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.आनन्द मिश्र 'अभय'
नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की मृत्यु 18 अगस्त,1945 को ताइवान (पुराना नाम फारमोसा) में तथाकथित विमान-दुर्घटना (जो कभी हुई ही नहीं) में नहीं हुई थी, यह अब असंदिग्ध रूप से प्रमाणित हो चुका है। प्रमाणित तो तब ही हो गया था, जब शाहनवाज आयोग ने बिना ताइवान गए और वहां के अधिकारियों से मिले ही अपनी जांच रपट प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के मनोनुकूल दे दी थी, जबकि जांच समिति के एक सदस्य सुरेश चन्द्र बोस ने अपनी असहमति या विरोधी रपट अलग से प्रेषित की थी। नेहरू जी ने शाहनवाज आयोग की रपट पर ही हस्ताक्षर कर देने के लिए सुरेश चन्द्र बोस पर बहुत दबाव डाला था, यहां तक कि उन्हें उड़ीसा का राज्यपाल बनाने का प्रलोभन भी दिया था; पर वे झुके नहीं और अपने भाई के बारे में असत्य का अनुमोदन करने से विरत रहे। नेहरू जी का कोई जादू उन पर नहीं चला, तो नहीं चला। आखिर वे भाई किसके थे! कैसे किसी दबाव या प्रलोभन के आगे झुक जाते! सुरेश चन्द्र बोस की यह रपट दिल्ली के 'वीर अर्जुन' (दैनिक) में 1959-60 में मुखपृष्ठ पर दाहिनी ओर के स्तम्भ में क्रमश: प्रकाशित हुई थी। तब 'वीर अर्जुन' के सम्पादक थे प्रसिद्ध आर्य समाजी नेता महाशय कृष्ण के सुपुत्र के़ नरेन्द्र। 'वीर अर्जुन' की तब अपनी एक धाक थी। उसी समय 'नवभारत टाइम्स' (दैनिक) के मुखपृष्ठ पर ऊपर के दाहिने स्तम्भ में ही शौलमारी आश्रम के बाबा, जिनके विषय में कहा जाता था कि वे नेताजी थे, उत्तमचन्द मल्होत्रा, जिनके यहां काबुल में नेताजी रहे थे और जिन्होंने नेताजी को इटली के दूतावास के माध्यम से जर्मनी भिजवाने का सफल उपक्रम किया था, की शौलमारी यात्रा और बाबाजी से भेंट की रपट क्रमश: प्रकाशित होती रही थी। यहां पर यह उल्लेख समीचीन होगा कि 'पाञ्चजन्य' (साप्ताहिक) नई दिल्ली के प्रथम नचिकेता-सम्मान समारोह के समय दूसरे दिन की गोष्ठी के एक सत्र की अध्यक्षता के़ नरेन्द्र ने की थी। उनसे सुरेश चन्द्र बोस की उक्त रपट के बारे में जब जिज्ञासा की और उसके पुनर्प्रकाशन का अनुरोध किया, तो बड़े दु:खी मन से उन्होंने बताया कि उन पर कांग्रेसी सरकारों ने इतने मुकदमे दायर कर दिए थे कि कुछ न पूछो। प्रेस से सारी पुरानी फाइलें व अन्य अभिलेख पुलिस उठा ले गई थी, जो कभी वापस न मिले। किस प्रकार वे व उनके पुत्र 'वीर अर्जुन' को जीवित रख सके और रखे हैं, यह एक अलग दारुण-कथा है।
आज जब नेताजी के परिवार-जन की 1946 से 20 वर्ष तक केन्द्र सरकार द्वारा लगातार कराई जाती रही जासूसी की बात मुद्रित और वैद्युतिक प्रचार माध्यमों में चर्चा का एक महत्वपूर्ण विषय बन चुकी है, तब पता नहीं क्यों, अभी तक शाहनवाज आयोग की रपट, सुरेश चन्द्र बोस की पृथक् से दी गई रपट और खोसला आयोग की जांच रपट को प्रकाशित किए जाने की मांग क्यों नहीं उठाई जा रही? अनिल कुमार मुखर्जी आयोग की रपट सोनिया-मनमोहन सरकार द्वारा क्यों एकदम निरस्त कर दी गई; उसे प्रकाशित क्यों नहीं किया जाता? इन सारी जांच रपटों में ऐसा क्या है कि जिसे प्रकाशित करने से आसमान फट पड़ेगा? अब न एडोल्फ हिटलर है, न बेनिटो मुसोलिनी; न जोसेफ स्टालिन है, न रूजवेल्ट; न विन्सेण्ट चर्चिल है, न क्लीमेण्ट एटली; न जनरल तोजो है, न च्याङ् काई शेक; न लार्ड लुई माउण्टबेटन, न जनरल मैकआर्थर; न गांधी, न जवाहरलाल नेहरू, तो नेताजी सम्बन्धी कथित गोपनीय या अति गोपनीय पत्रावलियों को इस बहाने छिपाए रखने का क्या औचित्य कि इनके मुक्त किए जाने से कुछ देशों से हमारे सम्बन्धों पर आंच आ सकती है। अरे! आंच आनी है, तो आए, उससे डरना क्या? आंच यदि आ सकती है, तो केवल ब्रिटेन से, जिसकी अन्तरराष्ट्रीय मंच पर अमरीका का एक पिछलग्गू देश होने के अतिरिक्त और कोई छवि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद बची ही
