|
भारतरत्न डॉ. भीमरावजी आंबेडकर भारतीय भाव विश्व के भक्त थे और विधायक, एकात्म दृष्टिकोण से आजीवन चिंतन करने वाले महापुरुष थे। दुर्भाग्य से उनके बारे में कुछ गलतफहमियां फैलायी गयी हैं कि डॉ. आंबेडकर जी केवल वंचितों-पीडितों के तारणहार थे और प्रतिशोध की या बदले की भावना से कार्य करने वाले नेता थे, यह अनुमान गलतफहमियों का ही प्रतिबिम्ब है।
श्रीयुत धनंजय कीर की लिखी हुई पुस्तक में बाबासाहेब का जीवन यानी उपनिषदकारों से शुरू हुई समाजसुधारकों की परंपरा का एक प्रभावी हिस्सा था यह आशय पढ़ने के लिये मिलता है। कीर जी लिखते हैं कि उपनिषदकारों ने भारत का पहला पुनर्जीवन साकार किया। परन्तु कुछ लोगों ने यज्ञसंस्थाओं को, कर्मकांडों को ही चरितार्थ किया। तब भगवान गौतम बुद्ध आगे आये और उनके नेतृत्व में धार्मिक तथा सामाजिक परिवर्तन होकर भारतवर्ष की मार्गक्रमणा हुई। दुर्भाग्य ऐसा कि कुछ दशकों के पश्चात पुनश्च जतिभेदांे और कर्मकांडों का प्रसार हुआ और उन वृत्ति-प्रवृत्तियों को निष्प्रभ करने के लिए रामानुजाचार्य, कबीर, रामानंद, नानक, ज्ञानदेव आदि साधुसंतों ने सफल प्रयास किये। फलत: भारत में तीसरा पुनर्जीवन हुआ। तत्पश्चात् उन्नीसवीं सदी में जो चौथा पुनर्जीवन हुआ उसके सूत्रधार थे राजा राममोहन राय, दयानंद सरस्वती, महात्मा ज्योतिबा फुले, न्यायमूर्ति रानाडे और स्वामी विवेकानंद। इसी पुनर्जीवन की विरासत महात्मा गांधीजी तथा स्वातंत्र्यवीर सावरकर और महामना पंडित मदनमोहन मालवीय जी ने और समृद्घ की। बाबासाहब आंबेडकर पांचवें पुनर्जीवन के सूत्रधार थे। डॉ.आंबेडकरजी ने अछूतों और दलितों के पुनरुत्थान-हेतु समग्र जीवन व्यतीत किया, यह सच है
परन्तु अपने जीवन के अंतिम दशक में उन्होंने केवल भारतीय भाव-विश्व की चिंता की। सन् 1935 में उन्होंने घोषणा की कि मैं हिन्दू परिवार में जन्मा हूं किन्तु अहिन्दू बनकर ही मैं अपनी जीवनयात्रा समाप्त करूंगा। लेकिन इस प्रतिज्ञा की पूर्ति करने के लिए उन्होंने जानबूझकर भारत की मिट्टी में पैदा हुआ बौद्घ धर्म स्वीकरणीय माना। इस्लाम का तथा ईसाइयत का अनुगामित्व उन्होंने नहीं किया, कारण भारतीय भाव-विश्व से दगा करना उन्हें सर्वथैव नामंजूर था। डॉ. आंबेडकरजी के जीवन के चार अध्याय थे। इन अध्यायों का समग्र ओर एकात्म अध्ययन वास्तव में पथमदर्शक है। इस जीवन के तीसरे अध्याय में उन्होंने प्रतिशोध या बदले की भावना रखकर विचार व्यक्त किये, कुछ काम किये-यह सच है, किन्तु यह विचार ओर आचार तात्कालिक थे। उनका शाश्वत दृष्टिकोण रचनात्मक और भावनात्मक था।
आंबेडकरजी के जीवन का पहला अध्याय (सन् 1891 से सन् 1924 तक) मूलत: अध्ययन कार्य से जुड़ा हुआ था। यह अध्ययन ध्येयनिष्ठ था। भारतवर्ष की भिन्न-भिन्न समस्यायों का उचित समाधान खोजना यही इस अध्ययन का लक्ष्य था। इस कालखण्ड में लिखी हुई पुस्तकें इस निष्कर्ष को दुहराती हैं। इन पुस्तकों की सूची इस प्रकार है- 1. एनसियंट कॉमर्स कास्ट इन इंडिया। 