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-'दोस्तो, मीडिया के बाद हमारा अगला दुश्मन डिस्कवरी चैनल है। डिस्कवरी वाले हमेशा शेर दिखाते रहते हैं जिससे गुजरात और मोदी का प्रचार होता है।'
-'मैं अरविन्द केजरीवाल, ईश्वर के नाम पर शपथ लेता हूं कि अगर मैं सभी के सामने कोई बयान दूंगा तो उससे यूटर्न नहीं लूंगा…'
ल्ल 'मीडिया-केजरीवाल जी, जनता जानना चाहती है कि आप बिजली के बिल आधे कैसे करेंगे?' 'केजरीवाल- बहुत आसान है जी, हमारी सरकार बनते ही हम चौबीस घंटे की बजाय बारह घंटे बिजली देंगे। हो गए न बिजली के बिल आधे!'
-'केजरीवाल ने अपने लैपटॉप को जेल इसलिए भेज दिया क्योंकि उसका डेटा करप्ट हो चुका था।'
– 'एक केजरी ने हलवाई पर इसलिए केस कर दिया था कि गुलाबजामुन में न तो गुलाब था और न ही जामुन।'
– 'सभी मित्रों से निवेदन है कि 1 अप्रैल को किसी भी दिल्लीवासी को अप्रैल फूल न बनाएं। वे पहले से ही केजरीवाल की दुकान से पांच साल का अप्रैल फूल का रीचार्ज करवा चुके हैं।'
टूट गए दिल पैरोकारों के
'अगर आपसी अविश्वास इतने भीतर मैल की तरह जम गया है तो मेल-जोल की कोई राह निकल आएगी यह सोचना मुझ जैसे सठियाते खैरख्वाहों की अब खुशफहमी भर रह गई है। 'साले', 'कमीने' और पिछवाड़े की 'लात' के पात्र पार्टी के संस्थापक लोग ही? प्रो आनंद कुमार तक? षड्यंत्र के आरोपों में सच्चाई कितनी है, मुझे नहीं पता-पर यह रवैया केजरीवाल को धैर्यहीन और आत्मकेंद्रित जाहिर करता है, कुछ कान का कच्चा भी। अगर षड्यंत्र या भीतर-घात के प्रमाण हैं तो उन प्रमाणों को एक सुलझे हुए राजनेता की तरह संजीदगी से सामने रख दोषियों को पार्टी से निकाल बाहर करना चाहिए।
अलग होकर फिर 'अपने' विधायकों के साथ नई पार्टी खड़ी कर लेने का विचार भी सामूहिकता का नहीं, एकछत्र राजनीति का संकेत देता है। केजरीवाल शायद भूल गए कि नई किस्म की राजनीति में उनके पराक्रम से लोगों ने गांधीजी, जेपी और क्रांति जैसे प्रतीक जोड़ लिए थे। सरकार या पार्टी आए या जाए, वे सवार्ेच्च नेता बने रहें, तब भी उनके मुंह से यह भाषा और अहंकार उन्हें वहां से लुढ़का लाएगा, जहां वे शान से-अपने कौशल और उद्यम से सबको साथ रखते हुए-जा पहुंचे थे। यह भाषा, यह तेवर, यह अहंकार तो उसी पुरानी राजनीति के उपादान हैं, अरविन्द भाई। इनसे बचो, अब भी कहने को मन
करता है!
और हां, जिसने यह वार्तालाप टेप किया है, वह भी कम कारीगर नहीं। वह योगेंद्र-प्रशांत खेमे का प्यादा जान पड़ता है। ऐसे लोग भी 'आप' में चले आए, कैसा मजा है!
(डिस्क्लेमर: टेप की बातचीत को वास्तविक मान कर टिप्पणी की गई है, बाकी जांच के बाद कहा जाएगा।)' -ओम थानवी, एफबी पर
'हम समझ सकते हैं, अरविंद केजरीवाल की भाषा हूबहू वैसी ही है, जैसी सत्ताधारियों की आमतौर पर निजी वार्तालापों में हुआ करती है। वे अब 67 विधायकों के प्रतिनिधि हैं, मिल्कियत के बोध के साथ। बहरहाल, यहां एक शासक ने अरस्तुओं को उनकी जगह दिखा दी है।
प्लेटो का मानना था कि सत्ता की बीमारियां उस वक्त तक दूर नहीं हो सकती हैं जब तक या तो दार्शनिक राजा न बन जाए या राजा दार्शनिक न बन जाए। अरस्तू ने अपने गुरु की बात को सुधारते हुए कहा, राजा का दार्शनिक होना नुकसानदेह साबित हो सकता है। इसके बजाय राजा को अपने पास बुद्धिमान सलाहकार रखने चाहिए, उनकी बात सुननी चाहिए, लेकिन फैसला अपने विवेक से करना चाहिए। एक अच्छे शासक को बुद्धिमान जरूर होना चाहिए। अरस्तू ने शुद्ध सैद्धांतिक राजनीति और व्यावहारिक, समय के अनुसार खपने वाली राजनीति में भेद किया था। दृष्टि मात्र से कुछ भी पैदा नहीं होता। वह तो जो भौतिक रूप में दिखाई देता है, उसे परखने और हमारे कामों की निदेशिका भर की भूमिका अदा करती है। राजनीति का यह आम दृश्य है कि जो भी सलाहकार बनके शासन की बागडोर अपने हाथ में होने का भ्रम पाल लेते हैं, उन्हें राजा जल्द ही उनकी हैसियत बताने से नहीं चूकता। दिल्ली के मामले में गनीमत यह है कि पुलिस का महकमा पूरी तरह से दिल्ली सरकार के हाथ में नहीं है। इस मामले में दिल्ली जनतांत्रिक प्रयोगों के लिये कुछ बेहतर जगह है।' -अरुण माहेश्वरी, एफबी पर
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