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चीन में इन दिनों एक बार फिर लोकतंत्र की मांग जोर पकड़ती दिख रही है। जहां एक और उसके पक्ष में एक नया आंदोलन अपना सर उठा रहा है तो दूसरी ओर चर्च संगठनों के विरुद्ध कम्युनिस्ट सरकार ने तीव्र संघर्ष छेड़ दिया है। आज से 25 वर्ष पूर्व सन् 1989 में चीन में लोकतंत्र के पक्ष में एक बहुत जबरदस्त आंदोलन हुआ था। वहां की सरकार ने थ्येनआनमन चौक पर हजारों युवाओं पर टैंक चलवाकर उस आंदोलन को बेरहमी से कुचल दिया था। आज फिर पिछले तीन महीने से उसी तरह का आंदोलन हांगकांग में जारी है। पिछले कई दिनों से आंदोलनकारियों ने वहां की सरकार को राहत की सांस नहीं लेने दी है। ठीक इसी दौरान चीन में चर्च के विरोध में वहां की सरकार ने आक्रामक रुख अपनाया हुआ है। यह आंदोलन हांगकांग में लोकतंत्र की मांग करने वाले आंदोलन से अधिक तीव्र है।
आखिर चीन में इस तरह का आंदोलन क्यों शुरू हुआ? यह जानने के लिए इसकी पृष्ठभूमि पर गौर करना जरूरी है। चीन में इन दिनों जिस तादाद में चर्च संगठनों एवं लोकतंत्र के पक्षधर संगठनों का आंदोलन चल रहा है उसी अनुपात में वहां की ईसाई आबादी हर चीज पर हावी होती जा रही है। हालात ये हैं कि चीन में कम्युनिस्ट पार्टी, जो आज सत्ता में है, के सदस्यों की संख्या 7़ 5 करोड़ है जबकि हैरानी की बात है कि विभिन्न चर्च संगठनों के सदस्यों की संख्या 10 करोड़ से अधिक हो गई है। इसलिए आज वहां लोकतंत्र की रक्षा का दावा करने वाले तथा चर्च संगठनों की मांगों को बल देने वाले अपने भाषणों में खुली चुनौती दे रहे हैं कि 'तुम्हारी (कम्युनिस्ट)अपेक्षा हमारी संख्या ज्यादा है और लोकतंत्र में इसका क्या मतलब होता है, यह अच्छे से जान लो।'
कल तक हम यहां भारत में सुनते आ रहे थे कि चीन में एक दल का शासन है और वहां अन्य किसी की मजाल नहीं है कि सर उठा कर बात करे। लेकिन आज सारी दुनिया हैरान है कि वहां अचानक यह क्या हो गया। ईसाई मिशनरियों ने वहां 'कन्वर्जन के जरिए राष्ट्रांतरण' का उदृेश्य सामने रखकर सुनियोजित पद्धति से अपना जाल बिछाया हुआ है। चार वर्ष पूर्व वहां के 90 वर्ष के एक बिशप ऑगस्टीन हू ग्दऊ का निधन हुआ था। हालांकि यह घटना पुरानी है और उनकी उम्र भी कुछ कम नहीं थी। वे वहां के भूमिगत चर्च संगठन के बिशप थे, फिर भी वहां के ईसाई समाज ने उनकी बरसी बड़े पैमाने पर मनाई। चीन ने उन्हें 50 वर्ष से अधिक समय तक जेल में रखा था।
ये सारा इतिहास बहुत बड़ा है, लेकिन इसमें दो-तीन मुख्य चीजें हैं, जैसे भूमिगत चर्च संगठन और एक बिशप को 50 वर्ष का कारावास दिया जाना। वहां ईसाईकरण के लिए मिशनरियों ने पूरी योजना के तहत अपनी गतिविधियां चला रखी थीं। ऑगस्टीन को पोप यानी कैथोलिक संगठन ने बिशप नियुक्त किया था, लेकिन चीन में पिछले 100 वर्ष में जितने भी कन्वर्जन हुए वे मुख्यतया प्रोटेस्टेंट पंथ के हुए थे। चीन में इस तरह का काम करने वाले अनेक संगठन हैं, लेकिन उनमें बैप्टिस्ट संगठन के कन्वर्जन का अनुपात अधिक है। माओ के समय से पहले भी इस बैप्टिस्ट संगठन ने बड़े पैमाने पर ईसाई कन्वर्जन किए थे। बैप्टिस्ट चर्च वही है जिसने हमारे उत्तर-पूर्व में नागालैंड में 100 प्रतिशत कन्वर्जन किया है। चीन में माओ के समय में ये सभी संगठन भूमिगत हो गए थे। लेकिन इधर पिछले 25 वर्ष में उनके हौसले काफी बढ़ गए हैं।
