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भारत की उत्तर दिशा में हिमालय की उपत्यकाओं में समुद्रतल से लगभग 2500 मीटर की ऊंचाई पर स्थित गंगी गांव उत्तराखंड के टिहरी जिले का सीमांत गांव है जो चीन की सीमा से सटा हुआ है। खतलिंग ग्लेशियर एवं सहस्रताल के दिव्य सरोवरों के नीचे भृगु गंगा के किनारे बसा यह सुरम्य गांव देवभूमि के देवत्व, पराक्रम, पुरुषार्थ, अतिथि सत्कार और स्वावलंबन का पर्याय है। यहां के पराक्रमी लोग अपना खून पसीना बहाकर स्वाभिमान से जीते हैं। ये सरकार और प्रशासन किसी के भी मोहताज नहीं हैं। प्रकृति ने इस दिव्य भूमि पर अपना अनमोल खजाना लुटाया है। पाषाणकालीन संस्कृति के यहां प्रत्यक्ष दर्शन होते हैं। जहां सारा देश पश्चिम का अनुकरण करते हुए प्रगति और आधुनिकता की बात कर रहा है, सूचना और तकनीक की क्रांति का सुफल प्राप्त कर चुका है, वहां आज भी गंगी गांव के लोग परंपरागत जीवन संस्कृति को जीते हुए अपने निश्छल एवं स्वाभाविक चरित्र के कारण अद्वितीय प्रतीत होते हैं।
गंगी गांव में चाहे शिक्षा का मामला हो, स्वास्थ्य का, संचार का अथवा बिजली पानी या सड़क का, यह गांव आज भी मूलभूत सुविधाओं से वंचित है और इन मेहनतकश एवं साहसी लोगों के पुरषार्थ को छोड़कर यहां आज तक किसी सरकारी सुविधा का दर्शन नहीं हुआ। आज पूरे गांव में केवल एक डब्ल्यूएलएल का सामूहिक टेलीफोन है, किसी भी घर में गैस का चूल्हा नहीं है और सड़क का मार्ग 15 किलोमीटर पहले अब रीह तक कच्चे रूप में निर्मित हो पाया है।
1982-83 में उत्तराखंड के गांधी कहलाने वाले देवप्रयाग क्षेत्र के विधायक स्व. इन्द्रमणि बडोनी को इस गांव से असीम प्रेम था। वे यदा-कदा अपने ग्यारहगांव हिन्दाव स्थित अखोड़ी गांव से यहां भागवत कथा सुनने और यहां के त्योहारों में भाग लेने आते थे। इसी कारण उनके मन में खतलिंग महायात्रा की अवधारणा ने जन्म लिया था ताकि इस उपेक्षित और वंचित गांव को विकास की मुख्यधारा से जोड़ा जा सके। स्व. बडोनी ने लगातार 4-5 वर्षों तक घुत्तू-गंगी से खतलिंग-सहस्रताल यात्रा का संचालन किया और इस दौरान देश-विदेश के हजारों लोग इस गांव से होते हुए खतलिंग यात्रा में शामिल होते रहे।
गंगी गांव प्रकृति की अमूल्य धरोहर प्रतीत होता है। यहां दिसम्बर से मार्च माह तक लगभग 5 फीट बर्फ जमी रहती है। इस दौरान गांव के लोग अपने अस्थाई निवासों-द्योखरी, नलान, रीह एवं लूणी में निवास करते हैं। गांव में पत्थरों के मकान हैं जो ऊपर से लकड़ी के बने होते हैं। इनकी छतें ढालदार होती हैं ताकि इनसे बर्फ आसानी से पिघल सके। 1990 से पहले मकानों के ऊपर चौड़े-चौड़े समतल पत्थर रखे जाते थे। जिन्हें स्थानीय भाषा में पठाल कहते हैं। भूकंप की बढ़ती आशंका के चलते अब इन पठालों का स्थान लोहे की चद्दरों ने ले लिया है। इससे मकान हल्के और भूकंपरोधी हो जाते हैं।
