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परसों शर्मा जी के घर एक विशेष प्रकार का यज्ञ हुआ। उसमें हवन सामग्री के साथ ही ढेर सारी लाल मिचार्ें की भी आहुति दी गयी। आग में पड़ने से एक ओर मिर्चें चटक रही थीं, तो दूसरी ओर पंडित जी 'फट स्वाहा, हट स्वाहा' जैसे मंत्र बोल रहे थे। प्रसाद में भी मिष्ठान की बजाय तेज मिर्च वाले पकौड़े दिये गये।
अगले दिन मैंने शर्मा जी से इसका रहस्य पूछा। उन्होंने बताया कि जन्म से ही उन पर कई बाधाओं और अनिष्ट ग्रहों की छाया मंडरा रही है। अत: उनका हर काम बनते-बनते बिगड़ जाता है। आज 65 साल बाद फिर से उन्हीं ग्रहों और नक्षत्रों का योग बना है, जो जन्म के समय थे। उनके निवारण के लिए यह 'दुष्काल यज्ञ' किया था। इसमें मिर्चें होम इसलिए की गयी थीं, जिससे उनकी तीव्रता से वे अनिष्ट ग्रह और बाधाएं भाग जाएं।
शर्मा जी मेरे बचपन के मित्र हैं। उनके जीवन की प्राय: हर घटना और दुर्घटना का मैं साक्षी हूं। एक बार उन्होंने बताया था कि उनके जन्म वाले दिन भारी आंधी और चक्रवात से सैकड़ों लोग मारे गये थे। इसलिए दादी उन्हें 'आंधीलाल' भी कहती थीं। कक्षा पांच के बाद पिताजी उन्हें नगर के बड़े स्कूल में कक्षा छह में बैठाकर आये थे; पर अगले दिन वे गलती से कक्षा पांच वाले कमरे में जा बैठे। अत: उनका नाम वहीं लिख लिया गया। इस तरह उनका एक साल खराब हो गया। हाई स्कूल में वे विज्ञान लेना चाहते थे; पर उसकी सब सीट भर जाने के कारण उन्हें मजबूरी में कलाओं से सिर मारना पड़ा। परीक्षा में यों तो वे कई कॉपी भरते थे; पर अंक सदा 'रॉयल श्रेणी' के ही आये। कक्षा बारह में द्वितीय श्रेणी लाने पर उनके पिताजी ने घर में पुताई करायी और पूजा के बाद पूरे गांव को भोज दिया था।
बी़ए. करते ही पड़ोस के गांव में उनके विवाह की चर्चा चल पड़ी। लड़की और लड़के ने एक दूसरे को देख भी लिया। शादी वाले दिन शर्मा जी ने दाढ़ी बनायी, तो मूंछ दायीं ओर कुछ ज्यादा कट गयी। उसे संतुलित करने के लिए बायीं ओर रेजर चलाया, तो हाथ थोड़ा आगे तक चला गया। एक बार फिर दायीं अैर कोशिश की; पर इस चक्कर में मूंछें जोकर जैसी हो गयीं। गुस्से में आकर उन्होंने मैदान सफाचट कर दिया। इससे उनकी मां नाराज हो गयी। क्योंकि वहां पिता के मरने पर ही मूंछें साफ करने की प्रथा थी। बड़ा हाय-हल्ला न हुआ। खैर, जैसे-तैसे बात संभली; पर वरमाला के समय फिर समस्या आ गयी। लड़की भी बड़ी तेज थी। उसने कहा कि मैंने तो मूंछवाला लड़का देखा था; पर यह तो कोई और है। मैं इसे नहीं वरूंगी। मामला बड़ा पेचीदा हो गया। जैसे-तैसे लड़की के मामा ने उसे समझाया, तब जाकर शर्मा जी दोपाये से चौपाये बन सके।
नौकरी के समय एक बार वे लिखित परीक्षा में देर से पहुंचे, तो दूसरी बार साक्षात्कार लेने वालों की कार खराब हो गयी। तीसरी जगह दो लोगों का चयन होना था, तो उनका नंबर तीसरा था। कई जगह धक्के खाने के बाद उन्हें काम मिला। नौकरी तो सरकारी थी; पर अधिकारियों से न पटने के कारण बार-बार स्थानांतरण होता रहा। उन्हें दो साल बाद समझ में आया कि मेज के ऊपर की ही तरह कई काम मेज के नीचे से भी होते हैं। चौथे साल में उन्होंने ''नौकरी के नौ काम, दसवां काम हां जी'' वाला सूत्र आत्मसात कर लिया। तब जाकर उनकी मेज से फाइलों की भीड़ कम हुई।
ऐसे कई ज्ञात-अज्ञात झंझट शर्मा जी के साथ लगे रहे। अवकाश प्राप्ति के बाद मैंने कहा कि वे अपने सब खट्टे-मीठे संस्मरण छपवा लें, तो यह 'खट्राग दरबारी' भारतीय साहित्य की एक अमूल्य धरोहर बन जाएगी। उन्होंने मेरी बात मानकर साल भर कलम घिसी; पर जिस प्रकाशक को पांडुलिपि दी, अगले दिन उसके घर में आग लग गयी। छपना तो दूर रहा, पांडुलिपि भी हाथ से गयी।
शर्मा जी का मानना था कि ये सब समस्याएं उनकी जन्मतिथि के कारण हैं। उन्होंने पंडित जी से पूछा, तो उन्होंने कपाट खुलते ही केदारनाथ भगवान के दर्शन करने को कहा। शर्मा जी का बूढ़ा शरीर, फिर भी हिम्मत कर वे केदारनाथ पहुंच गये; पर उस दिन वहां का सारा अमला एक बड़ी पार्टी के बड़े नेता जी को दर्शन करा रहा था, सो शर्मा जी का नंबर अगले दिन ही आ सका।
अब मुझे उस दिन 'दुष्काल यज्ञ' में झोंकी गयी मिचार्ें का रहस्य समझ में आया। मैंने पूछा, ''लेकिन शर्मा जी, आपके जन्म की वह विशेष तिथि थी कौन सी़.़ ?'' शर्मा जी उस मनहूस तिथि को शायद याद करना नहीं चाहते थे। इसलिए उन्होेंने मुंह टेढ़ाकर उत्तर दिया – गड़बड़ चौथ।
मुझे लगा, किसी ने मेरे मुंह में फिर से मिर्च वाले पकौड़े भर दिये हैंं। – -विजय कुमार
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