सप्ताह का साक्षात्कार- 'पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाने वालों को पाकिस्तान भेज देना चाहिए'
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सप्ताह का साक्षात्कार- 'पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाने वालों को पाकिस्तान भेज देना चाहिए'

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Apr 28, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 28 Apr 2015 11:13:08

पिछले कई वर्षों से मुसलमानों को राष्ट्र की मुख्यधारा में लाने एवं जागरूक करने के अभियान में 'मुस्लिम राष्ट्रीय मंच' के संरक्षक श्री इन्द्रेश कुमार निरंतर सक्रिय हैं। दिल्ली प्रवास के दौरान पाञ्चजन्य ने मुसलमानों से जुड़े विभिन्न मुद्दों पर श्री इन्द्रेश कुमार से बातचीत की। यहां प्रस्तुत हैं बातचीत के संपादित अंश :-
– मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के माध्यम से आप कई वर्षों से भारत में मुसलमानों को राष्ट्रवाद से जोड़ने और विकास की मुख्यधारा में शामिल करने में सक्रिय हैं। क्या लगता है मुसलमान अभी तक पिछड़े हुए क्यों हैं?
1947 में भारत के विभाजन की जो नींव रखी गई थी उसमें जो आधारभूत सिद्धांत था वह राष्ट्रीयता या कौमियत के आधार पर नहीं बल्कि मजहब, जाति व भाषा के आधार पर एक देश के निर्माण का था। अंग्रेजों ने, कुछ भटके बुद्धिजीवियों ने और कट्टरपंथी अलगाववादियों ने मजहबी राष्ट्रवाद का नारा लगाया। जो एक बड़ा झूठ था। दुनिया के देशों का परिचय ईसाई सनातनी, शिया-सुन्नी, प्रोटेस्टेंट, शैव या बौद्ध के रूप में नहीं मिलता बल्कि वे अमरीकी, ब्रिटिश अथवा जापानी के रूप में पहचाने जाते हैं। देश का विभाजन झूठ से, नफरत से और शैतानियत के आधार पर किया गया था। इसका परिणाम हमारे सामने है भारत ने तो बड़े सदमे को सहकर भी विकास और सद्भावना के मार्ग पर चलकर स्वयं को विश्व मंच पर अग्रणी बना दिया है। जबकि मजहब के नाम पर लड़ने वाले पाकिस्तान और बंगलादेश जैसे देशों की गिनती कहीं भी नहीं है। वे आज भी गरीबी और पिछड़ेपन से जूझ रहे हैं।
इस देश के अंदर लाखों-लाख मुसलमान समय-समय पर बाहर से आए। बाबर बाहर से आया और ऐसे कई आक्रांता आए लेकिन इस देश के राष्ट्रभक्त मुसलमान नागरिकों ने तब भी यह कहा कि हम तो महाभारतकाल के लोग हैं। पूजा पद्धति बदल सकती है। जाति, उपजाति बदल गई होंगी लेकिन हमारे पूर्वज और तहजीब शुद्ध भारतीय हैं- जो बाबर और गोरी-गजनी से पहले की है। आज का सच्चा भारतीय मुसलमान भी यही कहता है कि मैं नागरिक के रूप में भारतीय हूं। पूजा-पद्धति से मुसलमान हूं। इस देश के एक सौ इक्कीस करोड़ लोग हिन्दू-हिन्दी-हिन्दुस्थान अवधारणा के समर्थक हैं। हम विचार से महायानी, निर्मल सिख या राधास्वामी हो सकते हैं किंतु हमारी नागरिकता और राष्ट्रीयता एक है। अब यह हमें तय करना है कि हम इस देश को दंगों वाला- नफरतवाला देश बनाना चाहते हैं या मोहब्बत वाला- तरक्की वाला देश बनाना चाहते हैं। 23 हजार दंगों में यदि प्रति दंगा 50 करोड़ का भी नुकसान हुआ है और यदि प्रति दंगा 20-25 लोग भी मरे होंगे, औसतन 50 जख्मी भी हुए होंगे तो इस हिसाब से लाखों लोग मरे होंगे। इन दंगों से किसी को कुछ नहीं मिला सिवाय दु:ख दर्द या बर्बादी के। यदि किसी के मन से खौफ निकल गया हो अथवा स्थायी शांति हो गई हो तो भी तसल्ली की जा सकती है।
-देश दंगों से मुक्त हो यह कैसे संभव है और इसके लिए क्या किया जा सकता है?
