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यह सत्य है कि संसार नित्य है,मसलन जितनी धरती का क्षरण होता है, उतनी ही धरती साकार हो जाती है, ऐसे ही जितना जीवन हम समाप्त होते हुए देखते हैं, उतने ही जीवन को हम आकार लेते हुए देखते हैं, जीवन नित्य है, इसका अनुभव हम सब कर सकते हैं, पुरुषसूक्त में आत्मस्थित हो ऋषि महाविष्णु आकार बताते हुए कहते हैं कि सबकी आंखें,सबके पैर, ये भूमि और ये ब्रह्मांड सब मिलाने के बाद भी उनका आकार-''अत्यतिष्ठ दशांगुलम् यानी दस अंगुल बड़ा रहता है। दरअसल ये एक सूक्त यानी सूत्र है, सूत्र को समझना जरूरी है, समझने के लिए भी अंतर्मुखी होना जरूरी है, ताकि हम ये समझ सकें, कि मेरी आंखें, आपकी आंखें और इस दुनिया में हर व्यक्ति आंख मिलाने के बाद उस परमात्मा की आंखें बनती हैं, सबके पैर मिलने पर उसके पैर बनते हैं। वेद का ऋषि कहता है, चूंकि हम सबके भीतर उसी परम चेतना का जीवन रस बह रहा है, इसीलिए जीवन के जो भी रूप हैं, उन सबका कारण वही है, फिर क्या भारतीय, क्या अमरीकी और क्या पाकिस्तानी। दरअसल अथर्ववेद का ऋषि अंगिरा पृथ्वी को टुकड़ों में नहीं बांटता, वह तो उसे एक इकाई के तौर पर देखता है, जब अंगिरा अपने और इस धरती के बीच संबंध के बारे में शोध करता है, तो अचानक बोल उठता है, माता भूमि पुत्रो अहम् पृथिव्या:। ये भूमि मेरी माता है, इसका पुत्र हूं, अमरीका, पाकिस्तान या भारत मेरी माता है, वह ऐसा नहीं कहता। यही उसकी ब्रॉडनेस है, उसे मस्तिष्क का खुलापन है।
इसी खुलेपन की वकालत स्वामी विवेकानंद करते हैं, जब एक इसाई महिला उनसे हिंदू बनने के लिए कहती है तो उनके मन में लोभ पैदा नहीं होता, बल्कि वह सहजता से कहते हैं, इसकी कोई जरूरत नहीं है, तुम एक अच्छा ईसाई बनने की कोशिश करो' उनके कहने का संकेत तो यही था कि जैसे ही तुम अच्छा बनने की कोशिश करोगे, तुम खुद को हिंदू या हिंदू के नजदीक पाओगे, तब तुम्हारे अंदर से सिर्फ में ही नहीं, निकल जाएगा, तब तुम हिंदू बन जाओगे, योगी बन जाओगे। क्योंकि महज आसन करने का नाम योग नहीं, क्योंकि अगर फ्लेक्सि बॉडी का मतलब ही योग होता तो सड़क के किनारे लोहे के एक छल्ले से निकल जाने वाले नटों के बच्चे सबसे बड़े योगी साबित होते, जाहिर है, ऐसा नहीं है। ये बात योग करने वालों से ज्यादा योग कराने वालों को समझना जरूरी था। मुझे लगता है कि ऐसा ना समझने की वजह से योग बीमारी से तो थोड़ा बहुत राहत दे सकता है, लेकिन उस लक्ष्य तक नहीं ले जा सकता, जो उसका अभीष्ट है।
योग क्या है ़.़.
हर योगी कीअपनी यात्रा होती है, उस यात्रा में उसने जो अनुभव किया, जहां तक अनुभव किया, वही उसका योग होता है, बात रही समाधि की भूमि में ड्रिल करते जाइए-करते जाइए, उस संघर्ष के बाद जब मीठे पानी का स्वाद चखने को मिलता है, उसका जिक्र मेरे लिए करना अभी मुश्किल है, लेकिन अनुभवजन्य एक बात मै जरूर कह सकता हूं कि सबसे परिचित होना, और सबको अपना परिचय देना यही योग है, इससे क्या होता है ? इससे धीरे-धीरे आपका आकार बढ़ता है, लेकिन अगर आप ऐसा नेता बनने या किसी स्वार्थ की वजह से कर रहे हैं, तो वह सिद्घि आपको नहीं मिल सकती। यही वजह है कि संसार का एक भी राजा कभी योगी नहीं हुआ, क्योंकि योग तो देने का नाम है, त्याग का नाम है, लेने का नाम नहीं है, अपने कर्तव्यों का समिधा के रूप में हवन करना है, लोककल्याण के लिए, अपने लिए नहीं, नेता तो अधिकारों की जीतोड़ कोशिश करता है, फिर वह अच्छा हो या बुरा इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
योगी कौन ?
