|
योगश्चित वृत्ति निरोध:' अर्थात चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है। यदि साधारण शब्दों में कहें तो मन जो कि चंचल स्वभाव का होता है और उसमें उपस्थित जो दोष होते हैं उनको अपने नियंत्रण में रखने की क्रिया को योग कहा जाता है। यदि दूसरे शब्दों में कहें तो जिस माध्यम द्वारा आत्मा का परमात्मा से मिलना हो सकता है उसी को योग कहते हैं। पतंजलि योग सूत्र के अनुसार योग का अर्थ है 'समाधि' जो योग की अंतिम अवस्था है। दरअसल योग क्या है यह हमारे शास्त्रों में पहले से वर्णित किया गया है, लेकिन हमारे शास्त्रों में यह जानकारी बिखरी हुई थी। एक जगह योग के बारे में पूरी जानकारी किसी पुस्तक में नहीं थी। हर व्यक्ति सारे शास्त्रों का ज्ञाता हो यह संभव नहीं। इसलिए महर्षि पतंजलि ने सभी वेदों, उपनिषदों और शास्त्रों का अध्ययन करने के बाद उन्हें पुस्तक में संजोया जिसका नाम 'महर्षि पतंजलि योगदर्शन' है। उन्होंने योग के आठ अंग- यम,नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि बताए हैं। महर्षि पतंजलि ने यह भी स्पष्ट किया है कि योग की आवश्यकता क्यों पड़ी। यदि इस बात को साधारण शब्दों में समझा जाए तो दैनिक जीवन में हमारे जो नैतिक मूल्य हैं उनका निर्वाह हम पूरी तरह नियमों के अनुसार कर सकें। इसलिए हमें योग की आवश्यकता पड़ी।
महर्षि द्वारा बताए गए योग के आठों अंगों की संक्षिप्त व्याख्या इस प्रकार है।
यम
यम का अर्थ है सामाजिक रूप से अनुशासित होना। यानी मन से और कर्म से स्वयं को अनुशासित कर जीवन का निर्वाह करना। यम के भी पांच अंग-सत्य, अंहिसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य हैं। यम के इन पांचों नियमों को हम अपने जीवन में उतार लें तो सब कार्य आसान हो जाते हैं।
नियम
नियम में भी पांच अंग-शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्राणिधान आते हैं। इसका अर्थ है अपने लिए अनुशासित होना क्योंकि यदि हम स्वयं अनुशासित नहीं हैं तो समाज के लिए अनुशासन का उदाहरण कभी नहीं बन सकते। नियम की साधना से ही आत्मा का सच्चा विकास होता है।
आसन
आसन के बारे में महर्षि ने इसलिए वर्णित किया ताकि हम अपने शरीर को सुदृढ़ कर सकें, आरोग्य रख सकें। दैनिक जीवन में हम योग के नियमों के अनुसार आसन करके स्वयं को शारीरिक रूप से स्वस्थ रख सकते हैं। कहा भी गया है स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का वास होता है।
यदि आप स्वस्थ और सदैव प्रसन्नचित्त रहना चाहते हैं तो योग को अपनाएं। जब आप योग अपनाएंगे तो आपकी चेतना जागृत होने लगेगी और निरंतर अभ्यास से आप परमात्मा से एकाकार कर सकेंगे। ' — डॉ. मनोज उप्रेती, योगाचार्य, हरिद्वार |
प्राणायाम
इसमें महर्षि पतंजलि ने बताया है कि कैसे आप अपनी प्राणवायु को नियंत्रण में रख सकते हैं ? प्राणवायु यानी श्वास के माध्यम से ली जाने वाली 'ऑक्सीजन' जो शिराओं द्वारा रक्त में पहुंचकर हमारे हृदय और मस्तिष्क को चलायमान रखती है। प्राणायाम में उन्होंने व्याख्या की है, 'जैसे-जैसे हमारे शरीर में प्राणवायु का आवागमन होता है वैसे-वैसे हमारा मन भी चंचल होता रहता है। प्राणायाम द्वारा हम अपने मन पर नियंत्रण पाना सीखते हैं। प्राणायाम का मूल उद्देश्य मात्र श्वास लेना और छोड़ना नहीं है, इसका अर्थ है कि आप कितनी देर प्राणवायु यानी श्वास के साथ और कितनी देर प्राणवायु के बिना यानी श्वास लिए बिना रह सकते हैं। प्राणायाम का अभ्यास यानी 'कुंभक का अभ्यास।' कुंभक भी दो प्रकार का होता है- बाह्य कुंभक और आभ्यंतर कुंभक। बाह्य कुंभक यानी शरीर के बाहर प्राणवायु को छोड़कर बिना सांस के रहना। आभ्यंतर कुंभक यानी प्राणवायु को खींचकर शरीर के अंदर रोककर रखना।