प्रत्येक व्यक्ति अपनी इबादत पर चले और दूसरों की आस्था का भी सम्मान करे। यह तभी संभव है। कट्टर अथवा हिंसक व्यक्ति मोहब्बत और शांति की बात नहीं कर सकता। समाज में आवश्यकता इस बात की है कि परस्पर लोगों में नफरत न फैलाई जाए। सबकी इज्जत करें, सब धर्मों और पूजा पद्धतियों का सम्मान किया जाए। सरकार तो कानून बनाएंगी, उसके अनुसार योजना बनाएगी। यह बुद्धिजीवियों को सोचना होगा कि हमें हिन्दुस्थान को किस प्रकार हिंसा से मुक्त करना है। हमें हमेशा ये बात ध्यान में रखनी होगी कि 'हम भड़केंगे नहीं और दूसरों को भड़काएंगे नहीं, हम लड़ेंगे नहीं, दूसरों को लड़ाएंगे नहीं।' इसके लिए आवश्यक है कि समाज में सकारात्मक वातावरण निर्मित किया जाए जिसे कि शिक्षा के माध्यम से ही प्राप्त किया जा सकता है, शिक्षा भी कोरी शिक्षा नहीं संस्कारयुक्त शिक्षा। 1970 में जब मैंने इंजीनियरिंग की थी तो यह विश्लेषण भली प्रकार किया था कि मेरे ऊपर 4 साल 40 विशेषज्ञों के माध्यम से 14-15 लाख सरकार और घरवालों ने निवेश किये होंगे तो एक इंजीनियर बनकर क्या मैं देश का श्रेष्ठ नागरिक भी बन सकूंगा। क्योंकि रसायन, भौतिकी अथवा मेडिकल या भूगोल की शिक्षा जरूरी नहीं कि हमें तहजीब सिखाने के साथ एक अच्छा इंसान भी बनाए। हम देखते हैं कि आज जो डॉक्टर बनता है वह भ्रूण हत्या भी कर रहा है। जबकि शिक्षा की अनिवार्य शर्त यह है कि व्यक्ति के अंदर एक अच्छे मानव बनने के नैतिक गुण विकसित करे और उसे समझदार नागरिक बनाने की दिशा दे। मुसलमान इस देश में शिक्षा से दूर रहा जबकि उसे शिक्षा की सुविधाएं सरकार के माध्यम से तथा अन्य माध्यमों से सबसे ज्यादा मिलीं।
ल्ल स्वतंत्रता के बाद आज 68-69 वर्ष बाद भी देश का मुसलमान तरक्की क्यों नहीं कर पाया है?
नि:संदेह भारत के मुसलमान को शिक्षा की सुविधाए मिली हैं लेकिन वह सरकार और राजनीतिक दलों पर ज्यादा निर्भर रहा। कभी भी विकलांगता से आगे नहीं बढ़ा जा सकता। भारत में भी मुसलमानों के साथ यही स्थिति हुई है। उनको कुछ दलों ने केवल 'वोटर' के रूप में प्रयोग किया। एक नागरिक या सामान्य इंसान के रूप में उनको नहीं देखा गया। खासकर तथाकथित सेकुलर दलों ने मुसलमानों को केवल वोट बैंक के रूप में खरीद-फरोख्त की वस्तु मात्र बनाया। वोट 'मैनेज' होता है इंसान नहीं। राजनीति की मंडी में मुसलमान को खरीदा और बेचा गया। जहां तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और इससे जुड़े प्रकल्पों का विषय है- हम मुसलमान को राष्ट्रवाद के रास्ते स्वाभिमानी और स्वावलंबी देखना चाहते हैं। 'आधी रोटी खाएंगे पर बच्चों को जरूर पढ़ाएंगे' ये अलख हमने मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के माध्यम से मुसलमान परिवारों के बीच जगाई है। एक अच्छे नागरिक के लिए शिक्षा बहुत जरूरी है। वह भी व्यावसायिक और नैतिकता एवं तहजीब युक्त शिक्षा। जब इनकी तरक्की होगी तभी देश मजबूत व खुशहाल हो पाएगा।
-तर्क दिया जाता है कि हिन्दू नेता तीखे बयान देकर मुसलमानों को प्रतिक्रिया के लिए विवश करते हैं। इस बात को आप कहां तक सही मानते हैं?
