ज्योमिनी की भविष्यवाणी गलत सिद्ध हो गई और संपूर्ण सृष्टि के भावी अस्तित्व के सामने एक बड़ा प्रश्नचिन्ह लग गया। भविष्य से अज्ञात अमरीका अपनी इस अप्रत्याशित सफलता पर प्रसन्न हुआ। तत्कालीन राजनीति पर उसकी गहरी धाक जम गई, किन्तु दूसरी ओर अन्य देशों में इस बात के लिए प्रयत्न भी किये जाने लगे कि वे अमरीका के इस नए हथियार का कोई उचित उत्तर ढूंढें। तदनुसार अन्तरराष्ट्रीय राजनीति में हथियारों की नये सिरे से होड़ शुरू हो गई। इस होड़ का ही परिणाम यह रहा कि केवल चार वर्ष बाद 1949 में सोवियत संघ ने अपना प्रथम परमाणु विस्फोट करके इस क्षेत्र में अमरीका के एकाधिकार को समाप्त कर दिया। इसके उपरान्त 1952 में इंग्लैंड, 1960 में फ्रांस तथा 1964 में चीन भी परमाणु शक्ति संपन्न देशों की बिरादरी में सम्मिलित हो गए। 1974 में भारत ने भी पोखरण में परमाणु विस्फोट करके इस क्षेत्र में अपनी पर्याप्त जानकारी का परिचय दे दिया। इसके 24 वर्ष बाद मई 1998 में भारत ने एक हाइड्रोजन सहित कुल पांच परमाणु बमों का विस्फोट करके अपने को परमाणु श्िाक्त संपन्न राष्ट्र प्रमाणित कर दिया। इसके केवल 15 दिन बाद 28 और 30 मई को पाकिस्तान ने भी परमाणु विस्फोट कर दिये। अन्य अनेक देश भी परमाणु शक्ति के क्षेत्र में आगे बढ़ने का प्रयत्न करते रहे। इस समय लगभग एक दर्जन ऐसे देश हैं, जिन्हें पर्याप्त आणविक ज्ञान प्राप्त है तथा जो कभी भी परमाणु बम बना सकने में सक्षम हैं।
वैसे परमाणु बम बनाने की तकनीक अब न तो गोपनीय ही रह पायी है और न अत्यधिक उलझनपूर्ण। कुछ वर्ष पूर्व अमरीका के एक छात्र एरिस्टोटल फिलिप्स ने केवल बाजार में उपलब्ध पुस्तकों के आधार पर परमाणु बम बनाने का पूरा और सही तरीका अपने शोधग्रंथ में लिखकर दे दिया था। यह घटना परमाणु बम संबंधी ज्ञान के सहज सुलभ स्वरूप को प्रमाणित करती है। परमाणु बम बनाने में यदि कुछ कठिनाई है तो केवल कच्चे सामान और कुछ यंत्रों की ही। आये दिन हमें यूरेनियम तथा परमाणु बम के लिए आवश्यक अन्य वस्तुओं की चोरी के भी समाचार पढ़ने और सुनने को मिलते हैं। ऐसी स्थिति में यदि किसी दिन कोई समाजविरोधी आतंकवादी तत्व इन वस्तुओं और यंत्रों को हथियाकर परमाणु बम बना ले और उसके बल पर संपूर्ण विश्व को कोई धमकी दे डाले तो वह कोई आश्चर्यजनक बात नहीं होगी।
अन्तरिक्ष से पृथ्वी पर या पृथ्वी से अंतरिक्ष में आक्रमण करने के लिए अमरीका और रूस में लेजर हथियारों पर भी काफी काम किया गया। 1980-81 में अमरीकी सरकार ने इस क्षेत्र में अनुसंधान कार्य पर 20 करोड़ डॉलर व्यय किए थे। 1983 में वह व्यय बढ़कर 40 करोड़ डॉलर तक पहुंच गया। इसके बाद भी इस पर अरबों डॉलर व्यय किये गए। विभिन्न प्रकार के रोगाणुओं को शत्रु सेना में फैलाने की तकनीक पर भी नये-नये प्रयोग किये गए हैं और उनमें सफलता प्राप्त की गईं है। इस दिशा में कुछ खतरनाक प्रयोग भी किये जा रहे हैं।
आणविक हथियारों को नियंत्रित करने के संदर्भ में अणु परीक्षण-निरोध-संधि की भी चर्चा की जा सकती है, जिसे वर्ष 1995 में स्थायी कर दिया गया। मगर यह संधि वर्तमान परमाणु शक्ति संपन्न देशों पर कोई विशेष प्रतिबंध नहीं लगाती, इसलिए पर्याप्त प्रचार के बावजूद इसका विशेष महत्व नहीं है। यह भी द्रष्टव्य है कि आणविक हथियारों को नियंत्रित करने वाली संभावित संधियों के पूरी तरह लागू होने के बाद भी परमाणु हथियारों का ज्ञान यथावत् सुरक्षित रहेगा और इसलिए आवश्यकता पड़ने पर इन हथियारों के पुनर्निमाण की आशंका को नहीं टाला जा सकता। वैसे भी युद्ध के समय किसी संधि का कोई नियंत्रण नहीं रह पाता। ऐसी स्थिति में परमाणु शस्त्रों की होड़ के समाप्त होने की कोई संभावना नहीं है। जहां तक पारंपरिक हथियारों की होड़ का प्रश्न हैं, उसमें भी कहीं कोई कमी नहीं। वह तो निरंतर वृद्धि की ओर ही है।