पिछले दिनों ही चीन में चर्च ऑफ ऑलमाइटी गॉड नामक संगठन के दो कार्यकर्ताओं को फांसी की सजा दी गई। इस कारण जगह-जगह आंदोलन शुरू हुए। लेकिन चीन सरकार के लिए यह केवल एक बहाना था। इसकी आड़ में चीन में हजारों चर्च मिशनरियों की गिरफ्तारियां शुरू हुई हैं। आज चीन में इस तरह की गिरफ्तारियों का एक चलन ही बन गया है। सन् 1986 से इस तरह से ईसाइयों की गिरफ्तारियां शुरू हुई थीं। उस समय ढाई हजार मिशनरियों की गिरफ्तारी हुई थी। तब इस बात पर गौर किया गया था कि उससे 25 वर्ष पहले से वहां ईसाई मिशनरियों की भूमिगत गतिविधियां चल रही थीं। उससे भी पहले 25 वर्ष का समय खुद माओ त्से तुंग के चीन पर फौलादी वर्चस्व का समय था। पंथ जैसे शब्द का प्रयोग तक नहीं किया जाता था। ऐसे समय में वहां देश भर में यूरोपीय मिशन की मशीनरी का होना पूरी तरह से असंभव प्रतीत होता था। लेकिन मिशनरियों द्वारा यूरोप में बैठे अपने आकाओं से संपर्क करते हुए चूक हो जाने से वह पूरी मशीनरी चीनी सरकार की नजरों में आ गई। उसके बाद पूरे चीन में तेजी से गिरफ्तारियां शुरू हुईं। उन चर्च संगठनों पर पाबंदी लगाई गई जिनके मुख्यालय यूरोप-अमरीका में थे।
उसी दौरान चीन में नए अर्थतंत्र की हवा बहने लगी थी, तबक अनेक बहुराष्ट्रीय कंपनियां वहां आईं। उनकी मांग थी कि चर्च को लेकर कठोर रवैया नहीं अपनाया जाए। यह सोचकर कि उनके कारण चीन की अर्थव्यवस्था में कुछ तेजी आएगी, सरकार ने चर्च संगठनों के प्रति कुछ नरमाई अपनाई। चीन ने उन पर से पाबंदी नहीं उठाई लेकिन उन्हें 'अंडरग्राऊंड चर्च' के नाम से संबोधित किया गया। उसी समय चीन ने अपना स्वतंत्र राष्ट्रीय चर्च घोषित किया।
आज चीन में तीन-चार तरह के चर्च संगठन सक्रिय हैं। बाद में चीन सरकार को यह भी पता चला कि उन सभी संगठनों ने अंदर से एक-दूसरे से हाथ मिलाया हुआ है। वास्तव में खुद माओ के समय में इस तरह की घटनाएं घटित होती थीं भी तो उनको निमर्मता से नेस्तोनाबूद किया जाता़ था। सन् 1986 में सरकार ने इसी तरह युवाओं के द्वारा चलाए लोकतंत्र के आंंदोलन को टैंकों से रौंद डाला था। उस हमले में कुल कितने युवा मारे गए, यह आज तक किसी को पता नहीं चला है। एक अस्पष्ट मत है कि सैकड़ों हजार युवा उस बर्बरता के शिकार हुए थे। लेकिन एक बात निश्चित है और वह यह कि वे युवा कोई यूरोप- अमरीका से नहीं आए थे अथवा अन्य पड़ोसी देशों के युवा नहीं थे, वे वहीं के स्थानीय युवा थे। लेकिन चूंकि वहां उस समय की कम्युनिस्ट सरकार माओ की छत्रछाया में पनपी थी, इसलिए वह अपने ही युवाओं को मारने से नहीं हिचकिचाई। लेकिन आज नहीं लगता कि वैसा कुछ किया जा सकेगा़, क्योंकि पिछले करीब 100 दिनों के दौरान हांग-कांग के युवाओं ने लोकतंत्र के लिए अपना आंदोलन तीव्र किया है और उन्हें नियंत्रित करने के लिए आंसूगैस के 60-70 गोले फोड़ने के अलावा और कुछ नहीं किया गया है। हांग-कांग से चीन का कानून अलग है फिर भी चीन के चर्च संगठन एवं हांग-कांग के लोकतंत्रवादी आंदोलन साथ मिलकर चीन में एक दीर्घकालीन आंदोलन की तैयारी कर रहे हैं। फिलहाल स्थिति यह है कि लोकतंत्रवादी आंदोलन अथवा विदेशी मिशनरियों को लेकर कोई भी हरकत चीन में देशव्यापी आंदोलन का विस्फोट करवा सकती है, क्योंकि चर्च संगठनों ने दावा किया है कि चीन के कम्युनिस्ट कार्डधारकों से अधिक चर्च के सदस्य हैं। यह दावा करना वहां की सरकार को सत्ता से दूर होने के लिए कहने जैसा ही है।
