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यूं तो (दिल्ली में) आम आदमी की मुसीबतों की फेहरिस्त आम आदमी पार्टी के दूसरी बार रामलीला मैदान में सरकार बनाने की शपथ लेने के दिन से ही शुरू हो गई थी। लेकिन मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का अस्थमा बढ़ने के साथ ही जिस तरह से पार्टी की गुत्थमगुत्था बीच सड़क पर उतरने को बेताब होती दिखी, उससे राजधानी वालों के चेहरों पर अपने फैसले पर अफसोस का भाव उभरने लगा। केजरीवाल पार्टी का ढांचा चरमराता दिखने लगा, हालांकि बाहर से केजरीवाल, संजय सिंह, गोपाल राय, आशीष खेतान और आशुतोष मीडिया में ढांचे को पुख्ता दिखाने की असफल कोशिशें तो करते रहे, पर हर 'बाइट' में चेहरे पर उड़ती हवाइयों को नहीं छुपा पाए। केजरीवाल के इलाज के लिए बंगलूरू रवाना होते तक रस्साकशी इस कदर बढ़ चुकी थी कि उनके बंगलूरू जाने पर पार्टी के भीतर ही चुटकियां ली जाने लगीं कि जंजाल से बचने की जुगत में केजरीवाल दिल्ली से दूर जा बैठे हैं।
पार्टी के गठन से ही उसके अहम घटक रहे योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण को हाशिए पर धकेलने का खाका खींचा जाने लगा था, जो बकौल यादव और भूषण, पार्टी में एक ही व्यक्ति की तानाशाही और स्वेच्छाचारिता के खिलाफ उठने वाली हर आवाज को दबाने की कवायद ही थी। वैशाली और दिल्ली से नदारद केजरीवाल के राजधानी में मौजूद सिपहसालारों ने इधर यादव और भूषण को लेकर तंज कसने शुरू किए तो उधर विद्रोह पर उतर चुकी जोड़ी ने प्रेस वार्ताएं कर अंदरूनी खींचतान जगजाहिर करनी शुरू कर दी।
एक के बाद एक स्टिंग और आपस में लिखे ई-मेल उभरने लगे। केजरीवाल के इस पुराने गुप्त हथियार को अब उनके ही करीबी रहे आआपा क्षत्रपों ने अपना लिया और स्टिंग के दंश तीखे होने लगे। इसके साथ ही ट्विटर और एफबी और इंस्टाग्राम और व्हाट्स एप पर दो धड़ों में जंग का ऐलान होने लगा। एक धड़ा कोई स्टिंग उछालता तो अगले दिन दूसरा धड़ा एफबी पर कोई सनसनी पोस्ट ठोक देता। नतीजा यह हुआ कि केजरीवाल बंगलूरू में नेती के सत्रों से लौटते उसके पहले ही मैदाने-जंग में गोट बिछ चुकी थीं, शह और मात की चालें चलने को दोनों धड़े कसमसा रहे थे। एक अलग तरह की राजनीति और आम आदमी के 'दर्द' को समझने का दावा करने वालों की चाशनीपगी बातों में आकर उन्हें 67 विधायक देने वाली दिल्ली के बाशिंदे ठगा महसूस करने लगे और केजरीवाल की 'सादा' छवि के फेर में आकर उनके कसीदे गाने वाले पैरोकारों की आंखें फटी रह गईं तो उधर एफबी पर उनकी बखिया उधेड़ने वाली टिप्पणियां और तीखी होती गईं।