नहीं है। अब जरा कतिपय पूर्वापर सन्दभार्ें पर एक विहंगम दृष्टि डालें। सुभाषचन्द्र बोस पर स्वामी विवेकानन्द का प्रभाव किशोरावस्था से ही था। जब वे आई़ सी़ एस़ परीक्षा में बैठने के ऊहापोह में थे, तो अपने बड़े भाई शरत् चन्द्र बोस से विचार-विमर्श किया। शरत् चन्द्र पर सुभाष का वैसा ही श्रद्धा-भाव था, जैसा वीर सावरकर का अपने बड़े भाई गणेश दामोदर सावरकर पर। शरत् बाबू का परामर्श था कि आई़ सी़ एस. करने के बाद सरकारी नौकरी करना क्या कोई जरूरी है? त्याग-पत्र दे देना। आई़ सी़ एस. करके उसे त्याग देने के बाद राजनीति के क्षेत्र में भी तुम्हारा महत्व विशेष बढ़ जाएगा; और सुभाषचन्द्र ने आई़ सी़ एस़ (कम अवधि में) किया; फिर उसे लात मारकर कांग्रेस के माध्यम से राजनीति के क्षेत्र में उतरे। प्रसिद्ध बैरिस्टर और राष्ट्रसेवी देशबन्धु चित्तरंजन दास को अपना राजनीतिक गुरु माना। कलकत्ता नगर निगम के शेरिफ बनने के बाद उनके क्रिया-कलापों को देखकर अंग्रेज चौंक गये। कांग्रेस के त्रिपुरी अधिवेशन में जब वे डॉ़ पट्टाभि सीतारामैया को हराकर राष्ट्रपति (तब कांग्रेस अध्यक्ष को राष्ट्रपति कहा जाता था) चुने गए, तो गांधी जी ने पट्टाभि सीतारामैया की हार को अपनी हार मानकर सुभाष बाबू को राष्ट्रपति पद से त्यागपत्र देने के लिए बाध्य किया। स्वास्थ्य अधिक खराब होने पर सुभाष चिकित्सार्थ वियना गए। वहीं सरदार पटेल के अग्रज विट्ठल भाई पटेल से उनकी अन्तरंगता बढ़ी। शिंकेल नामक युवती उनके पत्र टाइप करते-करते उनके निकट सम्पर्क में आई और जब वे 1941 में अंग्रेजी गुप्तचरों की आंखों में धूल झोंककर बर्लिन पहुंचे और एडोल्फ हिटलर के सहयोग से वहां आजाद हिन्द सेना का गठन किया, तो उसी शिंकेल से विवाह किया और उससे एक कन्या अनीता बोस का जन्म हुआ। सुभाष बाबू जर्मनी कैसे पहुंचे थे, इसकी कहानी अलग है।
1939 ई़ में जब द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ा, तो सुभाष ने अंग्रेजों की मूर्त्तियां सार्वजनिक स्थानों से हटाने का अभियान छेड़ा। फलत: अंग्रेजों ने उन्हें बन्दी बना लिया। इसके विरोध में आमरण अनशन की घोषणा करने पर उन्हें छोड़ दिया गया। तब वे वीर सावरकर जी से मिलने बम्बई गए। विचार-विमर्श के समय सावरकर जी ने उनसे कहा कि वे अंग्रेजों की मूर्त्तियां हटाने जैसे छोटे कायार्ें के लिए नहीं बने हैं। उनमें अपना समय व ऊर्जा व्यर्थ नष्ट न करें। यथाशीघ्र यूरोप पहुंचकर ब्रिटेन के शत्रुओं की सहायता से उस पर आक्रमण करें। इस गुप्त-मंत्रणा में सावरकर जी ने शिवाजी का औरंगजेब की कैद से निकल भागने और स्वराज्य स्थापना का उदाहरण दिया। वापसी में सुभाष बाबू डॉ़ हेडगेवार जी से मिलने नागपुर गए थे; पर कई दिन के बाद उन्हें नींद आई थी। तब वे कटि-शूल से त्रस्त थे। डॉक्टर जी की सेवा में नियुक्त कार्यकर्ता ने जब सुभाष बाबू को स्थिति बताई, तो उन्होंने जगाने से मना किया और डॉक्टर जी को बाहर से ही प्रणाम कर यह कहकर चले गए कि फिर आएंगे। डॉक्टर