2. देयर मैकेनिज्म,जेनेसिस एंड डेवलपमेंट 3. दि इवोल्यूशन ऑफ प्रोविंसियल फाइनेंस इन ब्रिटिश इंडिया। भारत की प्रतिगामी ताकतों ने और ब्रिटिश शासकों ने जनसामान्य को लूटा, भारत के किसानों तथा उद्योगों का भी इन्होने शोषण किया, यह है इस ग्रन्थसम्पदा का निष्कर्ष। इसी कालावधि में पी़ बालू नामक क्रिकेट खिलाड़ी अपनी बल्लेबाजी से विश्वविख्यात हुए। मुंबई में उनका शानदार सम्मान हुआ। परन्तु पी़ बालू जन्म से चर्मकार यानी अछूत थे। अतएव भारतीय क्रिकेटसंघ के नायकत्व से बालूजी वंचित रहे। उल्लेखनीय बात यह थी कि सम्मान समारोह में बालूजी को दिए गये सम्मानपत्र के लेखक थे डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर। आंबेडकरजी की भारत-भक्ति इस सम्मान पत्र में प्रतिबिम्बित हुई इस श्रेष्ठ क्रिकेटर पर वंचित होने के कारण सदैव अन्याय और अत्याचार होते रहे हैं, परन्तु भारत की विजयध्वजा हमेशा फहराती रहे इसी भाव से इस खिलाडी ने निरपेक्ष कर्मयोग किया है।
1924 तक आंबेडकरजी ने जो चिंतन मनन और अध्ययन किया उनके परिणामस्वरूप एक कृतार्थ जीवन की मजबूत नीव का निर्माण हुआ। सन में बडौदा नरेश महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ ने बाबासाहेब आंबेडकर को छात्रवृत्ति दी और अमरीका जाने के लिए आशीर्वचन दिये। ज्ञानप्राप्ति से जो पद-प्रतिष्ठा मिलेगी उसका उपयोग दलित भाई-बहनों का पुनरुद्घार करने की मेरी तमन्ना है। यह था आंबेडकरजी का संकल्प । खुद के जीवन के अन्य अध्यायों में आंबेडकरजी ने इसी संकल्प की पूर्ति की। अर्थात भारत के भाव-विश्व को किसी तरह की क्षति न पहंुचे, इस लक्ष्मणरेखा की मर्यादा में संकल्पपूर्ति यह था बाबासाहेब का दृढ़-निश्चय।
जहां तक दूसरे अध्याय का सवाल है, उसका उत्तर खोजने के लिए 1924 से 1935 तक जो ग्यारह वर्ष बीते उनका स्मरण करना चाहिए। महाराष्ट्र में संगमनेर नामक शहर में रहने वाले एक मुस्लिम विचारक प्राध्यापक आलीम वकील द्वारा इन ग्यारह वर्षों पर प्रकाश डालने के लिए लिखी हुई पुस्तक 'महात्मा और बोधिसत्व' इस सन्दर्भ में पठनीय है। आलिम साहब सप्रमाण सिद्घ करते हैं कि इन ग्यारह वर्षों में डॉक्टर आंबेडकरजी सम्पूर्ण हिन्दू समाज को संगठित करने के लिए कटिबद्घ थे। यदि हिन्दू समाज संगठित हुआ तो कई रूढि़यां समाप्त होंगी और भारतवर्ष समर्थ होगा यही श्रद्घा हृदय में रखकर आंबेडकरजी इस दिशा में चल पड़े।
आंबेडकरजी ने 'बहिष्कृत भारत' नाम का जो वृत्तपत्र उन दिनों में चलाया, उसमें प्रकाशित लेख भारतभक्ति से भरे हुए थे। इस वृत्तपत्र के हरेक अंक के मुखपृष्ठ पर गीतोपदेश करने वाले भगवान श्रीकृष्ण और उनके चरणों के पास बैठकर वह उपदेश ग्रहण करने वाले वीर अर्जुन पाठकों को अनोखा सन्देश देते थे संपादक महोदय यानी डॉ. आंबेडकर अपने लेखों के माध्यम से सभी महंतों के सुभाषितों के नीतिवाक्य देते थे, रामानुजाचार्य जैसे अलौकिक समाज सुधारकों की कहानियां और कथायें उद्घृत करके समाजपुरुष का प्रबोधन करते थे। कालबाह्य रूढियों पर प्रहार, विज्ञाननिष्ठा का पुरस्कार और प्रयत्नवाद का प्रसार यह त्रिसूची पाठकों को प्रेरित करने वाली थी। सन 1923 में महाराष्ट्र के विधिमंडल ने महाराष्ट्र के सार्वजनिक तालाब तथा कुएं सभी हिन्दू नागरिकों के लिए खुले हों इस उद्देश्य से एक प्रस्ताव पारित किया था। डॉ. आंबेडकरजी ने इस प्रस्ताव को चरितार्थ करने का बीड़ा उठाया। सन 1927 के 20 मार्च को इसी दिशा में एक ऐतिहासिक आंदोलन छेड़ा गया। स्वयं डॉ. आंबेडकरजी के नेतृत्व में सहस्रों दलित भाई-बहन महाड शहर की सवर्ण बस्ती में एकत्र हुए। वहां के सार्वजनिक चौदर तालाब पर जलप्राशन करना, यह था इस लॉंग मार्च का हेतु। दुर्भाग्य से सवर्ण नागरिकों ने दलितों द्वारा किए गए जलप्राशन को अधर्माचरण माना। महाड के अलावा नासिक और पुणे इन शहरों में मंदिर प्रवेश करने के लिए दलित नागरिकों ने सत्याग्रह किये। आंबेडकरजी इन सत्याग्रहों को प्रेरणा और समर्थन देने वाले नेता थे। परन्तु नासिक और पुणे दोनों शहरों में भी सवर्ण नागरिकों ने दलित भाई-बहनों को प्रतिबन्ध किया। भगवद्गीता का एक श्लोक तमोगुणी व्यक्ति का व्यवहार दर्शाने वाला है। सवर्ण समाज घटक तमोगुणी यानी तामसी ही बने थे अतएव न सार्वजनिक तालाब सबके लिए खुले हुए, न मंदिरों में सब लोग प्रवेश कर सके-