अधिक ठंड पड़ने के कारण यहां लोग घरों को अंदर- बाहर मिट्टी से लीपते हैं ताकि गर्माहट बनी रहे। घरों के दरवाजे भी ज्यादा से ज्यादा 4-5 फीट के बनाये जाते हैं। छोटी-छोटी- खिड़कियां बनी होती हैं। सीमेंट के मकान यहां सफल नहीं हो पाते हैं।
भारत के पर्यटन मानचित्र और सरकारी रिकार्ड में गंगी कई वर्षों से अंकित है, लेकिन सरकारी योजनाओं और विकास का रुपये का एक चौथाई हिस्सा भी यहां पहुंचता प्रमाणित नहीं हुआ। देश के सबसे पिछड़े जिले टिहरी की भिलंगना घाटी के घुत्तू बाजार से लगभग 25 कि.मी. दूर गंगी गांव के लिए अब 10 कि.मी. पूर्व रीह नामक स्थान तक कच्चा टैक्सी मार्ग उपलब्ध है। लेकिन इसका लाभ केवल पर्यटकों और व्यापरियों को ही मिलता है। गरीब और वंचित व्यक्ति के लिए इस मार्ग का कोई लाभ नहीं क्योंकि उसके पास टैक्सी का भाड़ा देने के लिए इतना पैसा नहीं होता। गंगी गांव में गढ़वाल विकास निगम का विश्रामगृह है जहां यदा-कदा खतलिंग, सहस्रताल, पंवाली बुग्याल और केदारनाथ की ओर जाने वाले देशी-विदेशी पर्यटक देखे जा सकते हैं। यहां से केदारनाथ लगभग 180 कि.मी. पड़ता है जिसे पर्यटक पैदल मार्ग का आनंद लेते हुए 10-11 दिनों में पार कर लेते हैं। विदेशी सैलानी, साधु संत और देसी पर्यटक गंगी के लोगों के सरल स्वभाव, अतिथि सत्कार के सद्भाव, बोली-भाषा और उनके व्यवहार से आकर्षित होते हैं। इसी कारण रीह में पहुंचते ही उनकी थकान और रास्ते की संभावित दूरी स्वत: कम हो जाती है। रीह से आगे चलने पर सुन्दर सुरम्य स्थल, विचित्र स्थलीय आकृतियां, हरे-भरे मैदानी बुग्याल, बर्फीली चोटियां, हरे भरे पेड़ों के बीच कलरव करते रंग बिरंगे पक्षी, सदाबहार वन और पार्श्व से ध्वनित होती नदियों के कलकल स्वर एवं वन्य जीवों की भांति-भांति की आवाजें पर्यटकों को सम्मोहित कर देती है। देवदार,थुनेर, बांज, बुरांस और खरसू के हरे-भरे पेड़ पथिकों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। इस क्षेत्र में बाघ, हिरन, कस्तूरी मृग, काखड़, घोरड़, मुनाल, बारहसिंगा, भालू और सूअर आदि वन्यजीव सहसा राहगीरों से आगे निकल जाएं तो कोई आश्चर्य की बात नहीं।
गंगी के लोग मुख्य रूप से कृषि और भेड़पालन के द्वारा अपना जीविकोपार्जन करते हैं। सामाजिक दृष्टि से देखा जाए तो लगभग 120 परिवारों में 1500 से भी अधिक की जनसंख्या यहां आज भी गांव में रह रही है। प्रवास या पलायन के नाम पर दर्जनभर छात्र ही गांव से बाहर होंगे जो घुत्तू या उससे आगे कही पढ़ने के लिए रह रहे होंगे। इस प्रकार गंगी गांव समूचे उत्तराखंड में पलायन के प्रभाव से अछूता माना जा सकता है।