देखिए तीखी बयानबाजियां मुसलमान नेता भी करते हैं और कुछ हिन्दू नेता भी। लेकिन जब हिन्दू समाज इन बयानों की चिंता नहीं करता तो फिर मुसलमानों को भी बयानों को ज्यादा तूल नहीं देना चाहिए। 'पाकिस्तान जिंदाबाद' का नारा लगाने वाले लोग कौन हैं! … चंद लोग सभी जगह हैं ज् ाो उग्र और कट्टर हैं। सिख अलगाववाद की बात भी आई और मुस्लिम कट्टरता के कई उदाहरण हैं लेकिन इससे प्रभावित होते हुए भी भारतीय समाज प्रतिक्रिया नहीं करता। '25 मिनट मुझे तलवार दे दो, मैं देख लूंगा' ऐसे उग्र और देशद्रोही बयानों पर भी गंभीरता से विचार होना चाहिए। किसी भी तथ्य में जब न्याय और सत्य नहीं होगा तो निर्णय कैसे संभव है। सच को जानने के लिए निष्पक्ष होना जरूरी है। इन सबके बाद भी हिन्दुस्थान में खूब तरक्की हो रही है। इसके उलट पाकिस्तान और बंगलादेश में तो कोई कट्टर अल्पसंख्यक नहीं है फिर भी वहां तरक्की की कल्पना एक सपना बन गया है। शिक्षा और रोजगार के माध्यम से अच्छा इंसान बनने में क्या दिक्कत है! ऐसे में यदि मुसलमान समाज कट्टरता से बाधित होने का तर्क देता है तो इसका मतलब साफ है कि मानस गलत है, जेहन को ठीक करने की जरूरत है। मजहब, दल और जाति से ऊपर उठकर हमें देश के लिए सोचना होगा।
-जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान समर्थक नारे लगाने वालों के विषय में आपकी राय क्या है?
 कश्मीर से कन्याकुमारी हो अथवा पूर्वोत्तर से संपूर्ण देश जहां कोई समूह 'पाकिस्तान जिंदाबाद' के नारे लगाए उसे तुरंत देशद्रोही घोषित कर देना चाहिए। गिरफ्तार करने या गोली मारने के बजाय, उसको सपरिवार सामान के साथ ट्रक में पाकिस्तान भेज देना चाहिए। जो इस देश में रहे, यहां का खाए लेकिन यहां के कानून और तहजीब से गद्दारी करे उसके लिए पाकिस्तान ही उचित इलाज है। अंतिम रसूल नवी ने कहा था कि मुझे पूरब की ओर हिन्दुस्थान से सुकून की हवा आती महसूस होती है, आज उनका रास्ता छोड़कर किसी शैतान की दुहाई दी जा रही है। 1947 में जब यहां अंग्रेज थे तब पाकिस्तान के नाम पर लाखों मरे, करोड़ों उजड़ गए। अब जो पाकिस्तान का नारा लगाएगा वह इस्लाम की नजर में भी गिरा हुआ और भारत के मुसलमान की नजर में भी काफिर है। यदि देश में इस पर कोई ठोस कानून बन जाएगा तभी सुकून मिलेगा।
-जम्मू-कश्मीर में भाजपा के सहयोग से मुफ्ती मोहम्मद सईद के नेतृत्व में गठबंधन सरकार के सामने कई चुनौतियां हैं। आप इसको कैसे देखते हैं? क्या भाजपा अपने वैचारिक अधिष्ठान पर टिके रहकर मुसलमानों के प्रति ज्यादा अपनत्व दिखाने वाली पीडीपी के साथ कार्यकाल पूरा कर सकेगी?