अधर्मम् धमंर्िमति या मन्यते तमसावृता
सर्वर्थान विपरीतांश्च बुद्घि: सा पार्थ तामसी॥
(अट्ठारहवां अध्याय)
डॉ. साहेब ने भिन्न-भिन्न लेखों तथा भाषणों के माध्यम से सवर्ण हिन्दुओं का प्रबोधन करने का इस कालावधि में प्रयास किया। एक लेख में उन्होंने लिखा- हिन्दू धर्म हर मनुष्य को भगवान का लघुरूप मानता है, वास्तव में हर मनुष्य को उचित सम्मान मिले यही अपेक्षा रखता है। परन्तु सवर्ण हिन्दू-बांधवों की ओर से दीन-दलितों की उपेक्षा होती है। दलितों की उपेक्षा करने से ईश्वर अपमानित होता है। दूसरे एक लेख में आंबेडकरजी ने लिखा है- जब तक हिन्दू समाज संगठित नहीं होता, इंसाफ और इंसानियत की पूजा नहीं करता, तब तक स्वतंत्रता की लड़ाई अधूरी रहेगी। अमरावती में भाषण देते समय आंबेडकरजी ने साधिकार बताया, हिंदुत्व की विचारधारा पर अछूतों का भी अधिकार है। इस विचारधारा को प्रस्थापित करने के लिए वाल्मीकि, चोखामेला और रोहिदास आदि दलितों ने भी भरसक योगदान दिया है। इसकी रक्षा के लिए अनगिनत अस्पृश्यों ने अपने प्राणों की बाजी लगायी है। अतएव मंदिरों में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य नागरिकों के साथ अस्पृश्यों को भी मुक्त प्रवेश मिलना चाहिये।
सन 1930 में 'डिप्रेस्ट क्लासेज कांग्रेस' संगठन का अधिवेशन नागपुर में संपन्न हुआ। वहां बाबासाहेब आंबेडकरजी ने 'भारतवर्ष एकात्म राष्ट्र है' इस सिद्घांत का अनोखा समर्थन किया। उन्होंने निम्नलिखित प्रश्न दुनिया को पूछा-
ह्लॠील्ल३'ीेील्ल, ्र२ ३ँी१ी ंल्ल८ ंल्ल२६ी१ ३ङ्म ३ँी ०४ी२३्रङ्मल्ल ३ँं३ ं१्र२ी२ ं२ ं १ी२४'३ ङ्मा ३ँ्र२ ूङ्मेस्रं१्र२ङ्मल्ल ३ँं३ ्रा छं३५्रं, ४ॅङ्म२'ं५ं'्रं, ए२३ङ्मल्ल्रं, उ९ीूँङ्म२'ङ्म५ं'्रं, ऌ४ल्लॅं१८ ंल्लि फङ्मेंल्ल्रं, ६्र३ँ ं'' ३ँी्र१ ्रिााी१ील्लूी ङ्मा १ंूी२, ू१ीीि२, 'ंल्लॅ४ंॅी२ ंल्लि २ीू३२ ूंल्ल ा४ल्लू३्रङ्मल्ल ं२ ४ल्ल्र३ीि २ी३ ङ्मा ॅङ्म५ी१ल्ल्रल्लॅ ूङ्मेे४ल्ल्र३्री२, ६ँ८ ूंल्लह्ण३ कल्ल्रिं? क ँं५ी ल्लङ्मल्ली ३ङ्म ॅ्र५ी!ह्व
डॉ. आंबेडकरजी चाहते थे कि उनकी रचनात्मक, विधायक भावना को सवणोंर् की ओर से अनुकूल प्रतिसाद मिलेगा। परन्तु सवर्ण हिन्दू अधर्म को ही धर्म मानते थे। छुआछूत जैसी रूढ़ को गले लगाने में जीवन की सार्थकता मानते थे।नतीजा भीषण हुआ। बाबासाहेब आंबेडकर कन्वर्जन करने के लिए सिद्घ हुए महामना पंडित मदनमोहन मालवीय, नारायण गुरु, महात्मा गांधी, वीर सावरकर आदि असामान्य नेतओं का उपदेश विफल हुआ। सन 1935 में महाराष्ट्र की येवला नगरी में डॉक्टर आंबेडकरजी ने कन्वर्जन की घोषणा की। तत्पश्चात 1946 तक यानी खुद के जीवन के तीसरे अध्याय में आंबेडकरजी ने प्रतिशोध और बदले की भाषा को स्वीकार किया। निराश और हताश होकर आंबेडकरजी हिन्दू समाज पर अंगार बरसाने लगे। सन 1935 से सन 1946 तक यानी लगभग ग्यारह साल आंबेडकरजी लेखों और भाषणों के माध्यम से हिन्दू धर्म पर तथा भारतवर्ष पर कठोर शब्दों में प्रहार कर रहे थे। मानों उनकी लेखनी और वाणी अंगार बरसती थी। एक तो 'मैं अहिन्दू बनकर ही दुनिया से विदाई लूंगा' यह घोषणा उन्होंने इस कालखंड में की।