आंदोलनकर्ताओं का कहना है कि चीन में सत्ताधारी पार्टी के 7़ 5 करोड़ सदस्य हैं, जबकि चर्च के वहां 10 करोड़ सदस्य हैं। वहां के चर्च संगठनों ने दावा किया है कि सन् 2030 तक चीन में 25 करोड़ ईसाई होंगे। यानी दुनियाभर में ईसाई आबादी में चीन सबसे ऊपर हो जाएगा। क्योंकि अभी सर्वाधिक ईसाई जनसंख्या वाला देश है अमरीका और वहां फिलहाल 24़ 75 करोड़ ईसाई हैं। चर्च संठनों का कहना है कि तब तक चीन में लोकतंत्र आ सकता है और लोकतंत्र की दृष्टि से सबसे सुगठित गुट वही है। इसके कारण उसी की वहां सरकार बनने की संभावना है। चीन के आंदोलन के साथ ही हांग-कांग के आंदोलन से उभरकर आए बब फू नाम के एक पास्टर पर फिलहाल चीन सरकार नजर रखे हुए है।
उस आंदोलन में भी सहभागी होने वालों में अमरीकी-चीनी पास्टर बब फु भी था और आज वहां जो ईसाईकरण चल रहा है उसमें भी उसकी महत्वपूर्ण भूमिका है। उसने चीन में ईसाइयों की मदद करने हेतु सन् 2002 में 'चायना एड' नामक संगठन की स्थापना की थी। बब को, जिसकी आयु आज 47 वर्ष है, एक अमरीकन अध्यापक ने पढ़ने के लिए एक मतान्तरित ईसाई व्यक्ति की पुस्तक दी थी। उसके दिमाग में डाला गया कि आज चीन की अत्याचारी सरकार की प्रताड़नाओं से बचने का एकमात्र रास्ता ईसाई होना ही है। मन में यह विचार पक्का होने पर उसने ईसाई मत अपना लिया। चीन में अपने घर के पिछवाड़े में उसने चर्च शुरू किया। इससे वहां की पुलिस उसके पीछे पड़ गई। ऐसे में वह अपने परिवार के साथ हांग-कांग चला गया। पर वहां भी सरकार की अनुमति के बिना उसकी पत्नी के गर्भ धारण करने के अपराध के चलते परिवार पर सरकारी कार्रवाई की संभावना बढ़ गई। फिर इस परिवार ने अमरीका का रुख किया। चीन में जनसंख्या को नियंत्रित करने के लिहाज से सरकारी नीति के तौर पर पहली संतान के बाद दूसरी बार मां बनने के लिए सरकार की अनुमति लेनी होती है। फिलहाल फू अमरीका में है। वहीं से वह चीन तथा मुख्यत: हांग-कांग के लोकतंत्रवादी आंदोलन को हवा दे रहा है।
चीन में जब माओ की फैलादी कम्युनिस्ट सरकार सत्ता में थी तब मत-पंथ संबंधी किसी भी गतिविधि या उल्लेख करने तक पर पाबंदी थी। लोगों के मन में 'सृष्टि का संचालन करने वाली अदृश्य ताकत को समझने की तीव्र लालसा' थी जिसका उस समय समाधान नहीं मिला था। लेकिन चीन के लोग मूलत: आस्थावान् हैं इस कारण माओ की फौलादी गिरफ्त ढीली होते ही वहां की जनता ने अपने स्वभावानुसार 'परमेश्वर' की खोज शुरू की। वहां के बौद्घ संगठन तथा पूरब की ओर शिंतो जैसे पंथों का उन्होंने काम शुरू किया। लेकिन माओ के समय में इतना खालीपन बना था कि यूरोपीय संगठन भी उस मौके का उपयोग न करते तो वह आश्चर्य की ही बात होती। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के माध्यम से वहां जाने वाले लोगों ने भी यह 'पार्ट टाइम काम' शुरू किया है। चीन में आज जो10 करोड़ के आसपास ईसाइयों की संख्या है वह केवल पिछले 25 वषोंर् में नहीं उभरी है। अनेक दशकों पूर्व बैप्टिस्ट चर्च द्वारा किए गए काम का वह परिणाम है। फिर भी आज वहां पुन: उनके दिन लौटे आए हैं। वहां आस्था के क्षेत्र में आए खालीपन का फायदा ये मिशनरी उठा रहे हैं। इसमें सबसे गंभीर मुद्दा, जो भारत पर भी लागू होता है वह यह है कि चाहे चीन में लोकतंत्रवादी आंदोलन हो अथवा ईसाइयों की बढ़ती संख्या के आधार पर वहां की कम्युनिस्ट सरकार को 'सत्ता छोड़ो' कहने की हिमाकत, यह सब 'यूरोसेंट्रिक' ताकतों के दुनिया पर फिर से वर्चस्व बनाने के प्रयासों का हिस्सा है। आज तक यूरोप-अमरीका कभी चीन से कोई विवाद की जड़ नहीं रोप पाए हैं। अब वे चर्च संगठन तथा लोकतंत्र के लिए हो रहे आंदोलन की आड़ में सर उठा रहे हैं। संदेह नहीं कि इन दोनों आंदोलनों ने चीन के सामने एक चुनौती खड़ी की है। भारत के संदर्भ में विचार किया जाए तो पिछले 500 वर्ष तक इन्होंने ही भारत की लूट में अगुआई की है। इस तरह यह दोहरा आक्रमण है।
प्रस्तुति: मोरेश्वर जोशी
चर्च के दो मिशनरियों
सरकार एवं चर्च कार्यकर्ताओं के बीच झड़पें
चीन में इन दिनों ईसाई मिशनररियों एवं चीन की कम्युनिस्ट सत्ता के बीच पग पग पर संघर्ष हो रहा है। पिछले दिनों चीन के उक पूर्वी प्रांत के 'चर्च ऑफ ऑलमाइटी गॉड' नामक पंथ के दो कार्यकर्ताओं को फांसी दी गई। ये दोनों थे झेंग लिडांग एवं उसकी बेटी झेंग फैन। इन दोनों के साथ अन्य तीन लोगों को भी फांसी की सजा सुनाई गई है। लेकिन उन्हें प्रत्यक्ष फांसी देने का आदेश अभी तक जारी नहीं हुआ है। इस फांसी के कारण चीन में माहौल काफी गर्माया हुआ है। सब जानते हैं कि चीन में ईसाई कन्वर्जन की एक बड़ी लहर चल रही है।
चीन में जिन दो ईसाई कार्यकर्ताओं को फांसी दी गई उनके चर्च को वहां 'उग्रवादी' के तौर पर घोषित किया गया है। चीन में इस पंथ की स्थापना सन् 1990 में हुई थी। झाओ वेशन एवं उनकी पत्नी यांग झयांग उसके संस्थापक थे। चीन में इस पंथ में यह बात फैलाई गई है कि यांग ईसा की अवतार हैं। पिछले 20 वर्ष में 20 लाख से अधिक लोग इस पंथ के कर्मठ कार्यकर्ता बने हैं। लेकिन चीन में व्याप्त भय के माहौल को देखकर झाओ और यांग अमरीका जा बसे। उनकी अनुपस्थिति में उनके कार्यकर्ता ही यह आंदोलन आगे बढ़ा रहे हैं। आठ माह पहले एक होटल में वू शैयान नामक महिला की मामूली मारपीट की घटना में हत्या हुई थी। वहां की सरकार ने इस घटना को 'देश विरोधी षड्यंत्र' माना और घटना से संबंधित पांचों लोगों को न्यायालय ने फांसी की सजा सुनाई। इस घटना को इतना गंभीर माना गया कि उससे वहां पूरे देश में गिरफ्तारियों का सिलसिला चल पड़ा और आज भी उस पंथ के हजारों कार्यकर्ता जेल में बंद हैं। चीन में 'चर्च ऑफ ऑलमाइटी गॉड' संगठन वहां की कम्युनिस्ट सरकार के विरोध में खुलेआम प्रचार करता है। इसके 10 लाख कार्यकर्ता मध्य चीन के हेन्नान प्रांत में सक्रिय हैं।
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