जी जब जगे, तो उन्होंने कार्यकर्ता को डाटा कि यह क्या किया, मुझे जगा लेना चाहिए था। फिर जिस ओर बोस गए थे, उस ओर मुंुह करके सिर नवाकर उन्हें हाथ जोड़कर प्रणाम किया। स्यात् डॉक्टर जी समझ गए थे कि अब सुभाष बाबू से कभी भेंट नहीं होगी। सुभाष जानते थे कि डॉक्टर जी अनुशीलन समिति के सदस्य रहे पुराने क्रान्तिकारी हैं। मुम्बई से लौटते ही सुभाष ने सावरकर योजना पर काम शुरू कर दिया। घर में ही गुप्तवास कर दाढ़ी बढ़ाई, चुपके से निकलकर रांची अपने भतीजे अमियनाथ बोस के पास पहुंचे। वहां से डॉ़ जियाउद्दीन के रूप में अमिय बोस उन्हें गोमो में गुप्त रूप से ट्रेन में सवार होते दूर से देखते रहे, पेशावर में उनका एक भक्त उन्हें अपने घर ले गया। फिर पठान वेष में उन्हें गूंगा-बहरा बताकर कैसे अफगानिस्तान सीमा के पार मजार की जियारत के बहाने ले जाकर काबुल उत्तमचन्द मल्होत्रा को सौंपकर वह रहमत खां बना भक्त वापस लौटा। यह विशद् विवरण 1946 में प्रकाशित पुस्तक 'सुभाष चन्द्र बोस- डॉ़ जियाउद्दीन के रूप में', में दिया गया था।
जब प्रसिद्ध क्रान्तिकारी रास बिहारी बोस ने उन्हें सन्देश भेजा कि जापान आकर वहां उनके द्वारा स्थापित आजाद हिन्द फौज का नेतृत्व जनरल मोहन सिंह से लेकर पूर्वी मोर्चे को संभालें, तब अमरीका, ब्रिटेन, फ्रांस, रूस, चीन मित्र-राष्ट्र और जर्मनी, इटली तथा जापान धुरी-राष्ट्र कहलाते थे। द्वितीय विश्वयुद्ध तब अपने चरम पर था। एक जर्मन पनडुब्बी में बैठकर सुभाष बाबू अंग्रेज व अमरीकी नौसेना से बचते-बचाते जापान पहंुचे थे और आजाद हिन्द सरकार के अध्यक्ष और आजाद हिन्द फौज के सेनापति बने। पूर्वी-एशिया की भारतीय जनता ने तभी उन्हें श्रद्धा से 'नेताजी' कहना प्रारम्भ किया था। विजयी जापानी सेना से अण्डमान निकोबार द्वीप समूह अपने अधिकार में लेकर आजाद हिन्द सरकार के अध्यक्ष के नाते सेल्युलर जेल के प्रांगण में उन्होंने ध्वजारोहण कर उसे प्रणाम अर्पित किया था। जापान के हिरोशिमा और नागासाकी नगरों पर एक-एक अणु-बम गिराकर अमरीका ने उसे आत्म-समर्पण के लिए बाध्य कर दिया, तो नेताजी ने आजाद हिन्द फौज भंग कर यथाशीघ्र अज्ञातवास में जाने की जो सफल गुप्त योजना बनायी थी, उसी के अन्तर्गत फारमोसा (अब ताइवान) में हवाई दुर्घटना में अपने मारे जाने की खबर प्रसारित कराकर वे गुप्त रूप से मंचूरिया की राजधानी मुकदन जा पहुंचे थे, जहां एक बौद्ध मठ में भिक्षु रूप में जब रह रहे थे, तो मंचूरिया पर रूसी कब्जा होते ही रूसी गुप्तचरों को हवा लग गई और वे उन्हें पकड़कर सोवियत रूस ले गए थे।
यहां पर यह स्मरण कराना आवश्यक है कि नेताजी की 'कथित हवाई दुर्घटना में मृत्यु' के समाचार पर किसी को कभी विश्वास नहीं हुआ था। काफी पहले ही यह तथ्य उजागर हो गए थे कि पूर्वी कमाण्ड के अमरीकी प्रभारी जनरल डगलस मैकआर्थर और अंग्रेजी सेना के कमाण्डर लुई माउण्टबेटन को भी इस कहानी पर कभी विश्वास नहीं रहा। उन्होंने अपनी-अपनी सरकारों को तार भेजकर कूट भाषा में सूचित किया था 'चिडि़या उड़ गई'। वे जानते थे कि सुभाषचन्द्र बोस उनकी पकड़ से बाहर निकल गए हैं। तभी से अमरीकी व अंग्रेज जासूस सुभाष बाबू के बारे में लगातार जानकारी पाने के लिए प्रयत्नशील रहे। इसी प्रयत्न में जवाहरलाल नेहरू भी नेताजी के परिजनों की जासूसी कराने में निरन्तर लगे रहे, जो इन्दिरा गांधी के समय 1968 तक जारी थी।
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