दूसरी बात, उन्होंने भारत का विभाजन करके मुसलमानों का सपना पूर्ण होने दो इस युक्तिवाद का सप्रमाण समर्थन किया। तीसरी बात, गांधीजी, जवाहरलाल जी, सरदार पटेल आदि नेतओं पर कठोर शाब्दिक हमले किये। आज इस कालावधि का गहरा अध्ययन करने के बाद हम निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि बाबासाहेब उन वषोंर् में प्रतिशोध और बदले की भावना से प्रेरित होकर भिन्न-भिन्न क्रियाकलापों में व्यग्र थे। अर्थात सन 1924 से सन 1935 तक जब आंबेडकरजी हिन्दूसमाज संगठित हो, समर्थ हो इस हेतुपूर्ति के लिए कटिबद्घ थे, तब सवर्ण हिंदुओं ने अनुकूल प्रतिसाद देने के स्थान पर कड़ा विरोध किया, यह थी आंबेडकरजी के अंगार की पृष्ठभूमि। सवणोंर् ने जॉर्ज बर्नार्ड शॉ का एक विधान चरितार्थ किया यह कटु सत्य है। ह्लळँी ङ्मल्ल'८ 'ी२२ङ्मल्ल ६ी 'ीं१ल्ल ा१ङ्मे ँ्र२३ङ्म१८ ्र२ ल्लङ्म३ ३ङ्म 'ीं१ल्ल ंल्ल८ 'ी२२ङ्मल्ल यह विधान कितना अर्थगर्भ है।
डॉ. साहेब हिन्दू धर्म का त्याग करने के लिए चल पड़े, कारण आर्य चाणक्य का मार्गदर्शन उनके लिए शिरसावंद्य था।
यस्मिन् देशे न सम्मानो, न वृत्तिर्नच बांधवा:।
न च विद्यागम: कश्चित तं देशं परिवार्जयेत्॥
(जिस देश में सम्मान नहीं, व्यवसाय नहीं, बन्धुप्रेम नहीं, विद्याप्राप्ति का भरोसा नहीं, उस देश का त्याग करना ही उचित है।)
आंबेडकरजी दुनिया को भयमुक्त करने के लिए कटिबद्घ थे। कोई भी व्यक्ति किसी भी तरह के एलिनेशन (निर्व्यक्तिकरण) का शिकार न् बने, हर व्यक्ति उचित सम्मान का स्वामी बने, यह था इस महापुरुष का जीवनोद्देश्य। और इसीलिए भगवान् शिव के बारे में शिवमहिम्न स्त्रोत्र में वर्णित पंक्तियां आंबेडकरजी के बारे में भी पूर्णत: प्रासंगिक साबित होती हैं। 'विकारोअपि ह्याद्यौ भुवन-भंग व्यसनिन:।' यह पंक्ति मिसाल के तौर पर हमें बताती है जो व्यक्ति स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल इस त्रिभुवन से भय समाप्त करने के हेतु संकल्पबद्घ है, उसकी विकृतियां भी सराहनीय माननी चाहिए। आंबेडकरजी ने अपने सम्पूर्ण जीवन में दलितों और पतितों को भयमुक्त करने का बीड़ा उठाया और तनमनधनपूर्वक सभी चुनौतियों को परास्त करके भारतवर्ष में समरसता उत्पन्न हो इसलिए अनगिनत संघर्ष किये, उनका अंगार, उनका क्रोध शतप्रतिशत प्रशंसनीय है।
आंबेडकरजी ने सन 1940 में 'थॉटस ऑन पाकिस्तान' पुस्तक लिखकर पाकिस्तान का समर्थन किया, यह सत्य है। परन्तु भाई मानवेन्द्रनाथ राय ने इस्लामी संस्कृति का जैसा समर्थन और गौरव दिया था वैसा समर्थन और गौरव आंबेडकरजी की पुस्तक में नहीं है। राजगोपालाचारी या राजाजी पाकिस्तान के समर्थक थे। लेकिन मुस्लिम लीग के साथ कांग्रेस का समझोता हो, दोनों दलों में कुछ लेन-देन हो, यह था राजाजी महाशय का युक्तिवाद। मुस्लिम लीग कांग्रेस के शासकों को मान्यता देगी और कांग्रेस दल पकिस्तान की मांग को समर्थनीय समझेगा, यह थी राजाजी प्रायोजित लेनदेन। कम्युनिस्ट पार्टी पाकिस्तान का समर्थन करने के हेतु सोवियत मॉडल भारत के लिए अनुकरणीय है, यह बात दोहरा रही थी। ख४२३ ं२ रङ्म५्री३ वल्ल्रङ्मल्ल ्र२ ं े४'३्र ल्लं३्रङ्मल्लं' २३ं३ी, 'ी३ कल्ल्रिं ं'२ङ्म ुी ३१ीं३ीि ं२ ं े४'३्रल्लं३्रङ्मल्लं' ील्ल३्र३८ झ्र कम्युुनिस्ट पार्टी का पाकिस्तान का समर्थन और आंबेडकरजी का वक्तव्य परस्पर विरोधी था।