प्रत्याहार
प्रत्याहार यानी जब हमारा मन पूर्णतया हमारे नियंत्रण में आ जाता है तो हम अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण करना भी सीख लेते हैं।
ल्ल धारणा
जब हमारी इंद्रियां हमारे वश में हो जाती हैं तो हम धारणा पर आते हैं। धारणा में हम अपने चित्त यानी अपने मन को एक बिंदु पर टिकाना (केंद्रित करना) सीखते हैं और धारणा का निरंतर अभ्यास ही ध्यान है। जब हमारा मन किसी एक बिंदु पर केंद्रित होने लगता है तो हम ध्यान की अवस्था में आ जाते हैं।
ध्यान
धारणा के सतत् अभ्यास द्वारा पहले व्यक्ति ध्यान की अवस्था में चला जाता है। इसके बाद ध्यान में रहते हुए जब साधक को अपने श्वास की गति और मन में चलने वाले सभी विचारों की अनुभूति बंद हो जाती है तो वह समाधि की अवस्था में पहुंच जाता है।
समाधि
योग की अंतिम अवस्था को समाधि कहा गया है। योगाचार्य डॉ. मनोज उप्रेती बताते हैं कि समाधि की अवस्था में निरंतर अभ्यास के साथ यदि साधक को भिन्न-भिन्न अनुभूति होने लगें तो उसे विभूतिपाद कहते हैं। इसमें साधक की साधना इतनी हो जाती है कि वह किसी भी बात का पूर्वावलोकन कर सकता है। अपने शरीर का त्याग कर सूक्ष्म शरीर (आत्मा) द्वारा कहीं पर भी गमन कर सकता है और यदि इन सब बातों से भी व्यक्ति को वैराग्य हो जाए तो उसे कैवल्य पाद (मोक्ष की प्राप्ति) कहते हैं। यहां साधक का परमात्मा से साक्षात्कार होता है और वह मोक्ष को प्राप्त कर लेता है यानी जीवन और मरण के चक्र से उसे छुटकारा मिल जाता है।
बहरहाल यदि आज के समय में योग की बात करें तो स्वयं को स्वस्थ रखने के लिए योग को अपनाना बेहद आवश्यक है। योग ही एक ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा आप आंतरिक और बाह्य दोनों तरह से स्वस्थ रह सकते हैं। रोग चाहे शारीरिक हों या फिर मानसिक उन्हें दूर करने के लिए पहले तनाव को दूर करना जरूरी है और ऐसा सिर्फ योग के द्वारा ही संभव हो सकता है। हो सकता है आप शारीरिक रूप से बड़े स्वस्थ और बलिष्ठ दिखाई पड़ते हों लेकिन आंतरिक तौर पर आप स्वस्थ न हों। व्यायाम आपको बलिष्ठ बना सकता है लेकिन स्वस्थ नहीं। आधुनिक विज्ञान और चिकित्सा जगत भी इस बात को मानता है कि रोगमुक्ति के लिए पहले तनावमुक्त होना जरूरी है । योग के नियमों को अपनाकर जब हम स्वयं को मन और कर्म दोनों से संतुलित कर लेते हैं तो स्वत: ही तनाव मुक्त हो जाते हैं। हमारा शरीर संतुलित होने लगता है। जब शरीर की सभी तंत्रिकाएं सुचारु रूप से कार्य करने लगती हैं तब शरीर स्वत: ही रोगमुक्त होने लगता है। इसके बाद न तो व्यक्ति को कोई शारीरिक रोग होता है और न ही मानसिक। समाज में सैकड़ों की संख्या में ऐसे लोगों के उदाहरण हैं जो योग को अपनाने के बाद असाध्य रोगों से भी बाहर निकल आए।