मूलरूप से वनवासी एवं जनजातीय श्रेणी में आने वाले इस गांव में ज्यादातर राजपूत बिरादरी के लोग हैं। इनमें सयाण, गेंदाण,दौराण, ढलियाण, मगरौं, बोग्याण, थन्त्वाण, चेढ्याण, नक्वाण एवं रावत जाति के सामान्य राजपूत हैं। पांच या छह परिवार वंचित समाज से भी हैं। जहां तक पहनावे की बात है तो अधिक ठंड के कारण पुरुष सिर में सफेद पगड़ी और नीचे मोटी ऊन से बना हाथ से बना चोला पहनते हैं जिसे डिगला कहते हैं जो सफेद रंग का होता है। इसका भार लगभग 4-5 किलो होता है। नीचे से काली ऊन का पायजामा पहनते हैं। इसी प्रकार महिलाएं ऊपरी हिस्से में ऊन की अचकन (आंगड़ी) और नीचे काली कंबल (पाखली) पहनती हैं। यहां की महिलाएं आभूषण पहनने की शौकीन हैं। विशेषकर पर्व त्यौहार पर और शादी विवाह पर ये अच्छे ढंग से आभूषण पहनती हैं। हाथों में चांदी के मोटे कड़े (धागुली), कानों में सोने और चांदी के मोटे-मोटे कुंडल, नाक में बुलाक, फुल्ली, नथ और गले में चांदी के रुपयों की आकृति वाली माला, तेमण्यां, सोने की चेन आदि पहनती हैं। पुरुषों में बुजुर्ग लोग कानों में सोने की बालियां (मुरखी) पहनते हैं।
जहां तक वैवाहिक संबंधों की बात है गांव में ही अलग-अलग जाति के लोग परस्पर रिश्ता करते हैं। मेलों और त्योहारों में देवी-देवताओं की पूजा और अर्चना होती है। लगभग हर महीने गांव में पुराण कथा, प्रवचन अथवा यज्ञ हवन संपन्न होता है। गंगी के लोग अत्यधिक धार्मिक प्रवृत्ति के, आस्थावान और आध्यात्मिक वृत्ति के हैं और शायद प्रकृति और परमात्मा के प्रति उनका यह असीम विश्वास ही उन्हें प्रतिकूल स्थितियों में भी डिगने नहीं देता।
ज्येष्ठ माह में एकत्रित होकर सभी गांववासी अपने इष्ट देवता सोमेश्वर की आराधना करते हैं। सोमेश्वर के विषय में ऐसा प्रचलित है कि यह पूर्व जन्म में भेड़ चुगाने वाला चरवाहा था जो इस पावन धरती पर देव रूप में प्रकट हुआ है। सोमेश्वर की महिमा जम्मू कश्मीर से लेकर बूढ़ाकेदार, गेंवली आदि क्षेत्रों में लोक प्रसिद्ध है। यहां के लोग सोमेश्वर की डोली को नचाते हुए पवाड़े भी गाते हैं। प्रत्येक महीने की संक्रांति को यहां अलग-अलग गीत गाये जाते हैं, क्षेत्रीय गीतों के अलावा इस अवसर पर रांसो, झुमैलो, चौफुल्या आदि गीत गाये जाते हैं।
सितम्बर के महीने में गंगी गांव में भेड़ का मेला लगता है जो सबके आकर्षण का केन्द्र होता है। देवता के मंदिर के चारों ओर हजारों की संख्या में भेड़ें घुमायी जाती हैं क्योंकि देवता को लोग एक चरवाहे का ही रूप मानते हैं। सोमेश्वर के अलावा गंगी में अनेक देवी देवताओं के मंदिर हैं और लोग इन देवी-देवताओं का पूजन अर्चन करते हैं। प्रत्येक साल कोई न कोई एक परिवार अथवा सामूहिक रूप से गांव के लोग धार्मिक आयोजन अवश्य करते हैं। नवरात्रों के साथ-साथ पुरण आदि का आयोजन यहां समय-समय पर होता है। यहां के लोग घंटाकर्ण देवता, क्षेत्रपाल, हूणेश्वर, बौलिया, भैरवनाथ, नागराज, नरसिंह भगवान और मसाण के भी उपासक हैं।
गंगी की वर्तमान स्थिति