इसमें दो राय नहीं कि जिस शाम केजरीवाल बंगलूरू से मफलर उतारकर लौटे थे उस रात यादव और भूषण के साथ सुलह-सफाई के लिए कुछ भागमभाग करके मीडिया को भ्रम में डालने की कोशिश की गई कि 'हालचाल ठीक-ठाक हैं', लेकिन वे कोशिशें कामयाब नहीं हुईं और पार्टी के हर जिम्मेदार ओहदे से विद्रोही जोड़ी को चलता कर दिया गया। न राष्ट्रीय कार्यकारिणी में, न राष्ट्रीय परिषद में, न प्रवक्ता, न वक्ता, न संसदीय मामलों की समिति में, न राजनीतिक मामलों की समिति में़.़…़ये विद्रोही जोड़ी हर जगह से बाहर कर दी गई। यादव के बयान आए कि पार्टी नहीं छोड़ूंगा, नई पार्टी नहीं बनाऊंगा। लेकिन आखिरकार दिल्ली की जनता को एक बार फिर से वही सब नजारे दिखने लगे हैं जिनके दिखने का भय दिल्ली विधानसभा चुनावों में पार्टी की जबरदस्त जीत के दिन से ही राजनीतिक पंडितों को सताने लगा था।
माजरा बिगड़ते-बिगड़ते आज उस हाल में पहंुच गया है कि जहां अंजलि दमनिया, मयंक गांधी सहित बड़ी तादाद में पार्टी के कई प्रदेश नेता या तो केजरीवाल से मोहभंग के चलते नाता तोड़ चुके हैं या तोड़ने की कगार पर हैं। महाराष्ट्र् की पूरी इकाई बगावती तेवर अपना चुकी है और अपनी प्रांत समिति बैठक में नाराजगी जता चुकी है। लेकिन केजरीवाल के गिर्द मनीष सिसौदिया, संजय सिंह, गोपाल राय, आशुतोष, कुमार विश्वास और आशीष खेतान ने ऐसा कसा दायरा बुना हुआ है कि बाहर का कोई केजरीवाल तक सीधे अपनी बात पहुंचा ही नहीं सकता। पता चला है कि केजरीवाल अब अपने नेताओं से मोबाइल फोन पर बात करने से भी कतराने लगे हैं क्योंकि उन्हें डर है कि कहीं कोई 'निष्ठावान' बातचीत टेप करके टीवी चैनल को टीआरपी बढ़ाने का मसाला मुफ्त न दे दे।
चारों तरफ से घिरे केजरीवाल की हताशा भरी भड़ास पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी बैठक में जगजाहिर हो गई थी जब उन्होंने प्रस्ताव रखा कि जिसे पार्टी चलानी है वह चलाए क्योंकि, उनके मुताबिक, वे खुद 67 विधायकों को साथ लेकर कोई अलग पार्टी बनाने की सोच रहे थे। वे उसी बैठक में यहां तक बोल गए कि जनता ने हमारा साथ दिया पर हमारे अपने दोस्तों ने पीठ में छुरा घोंप दिया। इसमें कोई शक नहीं कि यादव और भूषण के वारों से वे अंदर तक हिले हुए हैं। रही-सही कसर वाराणसी के पार्टी नेता उमेश सिंह ने अपने साथ केजरीवाल की बातचीत रिकार्ड करके मीडिया में उछालकर पूरी कर दी। उसमें केजरीवाल ने अपने करीबी और पार्टी के जन्म से उसके साथ जुड़े यादव और भूषण को लेकर जो भाषा बोली है वह स्तरहीन से कुछ अधिक ही कही जा सकती है।
आखिर ऐसा क्या हुआ जो योगेन्द्र यादव को 'पार्टी में लोकतंत्र की हत्या हो गई' है जैसी टिप्पणी करनी पड़ी? ऐसा क्या हुआ जो मयंक गांधी जैसे व्यक्ति को पार्टी से अपनी बर्खास्तगी का जोखिम उठाते हुए यादव और भूषण का पक्ष लेते हुए मैदान में उतरना पड़ा? अंजलि दमनिया का मोहभंग कैसे हुआ, कैसे 'भ्रष्टाचार के विरुद्ध कमर कसने वाले केजरीवाल' उन्हें आज उतने ही खराब दिखने लगे? उमेश सिंह ने किसके इशारे पर केजरीवाल से बातचीत की रिकार्डिंग सार्वजनिक की? केजरीवाल आखिर किस बात से इतना भड़के कि यादव और भूषण को 'बाहर निकाल फेंकने' और ऐसी भाषा बोलने के स्तर तक उतर आए जिनको यहां लिखना भी उचित नहीं है? दिल्ली और देश की जनता के हित में इन सब बिन्दुओं की सिलसिलेवार छान-फटक करना उचित ही रहेगा।