दिल्ली के राजौरी गार्डन इलाके में रहने वाले 54 वर्षीय नीलेश गुलाटी इंडियन ओवरसीज बैंक में 'सहायक प्रबंधक' हैं। परिवार में पत्नी, एक बेटा और बिटिया है। वर्ष 2013 में उन्हें अचानक चक्कर आने शुरू हो गए। कई बड़े अस्पतालों के डॉक्टरों को उन्होंने दिखाया तो उन्हें बताया गया कि वह 'सरवाइकल' से पीडि़त हैं। महंगे से महंगे उपचार के बाद भी वह स्वस्थ नहीं हुए। एक दिन अचानक वह बेहोश हो गए। जब उनकी जांच हुई तो पता चला कि 'ब्रेन ट्यूमर' है। डॉक्टरों ने ऑपरेशन कर उनका ट्यूमर निकाल दिया। उनका ट्यूमर तो निकल गया लेकिन उनकी आवाज चली गई। बहुत से बड़े डॉक्टरों से उन्होंने उपचार करवाया लेकिन उनकी आवाज ठीक नहीं हुई। उनके पड़ोस में स्थित पार्क में भारतीय योग संस्थान की कक्षाएं लगती थीं। अपने एक परिचित के कहने पर नीलेश ने सुबह वहां जाना शुरू किया। कुछ महीनों के योग केअभ्यास के बाद उनकी आवाज वापस लौटने लगी। फिर धीरे-धीरे उन्होंने दवाइयां खानी भी बंद कर दीं। पिछले साल भर से वह बिना दवाइयों के सिर्फ योग के द्वारा अपने को स्वस्थ रख पाने में सक्षम हो गए हैं। योग ने उन्हें नया जीवन दिया है। यदि आज वह अपने बच्चों के साथ सामान्य जीवन जी पा रहे हैं तो उसका कारण है सिर्फ योग का अभ्यास।
कनाट प्लेस के पास स्थित 'रेलवे ऑफिसर्स' कॉलोनी में रहने वाली 55 वर्षीय दीप्ति रामचंदानी ऑस्टोपीनिया (एक बीमारी जिसमें हड्डियों के बीच में अंतर आ जाता है और हड्डियां कमजोर होने के कारण पूरे शरीर में दर्द रहता है) से पीडि़त थीं। उनके घुटने बिल्कुल बेकार हो चुके थे। वह सीढि़यां नहीं चढ़ पाती थीं। एलोपैथी से उन्हें जरा भी फायदा नहीं हो रहा था। स्थिति ऐसी हो गई थी कि यदि वह ठीक नहीं होती, चलने में फिरने में कभी भी असमर्थ हो सकती थीं। जब कहीं से फायदा नहीं हुआ तो उन्होंने योग को अपनाया और आयुर्वेद के नियमों के हिसाब से अपने खानपान में परिवर्तन किया। नियमित अभ्यास से वह बिल्कुल ठीक हो गई। श्रीमती रामचंदानी आज पूरी तरह स्वस्थ हैं। कैसा भी मौसम क्यों न हो वह योगाभ्यास करना नहीं छोड़तीं। अब उन्हें दवाइयां भी नहीं खानी पड़तीं।
सरस्वती विहार दिल्ली में रहने वाले सुनील गाबा का इलेक्ट्रॉनिक्स का व्यवसाय है। वह 'लाइपोगा' नाम की बीमारी से पीडि़त थे। लाइपोगा में पूरे शरीर में छोटी-छोटी गांठें हो जाती हैं। इस बीमारी का आधुनिक चिकित्सा में कोई उपचार नहीं है। वर्ष 2005 में उन्होंने अपना ऑपरेशन कराया और कमर की गांठ निकलवा दी लेकिन इसके बाद उन्हें फिर से कई गांठें हो गईं। वर्ष 2014 में उन्होंने योग की राह पकड़ी। जैसे-जैसे उनका अभ्यास बढ़ता गया उनके शरीर से गांठें गायब होती गईं। श्री गाबा का कहना है कि योग से उन्हें बहुत फायदा मिला है। वह नियमित योग करते हैं।
योग की उत्पत्ति संस्कृत की 'युज' धातु से हुई है जिसका अर्थ है जोड़ना। योग शब्द के दो अर्थ हैं और दोनों ही महत्वपूर्ण हैं। पहला है जोड़ और दूसरा है समाधि। जब तक हम स्वयं से नहीं जुड़ते, समाधि तक पहुंचना असंभव होगा। योग का अर्थ परमात्मा से मिलन है। वर्ष 1920 में पुरातत्व वैज्ञानिकों ने सिंधु सरस्वती सभ्यता को खोजा था जिसमें प्राचीन हिंदू धर्म और योग की परंपरा होने के साक्ष्य मिलते हैं। सिन्धु सभ्यता को 3300 से 1700 ईसा पूर्व मना जाता है। योग पर लिखा गया सर्वप्रथम सुव्यवस्थित गं्रथ है 'पतंजलि योगसूत्र '। भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं 'संन्यास: कर्मयोगश्च नि:श्रे्रय सकरावुभौ ,तयोस्तु कर्म संन्यास साकर्म योगो विशिष्यते' अर्थात संन्यास माध्यम से किया जाने वाला कर्म (सांख्य -योग) और निष्काम माध्यम से किया जाने वाला कर्म (कर्म-योग) है। ये दोनों ही परमश्रेय को दिलाने वाले हैं। परन्तु सांख्य-योग की अपेक्षा निष्काम कर्मयोग श्रेष्ठ है। दक्ष स्मृति में कहा गया है कि 'लोको वशीकृत येन यन चात्मा वशीकृत: इन्द्रियार्थो जितोयने ते योग प्रब्रवाम्यहम्' अर्थात योग से मनुष्य सारे संसार को वश में कर सकता है। बिना योग शक्ति के किसी को भी वश में करना संभव नहीं है। बिना योग के व्यवहार का भी ज्ञान नहीं होता न ही इंद्रियों की गतिविधियों को नियंत्रित किया जा सकता है। |
