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निर्मल पावन भावना, सभी के सुख की कामना
गौरवमय समरस जन जीवन, यही राष्ट्र आराधना।।
नर सेवा नारायण सेवा, है अपना कर्तव्य महान,
अपनी भक्ति अपनी शक्ति से करना जन-जन का त्राण।
अपने तप से प्रकटाएंगे, मां भारत कमलासना
चले निरंतर साधना… इस संगम गीत का आह्वान करते हुए राष्ट्रीय सेवा भारती द्वारा (4, 5 व 6 अप्रैल) ब्लू सफायर एंड पार्क रिजॉर्ट, अलीपुर, नई दिल्ली में भव्य तीन दिवसीय राष्ट्रीय सेवा संगम का आयोजन किया गया। संगम जहां सेवा भारती के कार्यकर्ताओं को सतत सेवा साधना का संदेश दे रहा था तो वहीं पथ प्रदर्शक की भूमिका भी निभा रहा था। आयोजन में देश के सुदूर प्रांतों, जैसे जम्मू-कश्मीर, केरल, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, असम, हरियाणा, गोवा, छत्तीसगढ़़, राजस्थान और उत्तर प्रदेश आदि के 532 जिलों से सेवा भारती के लगभग 3050 कार्यकताओं एवं 707 स्वयंसेवी संस्थाओं ने प्रतिभाग किया। कार्यक्रम में वे सभी कार्यकर्ता शामिल थे, जिन्होंने अपने तप और परिश्रम से कठिनतम परिस्थितियों में सेवाकार्य करना जारी रखा। जात-पात, भाषा, प्रांत, ऊंच-नीच, छूआछूत, अमीरी-गरीबी का कोई भी भेद उनके मन में नहीं था। कार्यकर्ताओं के मन में एक ही बात भरी थी कि हम जो भी सेवाकार्य कर रहे हैं वह नारायण की सेवा है।
राष्ट्रीय सेवा संगम के प्रथम सत्र का उद्घाटन दीप प्रज्वलन के साथ कार्यक्रम की मुख्य अतिथि प्रेम और करुणा की मूर्ति माता अमृतानंदमयी उपाख्य अम्मा ने किया। राष्ट्रीय सेवा भारती के महामंत्री श्री ऋषिपाल डडवाल ने मंच पर उपस्थिति सभी अतिथियों का शॉल ओढ़ाकर अभिनंदन किया। इस अवसर अम्मा ने अपने आशीर्वचन में कहा कि मानव स्वभाव का प्रमुख गुण त्याग कर सेवा करना है। उन्होंने कहा,'मैंने स्वयं सेवा भारती के प्रकल्पों को देखा है। इन प्रकल्पों में निस्वार्थ सेवा होती है। ईश्वर ने हमें इसलिए मानव शरीर दिया है कि ताकि हम दूसरों की सेवा कर सकें। हम धरती को माता मानते हैं। यह सिर्फ भारत के लोगों का ही विश्वास है, अन्यत्र ऐसा कहीं भी नहीं है। जब हम धरती को माता मानते हैं तो उस पर पलने वाले सभी हमारे बंधु-बान्धव ही हुए। उनका दुख मेरा दुख हुआ। उनकी पीड़ा हमारी ही पीड़ा हुई।'
अम्मा ने आगे कहा कि आज संपूर्ण विश्व में कोलाहल की स्थिति है। एक दूसरे को मारने-काटने का दौर चल रहा है। इसका कारण है कि धर्म की कमी हुई है। धर्म ही है जो हमें अच्छे और बुरे का भान कराता है, वह बताता है कि जीवन पथ में हमें कैसे चलना है। अगर हम सभी धर्म के बताए मार्गों पर चलें तो हम, हमारा परिवार, समाज सदा के लिए सुखी रहेगा।
उन्होंने कहा कि अपार आत्मबोध को आत्मसात करने वाले श्रीकृष्ण ने यह कभी महसूस नहीं किया कि हमने कभी कोई गलत कार्य किया। वह सेवा के संबंध में कभी लेश मात्र भी भेद नहीं करते थे। सबकी सेवा, सबके सुख की कामना उनके हृदय में सदैव रहती थी। उन्होंने कहा कि ऐसे मनुष्य होने का क्या अर्थ जिसका जीवन एक दूसरे के लिए न हो? माता अमृतानंदमयी ने कहा कि आज कुछ तथाकथित लोगों ने सेवा को षड्यंत्र बना दिया है। जबकि सेवा नि:स्वार्थ है। सेवा करते समय सिर्फ सेवा का भाव हो तो ही वह सेवा है अगर ऐसा नहीं है तो सेवा, सेवा न रहकर स्वार्थ को पूरा करने का साधन ही तो है।