आंबेडकरजी ने अपनी पुस्तक में लिखा था कि पानी में घूमने-फिरने वाला जहाज निर्विघ्न रहकर अपने गंतव्य स्थान पर पहुंचे, यही तमन्ना जहाज के कैप्टन महोदय के मस्तिष्क को उचित मार्गदर्शन कराती है। यदि इस कैप्टन को महसूस हुआ कि जहाज में भरा हुआ सामान खतरे की रेखा से ज्यादा है तो वह व्यक्ति अनावश्यक सामान समुद्र में फेंक देता है। भारतीय जहाज निर्विघ्न यात्रा करे यह है अपना उद्दिष्ट तो फिर उत्तर-पश्चिम दिशा में बसे हुए भूभाग को पाकिस्तान के नाम पर अलग करना अतीव आवश्यक है। यह था डॉक्टर आंबेडकरजी का चिंतन।
मानवेन्द्रनाथ राय 'हिस्टोरिकल रोल ऑफ इस्लाम' पुस्तक में इस्लामी मानसिकता और संस्कृति की प्रशंसा कर रहे थे जबकि डॉ. भीमरावजी आंबेडकर मुस्लिम समाज की प्रतिगामिता, ांल्लं३्रू्र२े, ङ्मिॅें३्रू्र२े आदि अंगभूत विकृतियों के आलोचक थे। ट४२'्रे ु१ङ्म३ँी१ँङ्मङ्मि ्र२ ल्लङ्म३ ४ल्ल्र५ी१२ं', ं२ ट४२'्रे२ 'ङ्म५ी ेीेुी१२ ङ्मा ३ँी्र१ २ीू३२ ङ्मल्ल'८ यह थी आंबेडकरजी की भूमिका। वर्तमान में दुनियाभर में आईएसआईएस आतंकवादी संगठन ने समूचे विश्व में भय पैदा किया है। पाकिस्तान में सुन्नी मुसलमान, गैर-सुन्नी मुसलमानों को, शिया, खोजा, बोहरा, मोहाजिर, इस्माइली आदि सभी पंथों के घटकों को मौत के घाट उतार रहे हैं। फलत: वैश्विक राजनीति करवट ले रही है। पचहत्तर साल पूर्व प्रकाशित 'थाट्स ऑन पाकिस्तान' बाबासाहेब लिखित पुस्तक भविष्यदर्शी चिंतन की सम्यक दृष्टि का प्रमाण है। बाबासाहेब आंबेडकरजी मुस्लिम लीग के साथ लेनदेन करने के पक्ष में नहीं थे। भारतवर्ष की भौगोलिक और सांस्कृतिक एकात्मता के आंबेडकरजी हिमायती थे। संक्षेप में हम कह सकते हैं की राजाजी कि प्रायोजित किया हुआ। चक्रवर्ती राज तथा कम्युनिस्टों द्वारा प्रयोजित आंबेडकरजी का यह चिंतन से कोसों दूर थे। आंबेडकरजी के प्रमाण निम्नलिखित परिच्छेद में प्राप्त होता है-
यदि पाकिस्तान निर्माण हुआ तो जिनकी निष्ठा संदेहास्पद है, वे मुसलमान पाकिस्तान चले जायेंगे। वे वहां रहकर भारत से दुश्मनी करते रहेंगे। लेकिन यदि उनका भारतभूमि का निवास संदेहास्पद है, तो बाहर रहकर उनसे प्राप्त चुनौतियों से संघर्ष करना हिंदुओं के लिए आसान होगा। भारतवर्ष की सेना पर मुसलमानों का वर्चस्व समाप्त होगा। फलत: भारत की सीमाएं सुरक्षित रहेंगी। बाबासाहेब आंबेडकर ने आगे जाकर लिखा है कि ह्लकल्ल३ीॅ१ं' कल्ल्रिं ६्र'' ल्लङ्म३ ुी ंल्ल ङ्म१ॅंल्ल्रू कल्ल्रिं.ह्व मुस्लिम मानसिकता गैरमुस्लिम नागरिकों को काफिर समझती है तथा जिस देश में मुसलमानों का राज नहीं है, ऐसे देश को शत्रुदेश मानती है।
डॉ. आंबेडकर यथार्थवादी राजनीतिज्ञ थे। अतएव परिस्थिति का सम्यक आकलन और उचित रोग-शमन यह उनकी विशेषता थी।
सन 1942 के फरवरी मास में 'थाट्स ऑन पाकिस्तान' पुस्तक पर मुंबई में जो सेमिनार हुआ वहां भाषण के माध्यम से भीमराव जी ने हिन्दू समाज को सांत्वना दी।
पाकिस्तान निर्मिति के पश्चात मुस्लिम नागरिक सामर्थ्यशाली होंगे और समूचे हिन्दुस्थान में पुनश्च अपना साम्राज्य खड़ा करेंगे, यह भय वृथा है। हिन्दू समाज मुसलमानों को पराजित करेगा यह मेरा विश्वास है। सवर्ण हिंदुओं से मेरा झगडा है यह सच है। लेकिन भारत की रक्षा का प्रश्न जब उपस्थित होगा, तब मैं पूरी शक्ति लगाकर भारतभूमि की रक्षा करूंगा।
