बालवत् होना ही योग का चरम
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बालवत् होना ही योग का चरम

by
Jun 13, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 13 Jun 2015 14:30:00

जिन लोगों को मन के पार जाना है, उन्हें हृदय, मस्तिष्क दोनों से उतरकर नाभि के पास वापस लौटना होता है। अगर आप फिर से अपनी चेतना को नाभि के पास अनुभव कर सकें, तो आपका मन तत्क्षण ठहर जाएगा। तो इस ध्यान की प्रक्रिया के लिए, जिसको मैं निश्चल ध्यान योग की तरफ एक विधि कहता हूं, दो बातें ध्यान में रखने जैसी जरूरी हैं। जैसा कि सूफी फकीरों को अगर आपने देखा हो प्रार्थना करते तो जिस भांति घुटने मोड़कर वे बैठते हैं… वैसे घुटने मोड़कर बैठ जाएं। बच्चे के घुटने ठीक उसी तरह मुड़े होते हैं मां के गर्भ में। आंख बंद कर लें, शरीर को ढीला छोड़ दें और श्वास को बिलकुल शिथिल छोड़ दें, ताकि श्वास जितनी धीमी और जितनी आहिस्ता आए—जाए, उतना अच्छा। श्वास जैसे न्यून हो जाए, शांत हो जाए। श्वास को दबाकर शांत नहीं किया जा सकता है। अगर आप रोकेंगे, तो श्वास तेजी से चलने लगेगी। रोकें मत, सिर्फ ढीला छोड़ दें।
आंख बंद कर लें, और अपनी चेतना को भीतर नाभि के पास ले आएं। सिर से उतारें हृदय पर, हृदय से उतारें नाभि पर। नाभि के पास चेतना को ले जाएं। श्वास का हल्का—सा कंपन पेट को नीचे—ऊपर करता रहेगा। आप अपने ध्यान को आंख बंद करके वहीं ले आएं, जहां नाभि कंपित हो रही है। श्वास के धक्के से पेट ऊपर—नीचे हो रहा है, आंख बंद करके ध्यान को वहीं ले आएं। शरीर को ढीला छोड़ते जाएं। थोड़ी ही देर में शरीर आपका आगे झुकेगा और सिर जाकर जमीन से लग जाएगा। उसे छोड़ दें और झुक जाने दें। जब सिर आपका जमीन से लग जाएगा, तब आप ठीक उस हालत में आ गए, जिस हालत में बच्चा मां के पेट में होता है। शांत होने के लिए इससे ज्यादा कीमती आसन जगत में कोई भी नहीं है। आसन ऐसा हो जाए, जैसा गर्भ में बच्चे का होता है; और आपका ध्यान नाभि पर चला जाए। बच्चे का ध्यान और चेतना नाभि में होती है। आपका ध्यान भी नाभि पर चला जाए। अनेक बार ध्यान उचट जाएगा, कहीं कोई आवाज होगी, ध्यान चला जाएगा। कहीं कोई बोल देगा कुछ, ध्यान चला जाएगा। नहीं कहीं कुछ होगा, तो भीतर कोई विचार आ जाएगा, और ध्यान हट जाएगा। उससे लड़ें मत। अगर ध्यान हट जाए, चिंता मत करें। जैसे ही ख्याल में आए कि ध्यान हट गया, वापस अपने ध्यान को नाभि पर ले आएं। किसी कलह में न पड़े, किसी उलझन में न पड़ें कि यह मन मेरा क्यों हटा! यह मन बड़ा चंचल है, यह क्यों हटा! नहीं हटना चाहिए। इस सब व्यर्थ की बात में मत पड़े। जब भी ख्याल आ जाए, वापस नाभि पर अपने ध्यान को ले आएं। और चालीस मिनट कम से कम ठीक ऐसे बच्चे की हालत में मां के गर्भ में पड़े रहें।  संभावना तो यह है कि दो—चार—आठ दिन के प्रयोग में ही आपको एक गहरी निश्चलता भीतर अनुभव होनी शुरू हो जाएगी। ठीक आप बच्चे के जैसी सरल चेतना में प्रवेश कर जाएंगे। मन ठहरा हुआ मालूम पड़ेगा। जितना नाभि के पास होंगे, उतनी देर मन ठहरा रहेगा। और जब नाभि के पास रहना आसान हो जाएगा, तो मन बिल्कुल ठहर जाएगा।
मन भी चलता है, हृदय भी चलता है, नाभि चलती नहीं। मन की भी दौड़ है, विचार की भी दौड़ है, भाव की भी दौड़ है, नाभि की कोई दौड़ नहीं। अगर ठीक से समझें, तो मन भी भविष्य में होता है, हृदय भी भविष्य में होता है, नाभि वर्तमान में होती है—
जो आदमी नाभि के पास जितना जाएगा अपनी चेतना को लेकर, उतना ही वर्तमान के करीब आ जाएगा। जैसे बच्चा नाभि से जुड़ा होता है मां से, ऐसे ही एक अज्ञात नाभि के द्वार से हम अस्तित्व से जुड़े हैं। नाभि ही द्वार है।
लोगों को कभी शरीर के बाहर होने का अनुभव हुआ होता है। पृथ्वी पर बहुत लोगों को कभी—कभी, अचानक, आकस्मिक हो जाता है। अचानक लगता है कि मैं शरीर के बाहर हो गया। तो जिन लोगों को भी शरीर के बाहर होने का आकस्मिक, या ध्यान से, या किसी साधना से अनुभव हुआ हो, उनको एक अनुभव निश्चित होता है, कि जब वे अपने को शरीर के बाहर पाते हैं, तो बहुत हैरानी से देखते हैं कि उनके और उनके शरीर के बीच, जो नीचे पड़ा है, उसकी नाभि से कोई एक प्रकाश की किरण की भांति कोई चीज उन्हें जोड़े हुए है। पश्चिम में वैज्ञानिक उसे सिल्वर कॉर्ड, रजत— रज्जु का नाम देते हैं। जैसे हम मां से जुड़े होते हैं इस भौतिक शरीर से, ऐसे ही इस बड़े जगत, इस बड़े अस्तित्व से, इस प्रकृति या अस्तित्व के गर्भ से भी हम नाभि से ही जुड़े होते हैं। तो जैसे ही आप नाभि के निकट अपनी चेतना को लाते हैं, मन निश्चल हो जाता है।
वैज्ञानिक अर्थ में इसका अर्थ होता है कि हम बच्चे की उस आत्यंतिक अवस्था में पहुंच जाएं, जब बच्चा होता ही नहीं, मां ही होती है। और बच्चा मां के सहारे ही जी रहा होता है। न अपनी कोई हृदय की धड़कन होती है, न अपना कोई मस्तिष्क होता; बच्चा पूरा समर्पित, मां के अस्तित्व का अंग होता है। ठीक ऐसी ही घटना निश्चल ध्यान योग में घटती है। आप समाप्त हो जाते हैं और परमात्मा के साथ एकाकार हो जाता है। और परमात्मा के द्वारा आप जीने लगते हैं।
इसका ठीक वही अर्थ है, जो बच्चे और मां के बीच स्थूल अर्थ है, वही अर्थ साधक और परमात्मा के बीच सूक्ष्म अर्थ है। इस प्रयोग को थोड़ा करेंगे, तो जो अर्थ स्पष्ट होंगे, वे अर्थ शब्दों से स्पष्ट नहीं किए जा सकते।  

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