वैसे आम आदमी पार्टी के झाड़ू-टोपीधारी कुछ खांटी आम-खासों को छोड़ दें तो दिल्ली में ही एक बहुत बड़ा वर्ग है जिसके दिमाग में आज भी इस पार्टी का नाम सुनते ही सहसा एक उथल-पुथल, अराजकता, जोर-जबरदस्ती और अफरातफरी फैलाने वाले एक झुण्ड की तस्वीर उभरती है। लेकिन बावजूद इसके, अभी गत फरवरी में संपन्न विधानसभा चुनावों में दिल्लीवासियों न् ो मुफ्त बिजली-पानी, वाई फाई के लोकलुभावन वादों के जाल में फंसते हुए पार्टी को 70 में से 67 सीटें देकर सरकार की कुंजी थमा दी। रामलीला मैदान में 'इंसान का इंसान से हो भाईचारा' के संदेश के साथ केजरीवाल सरकार ने दिल्ली को एक संुदर, भ्रष्टाचार मुक्त राजधानी बनाने का संकल्प लिया। लेकिन अभी केजरीवाल ने मुख्यमंत्री का दफ्तर संभाला ही था कि लंबे अर्से से पार्टी के भीतर ही भीतर सुलग रहा गुबार सतह पर आ गया। पार्टी के दो बड़े नेताओं, योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण ने तलवारें भांजनी शुरू कर दीं। उन्होंने पार्टी में लोकतंत्र के खात्मे और व्यक्तिवाद की परिपाटी पर सवाल खड़े करने शुरू कर दिए। केजरीवाल के निकटवर्ती सिसोदिया, संजय सिंह, गोपाल राय, आशुतोष और आशीष खेतान को यह चीज बर्दाश्त नहीं हुई। इसका पटाक्षेप हुआ 4 मार्च को जब दोनों विद्रोही नेताओं को पार्टी की 9 सदस्यीय राजनीतिक मामलों की समिति (पीएसी) से निकाल बाहर किया गया। यादव बाहर आकर भी कहते रहे, समिति बैठक में जो कुछ हुआ उसे बीच बाजार नहीं उछालेंगे। यह भी कि, वे न पार्टी तोड़ेंगे और न ही अलग पार्टी बनाएंगे। दोनों को निकाले जाने से आहत महाराष्ट्र के नेता मयंक गांधी से रहा न गया और उन्होंने राष्ट्रीय कार्यकारिणी में जो कुछ हुआ उसे मीडिया के जरिए आम चर्चा में ला दिया। मयंक के अनुसार, वे नेतृत्व के लिए मचे घमासान को देख हैरान थे। उन्होंने अपने ब्लॉग में लिखा, 'मुझे कहा गया कि अगर मैंने चीजें बाहर लाने की कोशिश की तो मेरे ऊपर अनुशासनात्मक कार्रवाई होगी। पर मैं सत्य के साथ खड़ा होने को तैयार हो चुका था। कार्रवाई होती है तो हो।' मयंक ने ही सार्वजनिक किया कि बैठक में सिसोदिया ने दोनों वरिष्ठ नेताओं, यादव और भूषण को निकाल बाहर करने का प्रस्ताव रखा जिसका संजय सिंह और केजरीवाल के दूसरे निकटवर्ती नेताओं ने अनुमोदन किया।