उन्होंने आह्वान किया कि अमीर लोग अभावग्रस्त लोगों के दुखों को दूर करने के लिए आगे आएं और गरीबों की सेवा करें क्योंकि नर में ही नारायण का वास है। वे लोग गरीबों के गांव में अपने बच्चों को ले जाएं। उन स्थानों पर बच्चों को सेवा में लगाएं। उनमें सेवा का भाव पैदा करें। अगर हम एक बार अपने लक्ष्य के पीछे पड़ जाएंगे तो कोई भी ऐसा लक्ष्य नहीं है जो पूरा नहीं किया जा सकता। कार्यक्रम में प्रमुख रूप से उपस्थित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह डॉ. कृष्णगोपाल ने कहा कि प्रत्येक पांच वर्ष के अंतराल में यह सेवा संगम होता है और हर बार यह संगम नई उपलब्धियां लेकर आता है। इस संगम का लक्ष्य बहुत बड़ा है। कोई दुखी, दीन-हीन न रहे, यह इसका कार्य है। किसी को लेशमात्र भी दुख न हो, यह हमारी धारणा है। इस देश की परंपरा है और हमारा धर्म कहता है कि सब सुखी रहें, कोई किसी प्रकार से चिंतित न रहे। कुछ दशकों पहले लग रहा था कि हिन्दू धर्म खंड-खंड हो गया है, इसलिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना हुई और स्थापना के समय भाव था कि समाज में व्याप्त इन सभी विकृतियों को दूर किया जाएगा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तृतीय सरसंघचालक श्री बालासाहब देवरस ने इस दिशा में कार्य किया। उन्होंने पहले सेवा कार्यों को शुरू करने का आह्वान कार्यकर्ताओं से किया। स्वयंसेवकों ने इस आदेश को सिर माथे लेकर एकजुट होकर इस लक्ष्य को संभाला। आज उसी का परिणाम है कि 1,50,000 से भी ज्यादा सेवा कार्य चल रहे हैं।
उन्होंने आगे कहा कि भारत के बाहर जो सेवा है वह वास्तव में सेवा नहीं है। इस पवित्र कार्य के पीछे भी उनका एक मंतव्य छिपा है। कुछ तथाकथित लोगों ने सेवा को व्यापार बना दिया है, लेकिन भारत में सेवा का अर्थ सिर्फ और सिर्फ सेवा है। उसके पीछे किसी भी प्रकार का कोई मंतव्य नहीं है, कोई कामना नहीं है, कोई लोभ नहीं है। भारत के दर्शन को समझाते हुए उन्होंने महर्षि रमण का एक प्रसंग सुनाया। 'महर्षि के पास एक पादरी आया करते थे। वे सदैव महर्षि से परामात्मा के विषय में पूछते तो महर्षि उन्हें प्रतिदिन एक ही उत्तर देते कि मैं तो उनसे प्रतिदिन मिलता हूं। इस बात को सुनकर फादर को आश्चर्य हुआ और उसने भी महर्षि से परमात्मा को देखने की इच्छा प्रगट की। तो महर्षि उन्हें कुष्ठ रोगियों के एक गांव में ले गए, उन्होंने वहां पर कुष्ठ रोगियों की सेवा की और फिर वापस अपने घर चले आए। जब पादरी उनके साथ घर लौटे तो उसने महर्षि रमण से पूछा कि आपने परमात्मा के दर्शन नहीं कराए तो महर्षि ने कहा कि जिनकी मैं अभी सेवा करके आ रहा हूं वही तो परमात्मा हैं, क्योंकि मैं उनमें ही नारायण का रूप देखता हूं।'।