योग से मधुमेह पर पाया काबू
वर्ष 2012, 13 में और 14 के पूर्वार्द्ध तक मेरा खाली पेट शर्करामान 118 से 154 के बीच, भोजन के दो घण्टे बाद का शर्करामान 107 से 214 के बीच तक आते रहे। मैंने इन सबको कभी गम्भीरता से नहीं लिया। हालांकि 2009 में महीने भर डॉ. नागेन्द्र के स्वामी विवेकानन्द योग अनुसंधान केन्द्र, बेगलुरू में एक महीने साधना कर चुका था। मैं सोचता रहा इतना योगाभ्यास करता हूं (यद्यपि उस समय वह नियमित-अनियमित चलता था), मुझे मधुमेह कैसे हो सकता है। अमरीका जाने से चार दिन पूर्व 27 जून 2014 को किये गये परीक्षणों में मेरा खाली पेट शर्करामान 173 और भोजनोपरान्त का 222 था। अमरीका-प्रवास के 120 दिनों में न तो मैंने कोई परहेज किया और न ही कोई परीक्षण करवाया। योगाभ्यास नियमित तौर पर नहीं हो पाया। लौटने पर 3 नवम्बर को जब 160 और 275 के आंकड़े आए तो चिन्ता हुई। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के वृद्धरोगी विभाग पहुंचा। पहले से परिचित डा़ प्रसून चटर्जी बड़े नाराज। उन्होंने तुरन्त गोली खाने की हिदायत दी। मैंने योगाभ्यास और प्रात:भ्रमण को नियमित किया। आठ दिन बाद 11 नवम्बर को इन आंकड़ांे को 147 और 165 पर ले आया। तीन दिसम्बर को 'एण्डो विभाग' के बहि:रोगी विभाग में दस्तक दी। वहां से भी गोली खाने की हिदायत मिली और ढेर सारे परीक्षण तथा आंखों की जांच कराने को कहा गया। वहां से मैं सीधा अपने मित्र योग चिकित्सक अबोध जी के पास पहुंचा। उन्होंने बड़े ध्यान से मेरी सारी बातें सुनीं और मेरे लिए एक आहार तालिका बनाई। मैंने उसी के अनुसार समय से खाना-पीना शुरू कर दिया और अगले दिन से उस कड़ाके की ठण्ड के दिनों में पूरी कड़ाई से 55 मिनट का यथासम्भव तेज चलना, विविध योगासन या 25 सूर्यनमस्कार शुरू कर दिए। मैं पसीने से नहा जाता था। रक्त एवं मूत्र के नमूने लिये गए। 28 दिसम्बर को वरिष्ठ चिकित्सक एवं प्राध्यापक राजेश खडगेकर बहि:रोगी विभाग के कक्ष में थे। परीक्षण परिणाम थे 128, 157 और 7़2, मूत्र में कोई विकार नहीं। नेत्र मैं पहले ही दिखा आया था। वे पूरी तरह ठीक थे। डॉ़ खडगेकर ने पूछा, गोली चल रही है? मैंने कहा, अभी प्रारम्भ नहीं की है। पर्चे पर लिखते हुए बोले, आवश्यकता भी नहीं है। मेरे उठने से पूर्व स्वत: ही कहा, यदि साढ़े चार, पांच किलोमीटर ठीक गति से रोज़ सबेरे टहलने जा सकते हैं तो मधुमेह आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। बस आहार का थोड़ा संयम बरतें।
शांति प्रसाद अग्रवाल, पूर्व कार्यक्रम नियंत्रक, दूरदर्शन
श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है- संन्यास: कर्मयोगश्च नि:श्रेयसकरावुभौ। तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते।। यानी संन्यास माध्यम से किया जाने वाला कर्म (सांख्यायोग)और निष्काम माध्यम से किया जाने वाला कर्म (कर्मयोग), ये दोनों ही परम श्रेय को दिलाने वाले हैं परन्तु सांख्ययोग की अपेक्षा निष्काम कर्मयोग श्रेष्ठ है। |
–आदित्य भारद्वाज
टिप्पणियाँ