11 मार्च को रोहिणी के पूर्व विधायक पार्टी से निकाले नेता राजेश गर्ग और केजरीवाल के बीच एक बातचीत का टेप सार्वजनिक हुआ, जिसमें केजरीवाल ने दिल्ली में आआपा की सरकार बनाने की आपाधापी में कथित तौर पर गर्ग से कांग्रेस के 6 विधायकों को कांग्रेस से टूटकर आआपा को समर्थन देने की पेशकश करने को कहा था। टीम केजरीवाल ने उस टेप को फर्जी करार देकर मामले को रफा-दफा करने की कोशिश की। टेप सामने आने के कुछ ही पलों बाद भ्रष्टाचार मिटाने के नाम पर केजरीवाल से जुड़ीं महाराष्ट्र की चर्चित नेता अंजलि दमनिया ने पार्टी से यह कहते हुए तौबा कर ली कि 'अब बहुत हो गया, मैं इस सब के लिए पार्टी से नहीं जुड़ी थी।' अंजलि ने टेप में उभरे आरोपों की जांच कराने की मांग तक कर डाली। केजरीवाल को अपने आदर्श के रूप में देखने वाली अंजलि ने विधायकों की खरीद-फरोख्त में उलझे केजरीवाल से किनारा कर लिया।
28 मार्च को पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के हंगामेदार होने के सारे संकेत मिल चुके थे, लेकिन उससे ठीक पहले यादव ने प्रेस के जरिए पार्टी से पूछा कि जब भी वे पार्टी के संदर्भ में कोई बात बोलते हैं तो उनकी मंशा पर सवाल क्यों खड़ा कर दिया जाता है? पार्टी में भी जब कोई सवाल करने की कोशिश करता है तो उसे केजरीवाल को पार्टी के संयोजक पद से हटाने की मुहिम का हिस्सा मान लिया जाता है।
यह बवाल थमने का नाम नहीं ले रहा था कि 27 मार्च को फिर से एक टेप उछला जिसमें वाराणसी के नेता उमेश सिंह से बात करते हुए केजरीवाल ने 67 विधायकों के साथ पार्टी छोड़ने की धमकी दे डाली। इतना ही नहीं उन्होंने यादव और भूषण के लिए असंसदीय भाषा का प्रयोग करते हुए उन्हें पार्टी से निकाल बाहर करने का संकेत दिया। केजरीवाल फोन पर ही नहीं, अगले दिन पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में मंच से यह बोलते दिखाई दिए कि यादव और भूषण ने पूरी कोशिश की थी कि पार्टी चुनाव हार जाए। हालांकि यादव और भूषण ने उस पर कोई टिप्पणी करने से इनकार कर दिया था। पर हद तो तब हो गई जब, उनके अनुसार, 392 सदस्यों वाली राष्ट्रीय परिषद में केजरीवाल के खिलाफ बोलने की हिमाकत करने वालों को बाहर करने के लिए 'बॉक्सर' बुलवाए गए। यादव की टिप्पणी थी, लोकतंत्र की हत्या हुई, पर केजरीवाल ने उस तरफ से आंखें फेर लीं। उसी मौके पर केजरीवाल के नजदीकी और अपने जुमलों से जनता को हंसाने की नाकाम कोशिशें करने वाले कुमार विश्वास ने अपने से कद में बड़े, यादव और भूषण पर तीखे तंज कसे।
29 मार्च को एक और धमाका हुआ। केजरीवाल का ट्विटर पर ट्वीट और यू ट्यूब पर वीडियो आया। इसमें केजरीवाल कहते दिखे कि 'पार्टी को कमजोर करने की कोशिशें की जा रही हैं, उनको कमजोर करने की कोशिशें की जा रही हैं। हमने बहुत कोशिश की कि समस्या सुलझ जाए पर कोई रास्ता नहीं दिखता।' झुंझलाकर उन्होंने यहां तक कहा कि चाहे पार्टी ले लो, पर इसकी हत्या मत करो। केजरीवाल ने कार्यकर्ताओं का आह्वान करते हुए कहा कि उनमें और उन दोनों (यादव और भूषण) में से एक को चुनना होगा। यह पैंतरा खुला संकेत था कि दोनों विद्रोही नेता अब ज्यादा दिन 'आम आदमी' नहीं रह पाएंगे। केजरीवाल को यहां तक कहते पाया गया कि 'बड़े दुख की बात है, जनता ने हमें समर्थन दिया पर हमारे अपने दोस्तों ने हमारी पीठ में छुरा घोंपा।' बताने की जरूरत नहीं कि उनका इशारा किसकी तरफ था। आश्चर्य नहीं कि 28 मार्च को दोनों विद्रोही नेताओं, यादव और भूषण को तमाम महत्वपूर्ण पदों से हटा दिया गया।