जम्मू-कश्मीर का जनादेश भाजपा-पीडीपी गठबंधन सरकार का नियामक बना। यह सत्य है कि सत्ता में बैठते ही मुख्यमंत्री सईद का कर्त्तव्य था कि वे अशांत और अभावग्रस्त घाटी के लोगों को 'गिफ्ट पैकेज' के रूप में शिक्षा, स्वास्थ्य अथवा रोजगार की सुव्यवस्था प्रदान करते। केन्द्र से आतंकी अफजल की हड्डी की मांग करने से न तो राज्य का विकास होगा और न किसी समुदाय विशेष का भला। मौलाना और आलिम कब्र खोलने को गैर इस्लामी कहते हैं। यह तो एक प्रकार से इस्लाम विरोधी कार्य है। ऐसे तो दुनियाभर में कब्र खोदने की मांग उठ खड़ी होगी और कयामत के समय जब खुदा के सामने अंतिम फैसले के लिए हाजिर होने की बात होगी तो फिर खाली कब्र से कौन खड़ा होगा! मुसलमानों को अब सब समझ आने लगा है इसलिए जम्मू कश्मीर सरकार को राज्य में कट्टरता के बजाय तरक्की परोसनी चाहिए। सरकार तो राजनीतिक दलों ने चलानी है वह भी समाज और देश की भावनाओं और नब्ज को देखते हुए।
-महाराष्ट्र में गोमांस पर प्रतिबंध लगा दिया गया है जिस कारण कई लोग रोजगार का संकट पैदा होने की बात कर रहे हैं। इस विषय में आपका विचार क्या है?
दुर्भाग्य की बात है कि हमारे यहां चाहे मजहबी दृष्टिकोण वाले लोग हों, मीडिया या तथाकथित सेकुलरवादी। वे सिक्के के एक पहलू पर ही जोर देते हैं। वास्तव में आज गरीबों के बच्चे गाय के दूध के अभाव में मिलावटी 'सिंथेटिक' दूध पीने को मजबूर हैं। हमने आने वाली संतानों के लिए भी एक बड़ा संकट खड़ा कर दिया है। गोबर गरीब, किसान का सीमेंट है जिस पर उसकी झोपड़ी टिकी रहती है। गोमांस का व्यवसाय करने वालों के लिए कई विकल्प हो सकते हैं। सब्जी, कपड़े, बेकरी अथवा रिपेयरिंग का काम करके भी जीविका प्राप्त की जा सकती है। इस्लामी साहित्य में 'मजबे सूराय बकर' नामक अध्याय है जिसमें गाय की कुर्बानी को अनैतिक कहा गया है। रसूल जिस मक्का शरीफ के हैं, आज तक वहां गाय की कुर्बानी नहीं हुई है। सीधी बात है कि इसको हमने मजहबी कट्टरता से जोड़ दिया है जिससे हिंसा की बू आती है।
दुनिया के अंदर सभी धर्मों मत-पंथों और वैज्ञानिकों ने गोमांस अर्थात 'बीफ' को स्वास्थ्य के लिए हानिकारक और खतरनाक बताया है। हजरते आदम ने दूध को सिफा और इलाज बताया है। रसूल ऐसे किसी व्यवसाय की आज्ञा नहीं देते जो आदमी को अछूत बनाए। यह तो रसूल से बेवफाई और बेईमानी का व्यापार माना जाएगा। गाय के न केवल दूध की उपयोगिता है बल्कि गोबर से जलावन अर्थात ऊर्जा और गोमूत्र कई औषधियों का पर्याय सिद्ध हो चुका है। यदि हम इन्हीं उत्पादों का व्यवसाय कर गोपालन को बढ़ावा दें तो पाप और अपराध से बच जाएंगे। हम मुस्लिम सम्मेलनों में इन विषयों को मुखर होकर रखते हैं। बुद्धिजीवी लोग समझते हैं और इसको स्वीकार करते हैं। कोई भी ऐसी हदीस नहीं है जिसमें यह कहा गया हो कि गोमांस स्वादिष्ट होता है। इन चीजों की गलत व्याख्या नहीं होनी चाहिए। स्वाभाविक है कि हम समझदारी से चलेंगे तो सहज रास्ता स्वयं ही निकल जाएगा।
-कन्वर्जन का मुद्दा देश में हमेशा से गरम रहा है चाहे इस्लामी लोगों द्वारा कराया गया कन्वर्जन हो अथवा ईसाई मिशनरियों द्वारा। मदर टेरेसा पर तो कई बार 'कन्वर्जन की संपोषिका' कहकर निशाना भी साधा जाता है। आपको क्या लगता है क्या वास्तव में मदर टेरेसा सेवा के नाम पर कन्वर्जन करवाती होंगी?