गंगी गांव के बुजुर्ग इस गांव को लगभग 400 वर्ष पूर्व स्थापित हुआ मानते हैं। बुजुर्ग चन्द्रसिंह राणा कहते हैं- 'वर्तमान में यहां पांचवी छठी पीढ़ी है। इसका अंदाजा गांव के बीचो-बीच सोमेश्वर देवता के लकड़ी के विशाल मंदिर को देखने से भी लगाया जा सकता है। इस मंदिर में थुनेर की मजबूत लकडि़यां बिछी हुई हैं जो लगभग एक फीट अंदर तक घिस चुकी हैं। इन लकडि़यों पर सुंदर नक्काशी है और चित्रों के साथ विचित्र लिपि में कुछ लिखा हुआ है जो अभी भी पहेली बना हुआ है। इसके साथ ही मंदिरों में विभिन्न देवी देवताओं के ताम्र पत्र मिलते हैं जो अलग-अलग आकृति के हैं और जिन पर कुछ न कुछ अवश्य लिखा हुआ है।' गंगी गांव से आगे ऊपर पहाड़ पर विरोद नामक स्थान में भगवती महारुद्रा देवी का मंदिर है जहां अष्टधातु की मूर्ति प्राचीनकाल से विद्यमान प्रतीत होती है। गंगी से 10 कि.मी. दूर भिलंगना नदी के ऊपर एक सुंदर ताल के साथ भगवती रुद्रा देवी का मंदिर है जो देशभर के श्रद्धालुओं को अपनी ओर आकर्षित करता है। इसी प्रकार गंगी गांव में शाकम्बरी देवी का मंदिर है जो 1991 के भूकंप से क्षतिग्रस्त हो गया था। उसमें पांच मूर्तियां बड़े-बड़े पत्थरों पर गड़ी हैं जो प्राचीन समय की कलाकारी का प्रमाण हैं। इन मूर्तियों के नीचे अंकित लिपि मंदिर की प्राचीनता को प्रमाणित करती है। कुछ लोगों का कहना है कि 1850 के बाद अंग्रेजों के अत्याचारों से परेशान होकर शायद अमन चैन और शांति की तलाश में उनके पूर्वज इस देवभूमि में आकर बसे होंगे और उन्होंने यहां एकांत में रहना पसंद किया होगा। आज भी लोग कृषि एवं भेड़ पालन पर जोर देते हैं। पूरे गांव में अभी लगभग 45 प्रतिशत साक्षरता है।
आज आजादी के लगभग 70 वर्ष बाद भी सामरिक दृष्टि से संवेदनशील खतलिंग ग्लेशियर से ढका गंगी गांव बुनियादी सुविधाओं के लिए तरस रहा है। सड़क मार्ग अथवा पैदल मार्ग पर्यटकों के कारण बरसात और वर्फबारी के अलावा बाकी समय ठीक रहते हैं किंतु विद्युत अथवा सौर ऊर्जा का अभाव इन भोले-भाले लोगों के दुर्भाग्य से ज्यादा निकम्मे जनप्रतिनिधियों एवं राज्य की आंखमुंदी सरकार की वास्तविकता को आईना दिखाता है। गांव में शिक्षा की स्थिति यह है कि गिनती के तीन प्राथमिक विद्यालय हैं- जो रीह, लोणी और गंगी गांव में हैं। साथ ही एक जूनियर स्कूल भी है। प्राथमिक विद्यालयों में तीन-चार अध्यापक हैं जो गांव के मूल निवासी होने के कारण उपलब्ध रहते हैं जबकि जूनियर विद्यालयों में व्यवस्था पर आये शिक्षक साल में दो महीने भी यहां नहीं टिकते। इन विद्यालयों में कम्प्यूटर तो दूर की बात है, पुस्तकालय तक भी नहीं र्हैं। विधायक निधि से गंगी के लिए स्वतंत्र राज्य बनने के इन 15 वर्षों में और इससे पहले भी कोई ठोस योजना नहीं आयी है। गंगी गांव के पहले स्नातक और वर्तमान में यहां शिक्षक देवेन्द्र सिंह कहते हैं- इक्कीसवीं शताब्दी में भी गांव में अभी तक आधा दर्जन स्नातक हैं और बालिका शिक्षा का आलम यह है कि केवल एक बालिका घुत्तू इण्टर कॉलेज में बारहवीं में पढ़ रही है। उरेड़ा ने गंगी गांव तक बिजली के खंभे तो गाड़े लेकिन उनपर बिजली नहीं पहुंच सकी है। इतने बड़े गांव में जिला पंचायत के कोटे से सौर ऊर्जा के मात्र चार बल्व सार्वजनिक आंगनों में लगे हैं।'