यदि सन 1935 में आंबेडकरजी ने 'मैं हिन्दू धर्म का त्याग करूंगा' ऐसी घोषणा की थी, और पांच वर्ष के बाद उन्होंने मुस्लिम लीग की मांग का समर्थन किया था, तो भी उनका हिन्दू भाव-विश्व का प्रेम बरकरार था। इतना ही नहीं, सन 1946 तक, प्रतिशोध की भूमिका लेकर वक्तव्य देने वाले आंबेडकरजी ने सन 1945 में भारत की अखंडता और एकात्मता का जयगान शुरू किया था।
सचाई यह है कि भारतभूमि पर तथा यहां के भाव-विश्व पर आंबेडकरजी की अटूट श्रद्घा थी। सन 1919 में यानी अपनी छात्रावस्था में बाबासाहेब ने साउथबरो कमीशन के सम्मुख जो निवेदन प्रस्तुत किया था, वह इसी श्रद्घा का सही सबूत था। भारत में अनेक जातियां और पंथ हैं, इस परिस्थिति में इस देश में न तो जनतंत्र जद पकड़ेगा न स्वतंत्रता बरकरार होगी यह भय पश्चिमी विचारक व्यक्त करते थे। उनको मुंहतोड़ जवाद देने के लिए 28 वर्षीय भीमराव आंबेडकर ने सफल पहल की। यह जवाब यहां उल्लेखनीय है झ्र ह्लळँी २ङ्म ूं''ीि ्रि५्र२्रङ्मल्ल२ ङ्मा कल्ल्रिं ं१ी ी०४ं'ीि, ्रा ल्लङ्म३ ङ्म४३ङ्मिल्ली, ्रल्ल ं ूङ्म४ल्ल३१८ '्र'ी ३ँी वल्ल्र३ीि र३ं३ी२ ङ्मा अेी१्रूं. का ६्र३ँ ं'' ३ँी ्रि५्र२्रङ्मल्ल२, ३ँी वल्ल्र३ीि र३ं३ी२ ङ्मा अेी१्रूं ्र२ ा्र३ ाङ्म१ १ीस्र१ी२ील्ल३ं३्र५ी ॅङ्म५ी१ल्लेील्ल३, ६ँ८ ल्लङ्म३ कल्ल्रिं?ह्व
सन् 1945 में शेड्यूल्ड कास्ट्स फेडरेशन के मुंबई अधिवेशन में बाबासाहेब के दिये हुए भाषण का शीर्षक था ह्लउङ्मेे४ल्लं' ऊींि'ङ्मू' ंल्लि ं हं८ ३ङ्म रङ्म'५ी ्र३ह्व. उस भाषण में आंबेडकरजी ने भारतवर्ष पुनरपि अखंड और एकात्म होगा यह भविष्यवाणी की थी। सन 1947 के 15 अगस्त को महर्षि अरविन्द ने जो भविष्यवाणी की थी, उसी का प्राक्कथन भारतभक्त भीमराव ने सन 1945 में ही किया था। बिस्मार्क के नेतृत्व में सन 1867 में जर्मनी अखंडता और एकात्मता की ओर मार्गक्रमण करने लगा और अंततोगत्वा एकात्मता हासिल करने में सफल हुआ, अपना भारतवर्ष भी जर्मनी की तरह खुद का यह सपना पूर्ण करेगा- यह थी भीमरावजी की भव्य संकेत रेखा।
प्राचीन ग्रीक तत्वज्ञान के मुताबिक हर व्यक्तिमात्र के जीवन में अपोलोनियन और डायोनिशियन (अस्रङ्म'ङ्मल्ल्रंल्ल ंल्लि ऊ्रङ्मल्ल८२्रंल्ल) नामक दो प्रवृतियां प्रेरणा देती रहती हैंै। अपोलोनियन प्रवृत्ति तर्कशुद्घ और बुद्घिनिष्ठ विचारों तथा सम्यक व्यवहारों की प्रेरणा देती है, तो डायोनिशियन प्रवृत्ति संघर्षात्मक तथा निषेधात्मक कर्म करने की प्रेरणा देती है। आंबेडकर जीवन चरित्र हमें बताता है कि डायोनिशियन प्रवृत्ति अस्थायी और अल्पकालीन साबित हुई, जबकि अपोलोनियन वृत्ति-प्रवृत्ति उनके लिए स्थायी और सर्वकालीन राज करती रही। सन 1935 से सन 1946 तक आंबेडकरजी डायोनिशियन थे, अन्य तीन अध्याय कालखंडों में वह अपोलाोनियन थे। जीवनभर तर्कशुद्घ, बुद्घिनिष्ठ और सम्यक विचारों-व्यवहारों की उपासना करने वाले बाबासाहेब आंबेडकर स्वभावत: भारतीय भावविश्व के भक्त थे।
सन 1946 से सन 1956 तक यानी अपने जीवन के अंतिम दशक में आंबेडकरजी अपोलेनियन अनुयायी बन गए। सभा के प्रथम अधिवेशन में 17 दिसम्बर 1946 को भाषण देते समय भारत की मौलिक एकात्मता के सन्दर्भ में उन्होंने जो वक्तव्य किया वह निसंदेह सुनहरा था। 