 विश्व में शांति और बंधुत्व के लिए आवश्यक है कि हम सबकी पूजा-पद्धति व इबादत का सम्मान करें। किसी को भी कन्वर्जन का अधिकार नहीं है। लेकिन अजीब विडंबना है कि जब हम इस देश में कन्वर्जन कानून बनाने की बात करते हैं तो बौद्ध, जैन, सनातनी, सिख आंबेडकरवादी, पारसी अथवा प्रकृति उपासक कोई भी इसका विरोध नहीं करता लेकिन ईसाई सबसे बढ़-चढ़कर आगे दिखाई देते हैं। ये धार्मिक स्वतंत्रता के कानून का विरोध करते हैं। दुनिया में सभी पंथ व जाति के लोग किसी न किसी बहाने सेवा कार्यों में अपनी भूमिका निभाते हैं। कभी कोई राजपूत, बौद्ध, शैव, जैन, श्वेताम्बरी, सिख या वैष्णव किसी को सेवा के बदले अपने समुदाय में शामिल करने की बात नहीं करता। कन्वर्जन का अधिकार अब किसी को नहीं होना चाहिए। जहां तक मदर टेरेसा का प्रश्न है तो उन्होंने स्वयं यह स्वीकार किया था कि ईसा और प्रभु के सहयोग से शिक्षा के माध्यम से यदि कोई ईसा और ईसाइयत की शरण में आता है तो कोई बात नहीं।' यदि ईसाइयत स्वर्ग का पर्याय है तो फिर दुनिया के 110 से भी अधिक ईसाई देश और लगभग 200 करोड़ से अधिक की जनसंख्या में फैले ईसाई स्वर्ग में रहकर सबसे ज्यादा उत्पातों और अपराध से बीमार क्यों हैं। स्वर्ग के आदमी को जुकाम भी नहीं होता फिर अशांति, तस्करी, अपराध और हिंसा क्यों। वास्तव में स्वर्ग की गारंटी न तो कोई पंथ है, न मजहब और यहां तक कि धर्म में भी नहीं है। स्वर्ग और नरक का फैसला तो व्यक्ति के कर्मों से होता है- उसके चरित्र, आचरण और व्यवहार से होता है।
-कुछ लोग कन्वर्जन को रोजी-रोटी और गरीबी से जोड़कर देखते हैं। आप क्या सोचते हैं?
देखिए रोजी-रोटी का मतलब कन्वर्जन कभी नहीं हो सकता। स्वाभिमानी और खुद्दार व्यक्ति सम्मान और रोटी में से सम्मान को ही चुनेगा। जीने के लिए रोटी चाहिए किंतु जलालत वाली रोटी कोई पसंद नहीं करेगा। भिखारी भी स्वाभिमान से मांगता है और संपन्न व्यक्ति भी धन की बजाय सम्मान को वरीयता देता है। भूखा और भिखारी आदमी कभी आतंकी नहीं बनता। यदि सब बेरोजगार आतंकी बनने की सोच लें तो पूरे देश और विश्व में असंख्य नौजवान इस दिशा में बढ़ जाते। व्यक्ति रोटी चाहता है इसमें कोई दो राय नहीं है। अंग्रेजी राज में रोटी मिल रही थी लेकिन सुभाष और गांधी ने रोटी की बात नहीं आजादी की बात कही। स्वतंत्रता में सुरक्षा और स्वावलंबन, शिक्षा और संस्कार सुलभ होने की गारंटी होती है। आदमी मेहनत की रोटी चाहता है यदि कोई गरीब और भूखा है तो उसको रोटी देना हमारी संस्कृति है। लेकिन रोटी के बदले आस्था बदलने की बात हमारे यहां कभी नहीं रही।
देश में वर्षभर कई लंगर चलते हैं। सब लोग इनमें खाते हैं। गुरुद्वारे हों अथवा माता मंदिर या हनुमान मंदिर। मजहब, जाति और क्षेत्र से उठकर इनमें भोजन परोसा जाता है। ये रोटी के बदले जमीर नहीं खरीदते। झूठ के सामने अनभिज्ञ नहीं बनना चाहिए। कन्वर्जन ईश्वर और मानवता के प्रति कलंक और अपराध है।
-दुनिया में धर्म और पंथ के आधार पर जो पवित्र स्थल हैं उनका सबको सम्मान करना चाहिए। इनको श्रेष्ठ घोषित करने के पीछे ठोस मानक होने चाहिए। वेटिकन सिटी की स्थित्ि ा विशेष कैसे बताई जाती है?
