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पाञ्चजन्य के पन्नों से
वर्ष: 12 अंक: 29
26 जनवरी 1959
राष्ट्र-सीमा पर संकट : प्रांत-भेद व भाषा-भेद भुलाकर एक सूत्र में आबद्ध हों
शाश्वत हिन्दू तत्वज्ञान ही संपूर्ण भारत भावनात्मक एकता का संचार कर सकता है
लखनऊ। संसार में इतने बुद्धिमान राजनीति धुरंधर नेता कहीं भी नहीं होंगे जो अपने ही पौरुष से राष्ट्र की सीमाओं पर शत्रु-राज्य की स्थापना कर दें। ऐसे नेताओं के असामान्य राजनीति चातुर्य का फल, यह पाकिस्तान असम की सीमा पर निरंतर गोलियां चला रहा है और ये राज्यों की सीमा के लिए झगड़ रहे हैं। इन्हें तनिक भी लज्जा नहीं आती। कहते हैं, शत्रु को शांत करने के लिए अपनी भूमि का टुकड़ा उसे दे दो। कल ये असम, परसों बंगाल और फिर बिहार भी उसे सौंप देंगे।
इन शब्दों में भारत की वर्तमान दुर्दशा का करुण चित्र खींचते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री माधवराव सदाशिव राव गोलवलकर (गुरुजी) ने 16 जनवरी को सायंकाल 5 बजे लखनऊ के अमीनुद्दौला पार्क में 1000 गणवेशधारी स्वयंसेवकों और 8000 नागरिकों के समक्ष वेदनाभरी वाणी में कहा-यह दृश्य देखकर मेरा हृदय विदीर्ण होता है। कितना लज्जास्पद दृश्य है कि राष्ट्र का महान अपमान देखकर भी इन नेताओं के मान पर आघात नहीं पहुंचता। चारों ओर से राष्ट्र जीवन पर आक्रमण होने के बाद भी ये नेता भाषा, प्रांत, जाति और वर्ग के अभिमान को जगाकर पारस्परिक घृणा और विद्वेष का विष फैलाकर राष्ट्रीय एकता को नष्ट-भ्रष्ट कर रहे हैं, राष्ट्र की प्राचीरों की रक्षा न कर प्रांतों की सीमा के लिए झगड़ा कर रहे हैं। 1200 वर्षें के इतिहास से तनिक भी शिक्षा ग्रहण नहीं की। वह इतिहास पुकार-पुकार कर कह रहा है कि आपस के विभेद से पराभव मिलता है जबकि एकता से विजय तथा वैभव।
कांग्रेस कम्युनिज्म की ओर
आशा की किरण : जनसंघ
-श्री फिलिप स्प्राट-
गत सप्ताह बंगलौर के अधिवेश में जनसंघ ने कुछ स्पष्ट एवं सरल घोषणाएं की हैं। यदि राजनीति तर्क की राह पर चलें तो निश्चित ही भारत की जनसंख्या के बहुमत का समर्थन इन घोषणाओं को मिलेगा। जनसंघ ने सोशलिज्म के विरुद्ध और व्यक्तिगत स्वातंत्र्य के पक्ष में अपना मत दिया है और किसानों के स्वामित्व को मान्यता प्रदान की है। इसमें कोई संदेह नहीं कि यदि आर्थिक नारों का सही-सही अर्थ और उनका व्यावहारिक रूप समझ में आ जाये तो भारत का बहुमत उन नारों और घोषणाओं का, जिनका आज कांग्रेस की राजनीति पर प्रभुत्व है, डटकर विरोध करे।
जनसंघ ने (कांग्रेस के) इस अप्रामाणिक राजनीतिक चालबाजी और अपरिपक्व आर्थिक आदर्शवाद के सम्मिश्रण के विरुद्ध घोषणा की है। वह उस समय तक, जब तक भारत पुनर्निमाण की हवाई योजनाओं को कार्यान्वित करने लायक अतुल सम्पत्ति अर्जित नहीं कर लेता है, विद्यमान आर्थिक ढांचे के सुधार के लिए बुद्धिमत्तापूर्ण परम्परागत मार्ग को अपनाने के पक्ष में है।
भारतीयता का रक्षक जनसंघ
इस दृष्टिकोण के पक्ष में होते हुए भी जनता जनसंघ का अनुसरण करने में विशेष रुचि नहीं दिखा रही है। जिन्हें इस दल की पृष्ठभूमि का पता है उन्हें स्मरण होगा कि जनसंघ की चिंता का प्रमुख विषय आर्थिक समस्याएं नहीं है, उसकी प्रमुख चिंता है हिन्दू संस्कृति का संरक्षण, जो उसके मतानुसार कांग्रेस नेतृत्व के आधुनिकतावादी विचारों के कारण खतरे में है।
इस प्रश्न पर भी जनता का विशाल बहुमत पं. नेहरू की अपेक्षा जनसंघ के साथ है। आर्थिक और सांस्कृतिक प्रश्नों पर भारतीय जनता का दृष्टिकोण रूढि़वादी है जबकि पं. नेहरू क्रांति पसंद हैं। परंतु तिसपर भी जनता परंपरावादी दल के साथ न जाकर उनका समर्थन करती है।
रूढि़वादी भारतीय जनता
वास्तव में संसार के किसी भी सभ्य देश की जनता भारतीय जनता से अधिक रूढि़वादी नहीं है। परंतु इस समय भारतीय जनता का रूढि़वाद ही उसके साथ विश्वासघात कर रहा है और परस्पर विरोधी घटना होते हुए भी उसे एक अनचाही क्रांति की गोदी में फेंक रहा है।
सरदार पटेल की असामयिक मृत्यु
उसकी राजनीतिक निष्ठाएं गत 30 वर्षों में गांधी के नेतृत्व में चलने वाले कांग्रेस आंदोलन के दौरान में निश्चित हो गयीं। यद्यपि वह आंदोलन 11 वर्ष पूर्व समाप्त हो चुका और साफ-साफ एक नयी परिस्थिति उत्पन्न हो गयी, किन्तु उसके बहुमत की कांग्रेस के प्रति निष्ठा अभी भी हिली नहीं है। यह न तो आश्चर्य की बात है और न दु:ख की। सामान्य परिस्थितियों में इस प्रकार के विश्वास का पुष्ट आधार होता।
व्यक्ति का सर्वांगीण विकास
व्यक्ति शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा का समुच्चय है। व्यक्ति के सर्वांगीण विकास में चारों का ध्यान रखना होगा। चारों की भूख मिटाये बिना व्यक्ति न तो सुख का अनुभव और न अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकता है। भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही प्रकार की उन्नति आवश्यक है। आजीविका के साधन, शांति, ज्ञान एवं तादात्म्य-भाव से ये भूख मिटती हैं। सर्वांगीण विकास की कामना ही व्यक्ति को सामजहित में कार्य करने की प्रेरणा देती है। व्यक्ति के विकास और समाज के हित का संपादन करने के उद्देश्य से धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चार पुरुषार्थों की कल्पना की गयी है। धर्म, अर्थ और काम एक दूसरे के पूरक और पोषक हैं। मनुष्य की प्रेरणा का स्रोत तथा उसके कार्यों का मापक किसी एक को ही मानकर चलना अधूरा होगा।
-पं. दीनदयाल उपाध्याय
विचार दर्शन खण्ड-7, पृष्ठ संख्या 59
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