गंगी के पूर्व क्षेत्र पंचायत सदस्य एवं वर्तमान ग्राम प्रधान नैनसिंह राणा कहते हैं- 'स्वास्थ्य का मामला इतनी बदहाली में है कि प्रतिवर्ष दर्जनों लोग उचित स्वास्थ्य सुविधा के अभाव में अकाल मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं जिस कारण जनसंख्या में स्थिरता बनी हुई है। इतनी बड़ी जनसंख्या में दस बिस्तरों तक का कोई अस्पताल नहीं है। एक एनएएम और छोटे से उपस्वास्थ्य केन्द्र के भरोसे सरकार ने एक प्रकार से इतनी बड़ी जनसंख्या को भगवान भरोसे छोड़ा हुआ है।' प्राकृतिक वनस्पतियों और जड़ी बूटियों के खजाने वाले इस क्षेत्र में बाहर से लोग जड़ी बूटियां ले जाते हैं, लेकिन यहां कोई प्रशिक्षण केन्द्र अथवा औषधि भंडारण का केन्द्र तक नहीं है।
गंगी के घी, आलू, मारछा, राजमां और ऊन की गुणवत्ता सारी दुनिया में मशहूर है लेकिन बहुत अधिक उत्पादन करने के बाद भी यहां के लोग अपने उत्पाद को स्थानीय व्यापारियों को कौडि़यों के दाम बेचने पर विवश हो जाते हैं। दुर्भाग्य की बात है कि न सरकार की, न किसी स्वयंसेवी संस्था की और न ही किसी धार्मिक संस्था की नजर आज तक गंगी वालों पर पड़ सकी है। स्व. बडोनी ने 80 के दशक में यहां जड़ी बूटी संस्थान खुलवाया था जिसे सामाजिक कार्यकर्ता त्रेपन सिंह चौहान ने लगभग पांच वर्ष तक चलाया था।, आज वह बंद है।
गांव में देवता के औतारी उत्तम सिंह कहते हैं- 'यहां पानी की विकराल समस्या है। भिलंगना नदी बहुत दूर है और 1991 के भूकंप और कई बार की आपदा ने ही जल के प्राकृतिक स्रोतों को नष्ट कर दिया है जिस कारण जल का संकट व्याप्त है।' गांव की महिलाओं को आज भी पशुओं के लिए घास, चारा व लकड़ी कल्याणी से ऊपर गंगी में 7-8 कि.मी. की चढ़ाई पर लाना पड़ता है। यदि स्थानीय नेतृत्व और जनप्रतिनिधि प्रभावी होते और राज्य सरकारों के नीतिनियंता क्षेत्रवाद की संकीर्णता के दायरे में न सीमित होते तो धार्मिक, आध्यात्मिक, पर्यावरणीय एवं सामरिक महत्व के इस गांव तक को राष्ट्रीय मानचित्र पर मान्यता मिल चुकी होती। पर्यटन विभाग ने यहां वर्षों से आकर्षित हो रहे देशी-विदेशी पर्यटकों के लिए रीह, गंगी, खरसोली तक में पर्यटक गृह एवं धर्मशालाओं का निर्माण किया है। इसी प्रकार यदि दृढ़ इच्छाशक्ति दिखाई जाती तो द्योखरी, कल्याणी, विरोद एवं खरसोली तक भी हरी-भरी घास युक्त बड़े मैदान हैं जहां छोटे जहाज आराम से उतर सकते हैं और त्रियुगीनारायण, नंदप्रयाग, केदारनाथ एवं बद्रीनाथ को जोड़ने वाले इस रमणीक स्थल को पर्यटन की दृष्टि से विकसित किया जा सकता है। -खतलिंग महायात्रा-गंगी से लौटकर सूर्य प्रकाश सेमवाल
खतलिंग-सहस्रताल जैसे पर्यटक स्थलों के यात्रा मार्ग में आने वाला गंगी गांव भव्य, सुरम्य और मनोरम है। भारतीय संस्कृति और परंपरा के प्रतीक के रूप में बचे इस भरे-पूरे गांव को अब संवारने की जरूरत है। पीछे वालों को कोसने के बजाय नवयुवकों को गंगी के अभावों और संकटों के साथ यहां की खूबियों और विशेषताओं को लोगों तक पहुंचाने का संकल्प लेना चाहिए। गंगी जैसे गांवों में जब शिक्षा और समृद्धि फैलेगी तभी हिमालय सुरक्षित रह सकेगा।