दिल्ली के अलावा महाराष्ट्र में पार्टी अपने बहुत मजबूत होने के दावे करती रही है। उसी महाराष्ट्र के दो नेताओं, अंजलि दमनिया और मयंक गांधी के पार्टी से मोहभंग के बारे में ऊपर काफी लिखा जा चुका है। पर बात वहीं तक नहीं रुकती। पार्टी की महाराष्ट्र इकाई के कई नेता मौजूदा हड़कम्प से सिर्फ नाराज ही नहीं हैं, बल्कि अंदरखाने कोई अलग ही रणनीति बनाने की सुगबुगाहट के चिन्ह भी दिखाई देने लगे हैं। उनमें से कई हैं जो अपना अलग रास्ता अपनाने की मंशा जता चुके हैं।
29 मार्च को महाराष्ट्र में पार्टी के कद्दावर बताए जाने वाले नेता मारुति भापकर ने तो बिना लाग-लपेट पार्टी छोड़ने की धमकी तक दे डाली। उन्होंने भी कहा, 'राष्ट्रीय कार्यकारिणी बैठक में लोकतंत्र की मानो हत्या ही कर दी गई। मैं बहुत आहत हूं, पार्टी छोड़ सकता हूं।'
यादव, भूषण, राजेश गर्ग ही नहीं, भ्रष्टाचार को मिटाने के वादों पर सवार होकर सत्ता में आई पार्टी ने 29 मार्च को अपने आंतरिक लोकपाल पूर्व नौसेना प्रमुख एडमिरल एल. रामदास को ही बाहर का रास्ता दिखा दिया। पार्टी ने उनके नाम पत्र भेजकर उन्हें 'सूचित' किया कि उनका कार्यकाल खत्म हो गया है लिहाजा अब वे पार्टी के लोकपाल नहीं रहे। हैरान एडमिरल ने कहा कि उनका कार्यकाल तो नवम्बर 2016 में खत्म होना था। माना जा रहा है कि उन्होंने केजरीवाल सहित राष्ट्रीय कार्यसमिति के कई सदस्यों की तहकीकात की थी। एडमिरल रामदास के साथ लोकपाल इलीना सेन की भी छुट्टी कर दी गई। अब इनकी जगह पर एक तीन सदस्यीय टीम बनाई गई है जिसके मुखिया हैं सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी एन. दिलीप कुमार।
31 मार्च को यादव ने केजरीवाल की रीति-नीति को स्टालिनवादी करार दिया। उन्होंने कहा कि उनको और भूषण को पार्टी से निकाला जाना तय ही माना जाना चाहिए।
मुख्यमंत्री अगर अपनी पार्टी की अंदरूनी राजनीति में इस कदर उलझा हो, तो क्या वह शासन की तरफ ध्यान दे सकता है? नहीं। तो दिल्ली सरकार चल कैसे रही है? पता चला है कि आआपा के नेताओं के आपस में उलझे होने के चलते तमाम विभागों के काम लटके रहे, बाबुओं की फाइलें आगे नहीं सरकीं और टेबलों पर धूल की परतें चढ़ती रहीं। ये नजारा तो केजरीवाल पार्टी के सत्ता में आने के महीने भर के भीतर का है। इसी माहौल में दिल्ली में कई जुमले उछले, चुटकुले बने, कार्टून दिखे। किसी ने लिखा-पहली अप्रैल को दिल्ली वालों को अप्रैल फूल न बनाया जाए क्योंकि उन्होंने अभी फरवरी में ही 5 साल वही बने रहने का रीचार्ज कराया है। 'केजरीचार्ज'! -आलोक गोस्वामी
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