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विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों राजनीति के सभी प्रचलित मानकों को आईना दिखा दिया है। इससे पूर्व देश में संसदीय लोकतंत्र में अवसरवादी लोगों ने आम सहमति बनाकर बहुमत का आंकड़ा खड़ा कर देश की जनता को तो गुमराह किया ही, लोकतंत्र के पावन मंदिर रूपी संसद की साख पर भी प्रश्नचिन्ह लगाए। 'संविधान के सामन्त' नामक पुस्तक में लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनेता हृदयनारायण दीक्षित ने चुनाव आचार संहिता, कांग्रेस का सेकुलर विलाप, राष्ट्रीयता पर आघात, योजनाओं के नाम का आचार शास्त्र, दयनीय दशा में दलतंत्र, घोटालों के निष्क्रिय संरक्षक, कितने राज्य चाहिए भारत को आदि शीर्षकों से संकलित अपने तीन दर्जन से भी अधिक लेखों के संग्रह में भारतीय लोकतंत्र के पिछले साढ़े छह दशकों का तथ्यपूर्ण एवं तटस्थ विवरण प्रस्तुत किया है। पुस्तक में लोकतंत्र, राजनीति, राजनीतिक दलों और चुनाव रूपी उत्सव की व्यापक चर्चा है। लेखक बताते हैं कि आदर्श चुनाव आचार संहिता पवित्र अवधारणा है किन्तु यह संसदीय कानून नहीं है- 'जनतंत्र आदर्श राज्यव्यवस्था है लेकिन दलतंत्र में हरेक चुनाव में नियम और सामाजिक राजनीतिक आचार व्यवहार को धता बताया।' वास्तव में भारत में इस अवधारणा को प्रशासनिक रूप से क्रियान्वित करने का श्रेय पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टी.एन. शेषन को जाता है।
देश में सबसे लंबे समय तक राज करने वाली कांग्रेस पार्टी पर कटाक्ष करते हुए लेखक कहते हैं- 'संसदीय परंपरा का जबर्दस्त हृास हुआ है। प्रमुख अभियुक्त कांग्रेस है। कांग्रेस ने देश में लंबे समय तक राज किया है। कांग्रेस की अहमन्यता व भ्रष्टाचार में लिप्तता के चलते पतन की पराकष्ठा देखते हुए वे कहते हैं- 'राष्ट्रीय स्वाभिमान सुशासन और विकास का कोई विकल्प नहीं होता। नरेन्द्र मोदी इन्हीं मुद्दों को लेकर सरकार बनाने के दावेदार हैं।' देश की विविधता में विद्यमान राष्ट्रीय एकता को भारतीय परंपरा के नजरिए से जोड़ते हुए वर्णन है कि नस्लभेद पश्चिम की अवधारणा है, हमारे यहां तो यजुर्वेद में शारीरिक अपंगता के बावजूद हर एक को देव जैसा जान कर प्रणाम किया गया है। मूर्खतापूर्ण झगड़ों को नस्लीय संघर्ष बताना उचित नहीं है। डॉ. आंबेडकर ने भी माना है कि आर्य जनसमुदाय का नाम है, आर्य नाम की कोई नस्ल नहीं थी।' लेखक क्षेत्र, जाति तथा भाषा के आधार पर होने वाले भेदभाव की निंदा करता है और पूर्वोत्तर के लोगों के साथ दिल्ली में और उससे पहले बेंगलुरु में, इसी प्रकार उत्तर भारतीयों के साथ मुम्बई में और हिन्दी भाषियों के साथ असम में हुई हिंसा की तीव्र भर्त्सना करते हुए वे लिखते हैं- 'हम भूगोल नहीं बदल सकते। क्षेत्रीय विविधताएं खूबसूरत भी हैं। लेकिन आक्रामक क्षेत्रीयता खतरनाक है। जाति, वंश, पंथ या क्षेत्रीयता आधारित विवाद राष्ट्रघातक है।'
सर्वोच्च न्यायालय को भारतीय न्याय व्यवस्था का मार्गदर्शक, सर्वोच्च व्याख्याता और मौलिक अधिकारों का संरक्षक बताते हुए प्रतिपादित किया गया है- कार्यपालिका दया याचिकाओं के निस्तारण में राजनीतिक कारणों से भी ढिलाई कर सकती है। राजीव गांधी के हत्यारों को बचाने के लिए तमिलनाडु विधानसभा में भी राजनीति हुई। बेअंत सिंह और आतंकी अफजल को लेकर भी राजनीति गरम थी।