दुनिया में एक ही शहर है जिसको देश का दर्जा प्राप्त है वह है वेटिकन, जो कि एक शहर है। ईमानदारी से सोचें तो प्रश्न उठता है वेटिकन ही क्यों, मक्का मदीना और हरिद्वार इस श्रेणी में क्यों नहीं शामिल किए जाते! आश्चर्य की बात तो यह है कि इस शहर में जिसे देश का दर्जा प्राप्त है। रहने के लिए अथवा बसने के लिए अन्य धर्म और पंथ तो दूर ईसाइयों में भी केवल कैथोलिक लोग ही यहां की चर्च में जा सकते हैं। फिर प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि वेटिकन मानवता और ईश्वरता का प्रतीक है या सांप्रदायिकता व कट्टरता का। उसे देश की मान्यता क्यों दी गई। यह 'थ्योक्रेटिक' है लोकतांत्रिक या सेकुलर। अन्य मत-पंथ या विचार के लोग यहां क्यों नहीं बसाए गए। यदि उन्हें अधिकार है तो वे यहां क्यों नहीं रहते। सत्य यदि सही है तो उसको जानने की जिज्ञासा का समाधान होना चाहिए और यदि गलत है तो सुधार कैसे हो इसपर विचार होना चाहिए।
-मुसलमानों को देश में ज्यादा जनसंख्या बढ़ाने का उत्तरदायी माना जाता है। जिसे जनसंख्या के आंकड़े भी प्रमाणित कर रहे हैं। आप मुसलमानों के परिवार नियोजन पर क्या सोचते हैं?
ज्यादा संतान और ज्यादा धन बेईमान बनाता है। मालिक तो हर पैदा होने वाले के लिए रोटी की व्यवस्था कर लेता है। और तो और मक्खी और मच्छर को भी पेट भरने के साधन उपलब्ध हो जाते हैं। अधिक संतानें खुशहाली और समृद्धि का अभाव झेलती हैं। अच्छा भरण पोषण, शिक्षा और स्वास्थ्य उन्हें नहीं मिल पाता है। इसलिए यदि कम बच्चों को पैदा करने का सुझाव मिलता है तो उस पर उदारता एवं गंभीरता से सोचना चाहिए और मुझे विश्वास है कि आज नहीं तो कल स्वयं प्रबुद्ध मुस्लिम युवा इस मसले पर अमल करेगा।
-मुस्लिम समाज में महिलाएं दोयम दर्जे का जीवन जीने को विवश हैं। उनका शारीरिक एवं मानसिक सभी रूपों में शोषण होता है और बहुत अत्याचार होते हैं। इन मुस्लिम महिलाओं के विकास के लिए आपके पास क्या ठोस कार्ययोजना है?
यह सारे विश्व का सच है कि मुस्लिम समाज महिलाओं को उपयोग की वस्तु मात्र मानता है। जिस कारण उनके पालन-पोषण से लेकर शिक्षा-दीक्षा और आर्थिक स्वावलंबन का स्वप्न ज्यादातर अधूरा ही रह जाता है। अशिक्षा के कारण मुस्लिम महिला घर परिवार और अपने समाज में सदा हीनग्रंथि व उपेक्षा का शिकार बनी रहती है। हमने पूरे देश में 2015-16 में मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के माध्यम से कई बड़े कार्यक्रमों की योजना बनायी है। जिसमें महिला शक्ति की विशेष भूमिका रखी गयी है। 15-16 सूबे की मुस्लिम महिलाओं ने सारे देश के अंदर महिला सम्मेलनों के माध्यम से नशा मुक्ति सहित तलाक आदि गंभीर मुद्दों पर जनचेतना अभियान की योजना बनायी है। इसके अंतर्गत खुले दिमाग के मौलवियों से प्रासंगिक कानूनों के अनुकूल चलने पर बात की जाएगी। महिलाओं से जुड़े हुए विषयों- भ्रूण हत्या, बलात्कार, तलाक, घरेलू हिंसा, निरक्षरता और कुपोषण पर सभी धर्मों, मजहबों और राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों को व्यापक चर्चा के लिए आमंत्रित किया जाएगा। 13 सितम्बर 2015 को मेवात में गोपालक मुस्लिम सम्मेलन आयोजित किया जाएगा। जिसमें बच्चे-बच्चे को गाय का दूध उपलब्ध करवाने के साथ, बीमारियों से मुक्त सेहतमंद हिन्दुस्थान पर केन्द्रित अभियान छेड़ा जाएगा। परंपरागत दकियानूसी तलाक की अवधारणा को दूर करने पर भी ठोस चर्चा होगी।

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