-विनोद नौटियाल, संयोजक, हिमालय बचाओ आंदोलन
स्व. इन्द्रमणि बडोनी द्वारा गंगी गांव को पर्यटन मानचित्र पर लाने के उद्देश्य से ही अस्सी के दशक में इस क्षेत्र में यात्राएं शुरू की गई थीं। बडोनी जी गंगी वालों के धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक व्यवहार से परिचित थे, वे गंगी गांव के लोगों से अत्यंत प्रेम करते थे। खतलिंग और सहस्रताल के रास्ते पंवाली, त्रियुगीनारायण और बद्री-केदार यात्रा की कल्पना इसी भाव से जुड़ी थी। वास्तव में अन्तरराष्ट्रीय सीमा से लगे होने के बावजूद आज तक गंगी गांव में शिक्षा, स्वास्थ्य और संचार की अपेक्षित सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं, जो एक गंभीर एवं चिंता का विषय है।
-भगवान प्रसाद भट्ट, प्राचार्य, इण्टर कॉलेज, घुत्तू
गंगी हिमालय की शोभा और उसके संरक्षण का प्रमुख स्थल है। जब तक यहां के लोगों को विकास की मुख्यधारा से नहीं जोड़ा जाएगा तब तक तीर्थाटन-पर्यटन की बात करना बेमानी होगा। खतलिंग-सहस्रताल महायात्रा को स्व. बडोनी ने गंगी के विकास के साथ जोड़ने का अभियान इसलिए छेड़ा था। यहां सबसे मुख्य बात शिक्षा पर विशेष ध्यान देना होनी चाहिए।
-डा. चंदन सिंह चौहान, चिकित्सक, घुत्तू भिलंग
हम केवल अपना स्वार्थ देखते हैं। यदि हमारे अंदर हीनभावना न होती तो गंगी समेत समूची भिलंगना घाटी तरक्की करती। अब तक स्थानीय जनप्रतिनिधि अपने स्वार्थ में संलग्न रहे। अपने ही काम करवाने की सोचते रहे। अब ऐसे कुशल नेतृत्व की जरूरत है जो शासन-प्रशासन से इस क्षेत्र के पिछड़ेपन के लिए लड़ सके। इसके अभाव में गंगी और समूची भिलंगना घाटी पिछड़ी ही रहेगी।
-गोपाल सिंह गवाणी, ग्राम-मल्ला गवाणा, घुत्तू भिलंग
गंगी के लोग आज भी अपनी मूलभूत सुविधाओं के लिए तरस रहे हैं चाहे बिजली हो या पानी अथवा सड़क। वास्तव में उन्हें समाज की मुख्यधारा में लाने का जो प्रयास किया जाना चाहिए था वह नहीं हो पाया। एक और सबसे मुख्य कारण शिक्षा का अभाव, इसके साथ ही अच्छे नेतृत्व का न हो पाना भी सबसे बड़ा कारण है।
-केदार सिंह बर्त्वाल, सदस्य, जिला पंचायत, टिहरी गढ़वाल
खतलिंग-सहस्रताल पर्यटन मानचित्र में जब पांचवें धाम के रूप में स्थापित होंगे तो यात्रा मार्ग में पड़ने वाले गंगी गांव का विकास स्वत: होगा। अब लोग जागृत हो रहे हैं, कई युवा गंगी में स्नातक हैं और अब इण्टर कॉलेज तक भी दो-तीन दर्जन छात्र-छात्राएं पहुंच चुकी हैं। हम सबका प्रयास होना चाहिए कि हम राज्य और केन्द्र सरकार से गंगी से आगे पर्यटन के विकास की मांग करें।
-शूरवीर सिंह रावत, सा. कार्यकर्त्ता ग्राम-ढकोन, महरगांव भिलंग
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