'आज मुस्लिम लीग ने भारत का विभाजन करने के लिए आंदोलन छेड़ा है, दंगे फसाद शुरू किये हैं। लेकिन भविष्य में एक दिन इसी लीग के कार्यकर्ता और नेता अखंड हिंदुस्थान के हिमायती बनेंगे यह मेरी श्रद्घा है। भारत के अधिकार क्षेत्र में जिन रियासतों ने भारतविरोधी षड्यंत्र करने की पहल की है, अतिरिक्त भूक्षेत्रीय निष्ठा दिखाई है, उनके दुष्ट प्रयासों को स्वतन्त्र भारत के शासकों को पूरी तरह से कुचलना चाहिये।' क्या बाबासाहेब के ये विचार भारतभक्ति के प्रमाण नहीं हैं? भारतभक्त भीमरावजी द्वारा 25 नवम्बर 1949 को संविधान सभा में दिया हुआ भाषण तो उनके खुले हृदय का स्वर्णिम आविष्कार था। 26 नवम्बर को भारतवर्ष ने संविधान को स्वीकार किया और उस दिन की पूर्वसंध्या पर इस भक्त के भक्तिपूर्ण हृदय का आविष्कार हुआ। भारत पर भूतकाल में जो आक्रमण हुए, उनका विरोध करने के लिए यहां के जनसामान्य कमर बांधकर खड़े हुए। परन्तु जयचंदी वृत्ति-प्रवृत्ति के गद्दार आगे आये और उन्होंने देशद्रोह किये। भविष्य में इस तरह के गद्दार अपने देश में कभी भी पैदा नहीं होंगे, ऐसी दक्षता आवश्यक है। आंबेडकरजी ने ऐसे विचार प्रस्तुत करने के पश्चात् लोगों से प्रार्थना की कि गणतंत्र में केवल संवैधानिक मागार्ें से ही हरेक को खुद की भावनाओं को व्यक्त करना चाहिये इस शर्त को चरितार्थ करना जरूरी है।
'भारत की सीमाओं की सुरक्षा' विषय बाबासाहेब के लिए प्राणप्रिय था। अतएव चीन से समझौता करने के लिए कटिबद्घ पंडित नेहरू आंबेडकरजी की दृष्टि में गलत रास्ते पर चलने वाले नेता थे। नेहरू जी की गोवा नीति तथा कश्मीर की नीति भी आंबेडकरजी की दृष्टि में गलत थी। जवाहरलाल जी पंचशील पर भरोसा रखते हैं, लेकिन क्या चीन के कर्णधार विश्वसनीय हैं? चाओ और माओ पंचशील पर श्रद्घा रखते हैं क्या? भविष्य में चीन के नेतागण भारत पर हमला बोलेंगे यह भय मुझे पीड़ा देता है। डॉ. आंबेडकरजी द्रष्टा साबित हुए इसमें कोई गुंजाइश नहीं। आंबेडकरजी की खासियत यह थी कि विदेश यात्रा में भारत सरकार की नीति पर किसी तरह की टीका टिपण्णी मैं नहीं करूंगा, यही उनकी भूमिका थी।
सन 1935 में डॉ. साहब ने 'मैं अहिन्दू बनकर ही दुनिया से विदाई लूंगा' यह घोषणा की लेकिन इक्कीस वर्षों के बाद इस घोषणा की कार्यवाही की और भगवान बुद्घ के रास्ते पर चलना पसंद किया। इक्कीस वर्षों में कन्वर्जन की दिशा में उन्होंने जो वक्तव्य किये, जो चर्चा विमर्श किये, वे उनकी भारतीय संस्कृति से जुड़ी हुई निष्ठा के परिचायक थे। उस निवेदन के कुछ अंश स्मरणीय हैं यदि भारत के अछूत नागरिक इस्लाम या ईसाइयत को स्वीकार करेंगे तो वे भारतीय संस्कृति के दायरे से बाहर जायेंगे। वे अराष्ट्रीय होंगे। मुसलमानों की या ईसाइयत की संख्या बढ़ेगी। देश को खतरा पैदा होगा। परन्तु यदि अछूत भाई-बहन गुरु नानक के अनुगामी, यानी सिख बनेंगे तो वे राष्ट्रीय रहेंगे, राष्ट्र को आधार देने वाले घटक के नाते जीवन बिताते रहेंगे।
गहरा चिंतन-मंथन करने के पश्चात् उन्होंने भगवान गौतमबुद्घ के मार्ग पर चलने का निश्चय किया। सैकडों अनुगामियों को उन्होंने बौद्घधर्म की दीक्षा दी। वह तिथि थी सन 1956 की विजयदशमी की। ऐसा कन्वर्जन करने से पहले 5 अगस्त, 1956 को उनके दिल्ली स्थित एक सहकारी श्रीमान सोहनलाल शास्त्री जब उनके घर आये तब जो चर्चा विमर्श हुआ, उससे बाबासाहेब की मानसिकता अधिक साफ तौर पर अभिव्यक्त हुई – सोहनलाल शास्त्री – बाबासाहेब बौद्घ धर्म की तुलना में दलितों के लिए इस्लाम या ईसाइयत का स्वीकर अधिक लाभदायक सिद्घ होगा। तो भी आपने बौद्घ धर्म का स्वीकार वांछनीय माना है। मेहरबानी करके इसका कारण हमें समझाइए ।
डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर-प्यारे सोहनलाल, इस्लाम का या ईसाइयत का स्वीकार भौतिक दृष्टि से अधिक लाभदायक होगा यह सच है। दुनिया भर के कई देश हमारा समर्थन करेंगे और भारत के दलितों का राजनीति में प्रभाव बढ़ेगा यह भी सच है। लेकिन हम सब परस्वाधीन होंगे, भारत मेंं अलग-थलग पड़ जायेंगे। अपनी सांस्कृतिक विरासत खो बैठेंगे। जबकि बौद्घ बनने के बाद भी हम सबका इस मिट्टी से रिश्ता बरकरार रहेगा।
बाबासाहेब आंबेडकर हिन्दू तत्वज्ञान को आजीवन प्रेम करते रहे। वेदोपनिषद उनके लिए श्रद्धेय थे। उन्होंने महात्मा गांधीजी से संघर्ष किया, कारण उनकी दृष्टि में वेदप्रणीत चातुर्वर्ण्य गुणसिद्घ था, और गांधीजी प्रणीत चातुर्वर्ण्य जन्मसिद्घ था। आंबेडकरजी की भूमिका उनके ही शब्दों में :- ह्लळँी ी२२ील्लूी ङ्मा ३ँी श्ी्रिू ूङ्मल्लूीस्र३्रङ्मल्ल ङ्मा श्ं१ल्लं ्र२ ३ँी स्र४१२४्र३ ङ्मा ं ूं''्रल्लॅ ६ँ्रूँ ्र२ ंस्रस्र१ङ्मस्र१्रं३ी ३ङ्म ङ्मल्लीह्ण२ ल्लं३४१ं' ंस्र३्र३४िी. ळँी ी२२ील्लूी ङ्मा ३ँी टंँं३ेंह्ण२ ूङ्मल्लूीस्र३्रङ्मल्ल ङ्मा श्ं१ल्लं ्र२ ३ँी स्र४१२४्र३ ङ्मा ंल्लूी२३१ं' ूं''्रल्लॅ ्र११ी२स्रीू३्र५ी ङ्मा ल्लं३४१ं' ंस्र३्र३४िी.ह्व आंबेडकरजी ने स्वामी दयानंद जैसे अभिजनों द्वारा की हुई वेदमीमांसा पर मुहर लगायी थी- ह्लक े४२३ ंिे्र३ ३ँं३ ३ँी श्ी्रिू ३ँीङ्म१८ ङ्मा श्ं१ल्लं ं२ ्रल्ल३ी१स्र१ी३ीि ु८ र६ंे्र ऊं८ंल्लंल्लिं ंल्लि २ङ्मेी ङ्म३ँी१२ ्र२ ं २ील्ल२्रु'ी ंल्लि ्रल्लङ्मााील्ल२्र५ी ३ँ्रल्लॅ. क३ ्रिि ल्लङ्म३ ंिे्र३ ु्र१३ँ ं२ ं िी३ी१े्रल्ल्रल्लॅ ांू३ङ्म१ ्रल्ल ा्र७्रल्लॅ ३ँी स्र'ंूी ङ्मा ंल्ल ्रल्ल्रि५्रि४ं' ्रल्ल ३ँी २ङ्मू्री३८. क३ ङ्मल्ल'८ १ीूङ्मॅल्ल्र९ीि ६ङ्म१३ँ.ह्व
आंबेडकरजी को कई यातनाओ से हमेशा जूझना पड़ा। उच्च विद्या विभूषित होने के पश्चात् भी एक दलित होने के नाते उनकी असीम उपेक्षा हुई। परन्तु गहरा चिंतन, बचपन से उपलब्ध अनोखे संस्कार और असामान्य़. इस गुणसम्पदा की पूंजी यही उनकी विशेषता थी। परिणामस्वरूप, भारतीय संस्कृति से जुडा हुआ अटूट रिश्ता लेखों और भाषणों में अभिव्यक्त हुआ। उनके समग्र जीवन के अध्ययन करने के बाद उनकी धारणायें (ूङ्मल्ल५्रू३्रङ्मल्ल२) निचोड़ के रूप में प्रस्तुत होती हैं। मनुष्य का मन महत्वपूर्ण है उसका शरीर नहीं। हर इंसान का शील महत्वपूर्ण है, उसकी शिक्षा से भी श्रेष्ठ है। धर्मसंस्था बुनियादी है, राज्यसंस्था नहीं क्या ये धारणाएं बाबासाहेब को उपनिषदकारों कि पंक्ति में स्थान देती हैं, इस निष्कर्ष पर ूङ्मल्ल२ील्ल२४२ पैदा होना जरूरी नहीं है?
अर्थात् धर्म का मतलब इन्साफ और इंसानियत। धर्म का अर्थ बंधुता। आंबेडकरजी ने कहा है। स्वतंत्रता, समता और बंधुता यह तत्वत्रयी मैंने फ्रांसीसी क्रांति के अध्ययन से नहीं, अपितु बौद्घ धर्म के अध्ययन से गले लगाई है। भगवान गौतम बुद्घ ने करुणाधर्म का जयगान किया। वर्तमान में जब वैश्वीकरण, निजीकरण और उदारीकरण यानी दुनिया में विषमता और दरिद्रता की समस्याएं पैदा कर रही है, तब तो अमीरों तथा मध्यमवर्गियों को कारुण्यरूप और करुणाकर बनने की अतीव आवश्यकता है ।
डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर केवल दलितों और पीडि़तों के नहीं, अपितु सम्पूर्ण मानवजाति के मार्गदर्शक थे। डॉ. साहेब भारतभूमि के भक्त थे, उनकी जड़ें इस भूमि में थीं यह शाश्वत सत्य है।
(लेखक प्रसिद्ध चिंतक एवं मुम्बई विश्वविद्यालय यूरेशियाई अध्ययन केन्द्र में आमंत्रित प्राध्यापक हैं।)
टिप्पणियाँ