वह जो लोगों को अपना मानता है, अपने ही षरीर का हिस्सा मानता है, उनके दुखों को दूर करने का प्रयास करता है, उनके सुख में शरीक होता है। इसके उलट लोग जिसे अपना मानते हैं, उसमें शामिल हो जाते हैं, उसके हो जाते हैं, जब उसका योग अपने चरम पर होता है तो वह खिंचे चले आते हैं, महर्षि अरविंद ओरविले में बसने के लिए किसी को निमंत्रण नहीं भेजते, लेकिन दुनिया भर के लोग एक परिवार की तरह एक ही छत के नीचे खाने-पीने और रहने के लिए निकल पड़ते हैं, खुद को विश्व पुरुष बनाने के लिए, क्योंकि समाज तो समष्टि का ही प्रतिनिधि है, जिसकी सीमाएं पूरे विश्व को अपने आगोश में ले लेती हैं। खुद को उस समाज का प्रतिनिधि मान उसका महत्वपूर्ण हिस्सा बन जाना ही योग है। अगर कोई मेरा योग तेरा योग के चक्कर में पड़ता है, तो सच मानिए वह समाज को भटकाव के रास्ते पर ले जा रहा है।
जाना कहां ़.़.़
अगर आपने परमात्मा को नहीं देखा तो देख लीजिए, ये विश्व समाज ही परमात्मा का सबसे बड़ा प्रतिनिधि है। हर व्यक्ति का योगी होना, और योग के जरिए दुनिया भर के लोगों को ये अनुभव कराना कि जो भेद वे देख रहे हैं, दरअसल वहां भेद है ही नहीं, ये समाज तो सत्य है, नित्य है, चला आ रहा है, ये आज से लाखों साल पहले भी था, है, और इस पुण्य प्रवाह के लगातार आगे बढ़ते जाने की संभावना बनी हुई है। दुनिया भर के लोगों को ये पहचान कराना कि जीवन का आधार रक्त है, रक्त का आधार भोजन है, और भोजन का आधार ये धरती है, दुनिया भर के लोग इसी आधार पर टिके हैं, इसके बगैर जो भी बातें हैं वह निराधार साबित हुई हैं। विवेकानंद कहते हैं कि अगले डेढ़ सौ साल के लिए इसी आधार को अपना आराध्य बनाओ।
कोई सवाल पूछ सकता है कि दुनिया में सवार्ेत्तम् कर्म कौन सा है, इसका जवाब तो श्रीकृष्ण ही दे सकते हैं, वह कहते हैं, सबसे अच्छा काम तो लोगों को जोड़ना और जोड़ते जाना है। दरअसल लगातार जोड़ते जाने की इस प्रक्रिया को ही कृष्ण ने लोकसंग्रह कहा, और इसी को सवार्ेत्तम कर्म भी बताया। संघ संस्थापक ने इसी मंत्र के सहारे एक-एक व्यक्ति को जोड़ने की जो साधना की थी, उसके सुफल संसार भर में फलीभूत हो रहे हैं। एक उम्मीद, एक आषा फिर से जगी है, उम्मीद ये कि बरसों से सोये भरत पुत्र फिर से जागेंगे, खुद को पहचानेंगे, और आत्मविस्मृत समाज को, उसके सभी सवालों के जवाब देने योग्य बनेंगे कि वे क्या है? कैसा? और उसका अंतरसंबंध क्या है? इन सवालों का जवाब पाकर जब समाज समझदार बनेगा, तब ज्ञान का पहला दरवाजा खुलेगा, मुक्ति का मार्ग यहीं से षुरू होता है, वह भी बिना मृत्यु के ़.़.़ ल्ल
पादांगुष्ठ-नासाग्र-स्पर्शासन
पृथ्वी पर सम की अवस्था में पीठ के बल सीधा लेट जाएं। दृष्टि को नाक के अग्र भाग में जमाकर दाएं पैर के अंगूठे को पकड़कर नाक के अग्रभाग को स्पर्श करें। बायां पैर और नितम्ब पृथ्वी पर जमे रहें। इसी प्रकार दाएं पैर को फैलाकर बाएं पैर के अंगूठे को नाक के अग्रभाग से स्पर्श करें। फिर दोनों पैरों के अंगूठों को दोनों हाथों से पकड़कर नासिका के अग्रभाग को स्पर्श करें।
लाभ : कमर का दर्द, घुटने की पीड़ा, कन्द-स्थान की शुद्धि एवं उदर-सम्बंधी रोगों का नाश होता है।
द्विपाद-चक्रासन
हाथों के पंजे नितम्ब के नीचे रखकर चित लेट जाएं। एक पैर घुटने से मोड़कर घुटने को पेट के पास लाएं। दूसरा पैर थोड़ा ऊपर उठाकर बिल्कुल सीधा रखें और इस प्रकार पैर चलाएं जैसे साइकिल पर बैठकर चलाते हैं।
लाभ : इससे नितम्ब, कमर, पेट और टांगों की बीमारियां ठीक होती हैं और वीर्य शुद्ध, पुष्ट और स्थिर रहता है। -रामबीर सिंह
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