दस वर्ष तक संप्रग सरकार का नेतृत्व करने वाले अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह पर टिप्पणी भी विचारणीय है- दस साल तक बिना कोई काम किए ही प्रधानमंत्री रहने वाले व्यक्ति डॉ. मनमोहन सिंह थे। वे विद्वान अर्थशास्त्री होकर भी अर्थनीति के संचालन में विफल रहे। वे राजनेता न होकर भी प्रधानमंत्री रहे। वे शासक होकर भी शासित की तरह आज्ञापालक रहे। लेखक पं. नेहरू इन्दिरा गांधी, अट बिहारी वाजपेयी और नरिसंहा राव जैसे प्रधानमंत्रियों की शालीनता का उदाहरण देते हुए मनमोहन पर कटाक्ष करते हैं। राव मौन थे और अटल जी मधुमय। पं. नेहरू ने शालीनता की मर्यादा का पालन किया लेकिन डॉ. सिंह ने शब्दभेदी बाण चलाए। उनके बाण कांग्रेस के प्राण लेकर ही शांत होंगे।'
लेखक देश में विभिन्न योजनाओं के नामकरण पर प्रश्न उठाते हुए कहते हैं कि 'महापुरुषों के नाम प्रेरित करते हैं। उनके नाम पर सड़क विश्वविद्यालय या हवाई अड्डे बेशक स्वागतयोग्य हैं लेकिन एक ही राजनीतिक परिवार के नाम पर ग्रामीण आवास योजना से लेकर देश की राजधानी के अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे तक का नामकरण किसी भी सूरत में उचित नहीं कहा जा सकता।'
इसके पक्ष में तर्क देते हुए यह सुझाव दिया गया है कि महत्वपूर्ण स्थलों को प्रेरक व्यक्तित्वों से जोड़कर इतिहासबोध जाग्रत हो सकता है। गांधीनगर, पटेल हवाई अड्डा, अंबेडकरपुरम या विवेकानंदपुरम जैसे नाम प्रेरक इतिहास से जोड़ते हैं। इसलिए नामकरण में देश, काल, संस्कृति, सभ्यता और इतिहास के प्रति अतिरिक्त सजगता की आवश्यकता होती है।'
लेखक 'भरोसा खोती राजनीति' शीर्षक के अंतर्गत भारतीय दलतंत्र की चर्चा करते हुए कहते हैं- 'भारत का दलतंत्र बड़ा है। यहां सात राष्ट्रीय, 45 राज्यस्तरीय और ढेर सारे पंजीकृत राजनीतिक दल हैं। दलों की भीड़ में एक और राजनीतिक दल (आआपा) की घोषणा से तमाम प्रश्न उठ रहे हैं। अण्णा ने भी सवाल उठाए हैं- पार्टी चलानी और चुनाव लड़ाने का धन कहा से आएगा? ईमानदार लोग कहां से आएंगे, वगैरह-वगैरह।'
कुल मिलाकर 'संविधान के सामन्त' पुस्तक में लेखक हृदयनारायण दीक्षित ने भारतीय राजनीति में क्षेत्रीय दलों के दिवास्वप्नों, देश में स्वार्थ और अवसरवादिता पर आधारित लेन-देन वाले गठबंधनों, आर्थिक सुधार एवं उदारवाद के नाम पर मनमाने भ्रष्टाचार, चुनाव जीतने के लिए खतरनाक चुनावी हथकंडों, अल्पसंख्यकों और वंचितों के अधिकारों की दुहाई देकर उनको वोट बैंक बनाकर चुनावी राजनीति के अलगाववादी टोटकों के चलते संसदीय व्यवस्था के दुर्दिनों की प्रभावी पड़ताल की है। अब तक के चुनाव सुधारों को अपर्याप्त मानते हुए लेखक ने यह भी प्रश्न उठाए हैं कि केवल भाषा और क्षेत्र के नाम पर नये राज्यों का गठन नहीं होना चाहिए बल्कि आर्थिक, सामाजिक, भूक्षेत्रीय, जनसांख्यिकीय सरोकारों से भी इसे जोड़ना चाहिए। पुस्तक वर्तमान परिप्रेक्ष्य में और अधिक प्रासंगिक एवं पठनीय है। लेखक एक शीर्ष पत्रकार और स्थापित राजनेता हैं इसलिए उनका विषय प्रवर्तन, विश्लेषण और भाव संप्रेषण स्वाभाविक रूप से अधिक विश्वसनीय है। -समीक्षक : सूर्य प्रकाश सेमवाल
पुस्तक का नाम – संविधान के सामन्त
लेखक – हृदयनारायण दीक्षित
प्रकाशक – पुस्तक पथ, बी-32/32, ए-34, साकेत नगर, वाराणसी-5 (उ.प्र.)
मूल्य – 200/रु.
पृष्ठ – 256
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