उन्होंने कहा कि हमारे कार्यकर्ता सेवा कार्यों में बड़े ही मन से लगते हैं। प्रत्येक स्थान पर एकात्म भाव जगाने का काम करते हैं। कोई छोटा-बड़ा नहीं, कोई अस्पृश्य नहीं, कोई ऊंच-नीच नहीं जैसे भेदभावों को मिटाने का कार्य सेवा भारती ने किया है। उसने हर क्षेत्र में समरस बंधुत्व स्थापित किया है। यहां तक कि कार्यकर्ता उग्रवादियों के परिवारों के बीच रहकर उनके दुखों को अपना समझकर कार्य करते हैं। सहसरकार्यवाह ने कहा कि हम सर्वे भवन्तु सुखिन: के मंत्र को मानने वाले हैं। हमें सेवा के जरिये देवत्व को पाना है। हम विश्व के प्रत्येक प्राणी का दुख दूर करेंगे। हम सबकी चिंता करने के लिए है। हमारे कार्यकर्ता कहीं पर भी कोई आपदा या विपदा आती है तो तत्काल उसका सामना करने के लिए खड़े हो जाते हैं। हमारी चिरस्थायी कल्पना है कि हम समाज के सभी लोगों का दुख करेंगे।
कार्यक्रम का तृतीय सत्र पू. बालासाहब देवरस सभागार में आयोजित हुआ। इस बौद्धिक कार्यक्रम में मुख्य रूप से रा. स्व. संघ के सरकार्यवाह श्री भैयाजी जोशी उपस्थित थे। कार्यक्रम के शुभारंभ में मंच पर उपस्थित अतिथियों ने सेवा कुंज और सेवा संगम नामक दो पुस्तकों को लोकार्पण किया। बौद्धिक सत्र को संबोधित करते हुए श्री भैयाजी जोशी ने कहा कि कई वर्षों से सेवा के क्षेत्र में हम लोग कार्य कर रहे हैं। मैं मानता हूं कि हम सभी एक विशिष्ट विचारधारा से जुड़े हैं और उसके पीछे एक उद्देश्य होता है, उस कार्य को करने के लिए एक भूमिका भी तय की जाती है।
आज समाज में सेवा शब्द बहुत हल्के में लिया जाने लगा है। नौकरी करने वाला सेवानिवृत्त होने पर कहता है कि मैं सेवा मुक्त हो गया हूं, लेकिन उसने तो अपनी जीविका चलाने के लिए सेवा की, न कि किसी अन्य उद्देश्य के लिए। सरकार्यवाह ने सेवा भाव को स्पष्ट करते हुए कहा कि आज के समय कुछ लोग नाम के लिए सेवा करते हैं तो कुछ और किसी के लिए। उन्होंने एक प्रसंग सुनाते हुए कहा कि मैंने एक स्थान पर देखा कि पानी का प्याऊ लगा हुआ था और वहां कुछ निर्माण कार्य चल रहा था। पूछने पर मालूम हुआ कि प्याऊ के दानकर्ता के नाम की पट्टिका से दो-चार अक्षर टूट कर गिर गए थे, उसी की मरम्मत की जा रही थी। प्याऊ में पानी नहीं आ रहा था, लेकिन इस ओर किसी का ध्यान नहीं था। देखने में आता है कि सरकार द्वारा चिकित्सालय और विद्यालय बना दिए जाते हैं। लेकिन उन स्थानों पर वे सुविधाएं प्राप्त नहीं होती हैं जो मिलनी चाहिए। एक सर्वेक्षण बताता है कि वनवासी क्षेत्रों में ऐसे सरकारी चिकित्सालय हैं, जहां दवाइयां तक नहीं हैं और जो मिलती हैं उनकी मात्रा बहुत कम है। साथ ही 50 फीसदी वनवासी क्षेत्रों में शिक्षकों का अभाव है, यह चिंता का विषय है। सरकार का कार्य सीमित है, उस तंत्र को चलाने के लिए लोगों की भावना बदलनी होगी। इस समाज में 35-40 करोड़ की आबादी वाले हिस्से की ओर कौन देखेगा, कौन उसकी चिंता करेगा। समाज में यह भाव विकसित करने की आवश्यकता है कि जो मेरे पास है उसका समाज के लिए उपयोग करना है, जो मैंने प्राप्त किया है वह समाज का हिस्सा है, मैं समाज का ऋणी हूं क्योंकि सामाजिक दायित्व का ऋण पैसों से नहीं, बल्कि समाज में कार्य से उतरता है। समाज के प्रति कुछ करने का भाव होना चाहिए। हमें समाज के प्रति संवेदनशील होना पड़ेगा, आत्मीयता के बिना सेवा में प्राण नहीं आएंगे। इसके चलते कई बार गलत विचारों का मन में घर हो जाता है। जो कर्तव्य की भावना को समझेगा और कार्य करेगा, उसी के परिणाम सकारात्मक आएंगे। -राहुल शर्मा, आदित्य भारद्वाज, अश्वनी मिश्र
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