बड़ी शक्तियों के बीच हथियारों के लिए बढ़ती होड़ का स्वाभाविक परिणाम यह होता है कि उनके पास बच रहे पुराने हथियार व्यर्थ हो जाते हैं, किन्तु वही पुराने हथियार उन छोटे देशों के लिए बड़े उपयोगी होते हैं, जिनके पास खतरनाक और अधुनातन हथियार नहीं हैं या अपेक्षाकृत कम मात्रा में हैं। इससे बड़ी शक्तियां अपने पुराने हथियार उन्हें बेचकर हथियारों का व्यापार करने लगती हैं। वैसे तो हथियारों का अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर यह व्यापार चौदहवीं शताब्दी से ही उस समय प्रारंभ हो गया था, जब बारूद का आविष्कार हुआ था और उसके लिए बेल्जियम ने अपनी तोपों का विदेशों में निर्यात करना शुरू कर दिया था। किन्तु बड़े पैमाने पर व्यापार चमका द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद ही। शस्त्रविक्रेता विभिन्न छोटे देशों के बीच हथियारों की होड़ शुरू करते हैं तथा अवसर मिलने पर उन्हें युद्ध के लिए भी उकसाते हैं, ताकि उनके हथियारों का परीक्षण हो जाए और तदनुसार गुणों के आधार पर उनका प्रचार हो सके। अनुकूल परिस्थितियां मिलने पर ये शस्त्र विक्रेता विभिन्न देशों में विद्रोहियों को उभारने और उन्हें हथियार बेचने में भी संकोच नहीं करते। हथियारों का सबसे बड़ा व्यापारी-देश है अमरीका, जिसने केवल द्वितीय विश्वयुद्ध में 3637 अरब रुपए का सामान विदेशों को बेचा। इसके बाद भी 1955 तक उसका यह व्यापार 3000 अरब रुपए का रहा तथा अब इसमें कई गुणा वृद्धि हो चुकी है। दूसरा क्रम इंग्लैंड का है, जिसका इस अवधि में हथियारों का यह व्यापार 150 अरब रुपए का रहा तथा अब उसका भी यह व्यापार कई गुणा बढ़ चुका है। 1955 से तत्कालीन सोवियत संघ तथा फ्रांस भी इस व्यापारिक प्रतियोगिता में शामिल हो गए। फिर भी शीर्ष पर अमरीका ही रहा, जिसने 1967 से अब तक लगभग 1000 अरब डॉलर की धनराशि इस मद में केवल तीसरी दुनिया के देशों से कमायी। दूसरे नंबर के व्यापारी देश- पूर्व सोवियत संघ और अब रूस की यह आमदनी लगभग 700 अरब डॉलर रही। हथियारों के इस व्यापार और उसके फलस्वरूप निरंतर बढ़ रही हथियारों की होड़ ने गरीब और विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था को बिलकुल चौपट कर दिया।
द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति से अब तक संपूर्ण विश्व में लगभग एक लाख खरब डॉलर हथियारों पर व्यय किये जा चुके हैं। यदि इस धनराशि को विश्व के जनसमुदाय में बांटा जाता तो गरीबी, भुखमरी और बेरोजगारी जैसी समस्याएं सदैव के लिए समाप्त हो चुकी होतीं। इस तथ्य के बावजूद बड़ी शक्तियां हथियारों की अंधी दौड़ में निरंतर लिप्त हैं तथा संपूर्ण विश्व को विनाश की ओर ठेलती जा रही है।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि आधुनिक शक्तिपूजा अपनी सामान्य स्थिति में न रहकर निरंतर भयानक बनती जा रही है। निश्चित ही शक्ति के प्रति मनुष्य की लालसा का मूलोच्छेदन नहीं किया जा सकता, मगर उसे नियंत्रित और मर्यादित अवश्य किया जा सकता है। संपूर्ण विश्व के कल्याण के लिए यह नियंत्रण आवश्यक है, मगर यह नियंत्रण सभी छोटे-बड़े देशों पर समान रूप से लागू हो, तभी सफलता की आशा की जा सकती है। -प्रो. योगेश चन्द्र शर्मा
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