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.मोरेश्वर जोशी
भारत से 1000-1300 वर्ष पूर्व यूरोप जा बसे और आज रोमा अथवा रोमानी नाम से पहचाना जाने वाला समाज 8 अप्रैल का दिन रोमा दिवस के नाते मनाता है। इस दिन एक तरह से उनका ध्वज-दिवस है। यूरोप के सभी देशों, संयुक्त राज्य अमरीका और कनाडा में बसे इस समाज के लोगों की आबादी एक करोड़ के आसपास है। लेकिन आज भी अपनी पहचान भारतीय बताने वाले ये रोमा लोग यह आस बांधे हुए हैं कि किसी न किसी दिन उनके अपने देश के उनके भाई-बहन उन्हें सम्मानपूर्वक वापस अपने देश बुलाएंगे।
यूरोप के विभिन्न देशों की जनगणना के अनुसार वे एक करोड़ के आसपास हैं लेकिन उनकी घुमंतू जीवनशैली के कारण उनकी सही- सही गिनती करना असंभव है। आस्ट्रेलिया एवं अमरीका महाद्वीपों में बिखरे हुए हैं इसलिए भी उनकी सही संख्या तय कर पाना असंभव है। घुमंतू जीवन होने के बाद भी वे बाकी दृष्टि से सीमित नहीं हैं। पिछले 100 वषोंर् में शिक्षा, शोधकार्य, कला आदि में उन्होंने एक बड़ा सफर तय किया है। इस दौरान विश्वपटल पर उभरे प्रसिद्ध हास्य कलाकार चार्ली चैप्लीन, हॉलीवुड के महानायक शॉन कॉनरी, रोजर मूर, अनेक प्रसिद्ध गायक, कुछ देशों के राष्ट्रपति इसी समाज से थे। उनके निजी जीवन में उनका परिचय 'मूलत भारतीय' के रूप में ही दिया जाता है। हालांकि अनेक सदियों से वे मातृभूमि से दूर ही रहे हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भिक्खु चमनलाल ने पं. नेहरू से उनको राष्ट्रीय मुख्यधारा में लाने की प्रार्थना की थी, लेकिन नेहरू को यह स्वीकार्य ही नहीं हुआ कि साहबों के देश में बसने वाले रोमा भारतीय हैं।
ये लोग भारत से यूरोप में कब गए, इसकी ठीक-ठीक तारीख नहीं मिल पाई है, लेकिन यह जानकारी जरूर उपलब्ध है कि जहां अनेक लोग 'भोजन की तलाश' में धरती पर चारों तरफ गए थे। वहीं बड़े पैमाने पर लोग1000 वर्ष पूर्व भारत पर हुए विदेशी आक्रमणों के कारण भी यहां से गए थे। उनके तौर-तरीके भारतीय हैं, उनकी सूरत भारतीयों जैसी है। उनकी भाषा में संस्कृत के अनेक शब्दों का समावेश है। ऐसा होते हुए भी यूरोप ने उनके यह कहने पर अघोषित पाबंदी लगाई हुई थी कि 'वे भारत से आए हैं'। क्योंकि यूरोपीय भारत का ऐसा इतिहास दिखाना चाहते थे जैसे भारत से आर्य, शक, हूण बाहर गए।़ इसलिए भारत से यूरोप गए हुए रोमा यूरोप में बस गए, यह कहना यूरोप को मान्य नहीं था। उनकी बोली से मिस्र (इजिप्ट) के कुछ शब्दों की समानता को देखते हुए यूरोप वालों ने उन्हें शायद इजिप्ट से आया मानकर ही अपने यहां बसने दिया था।
200 वर्ष पूर्व यूरोपीय इतिहासकारों ने यह भ्रम फैलाना शुरू कर दिया था कि पूरे विश्व का इतिहास यूरोप से ही शुरू हुआ है। उसी कारण विश्व के 150 से अधिक देशों का इतिहास लिखने का काम संबंधित स्थानों के विश्वविद्यालयों को करना पड़ा। लेकिन 3-4 दशक पूर्व ब्रिटिश की वंश सिद्धांत की काट करने वाली मोलिक्युलर बायोलॉजी का 'वाइ' गुणसूत्र सिद्धांत सामने आया जिसके बाद विश्व का यूरोप रचित पूरा इतिहास झूठ साबित हुआ। उसी से रोमा लोगों को अपनी असली पहचान का पता चला। गत फरवरी माह में मैसूर में हुए विश्व की प्राचीन सभ्यताओं के सम्मेलन में अनेक वक्ताओं ने रोमाओं के संदर्भ दिए, इस विषय पर महत्वपूर्ण रोशनी डाली। हैदराबाद स्थित सेंटर फॉर सेल्युलर एंड मोलिक्युलर बायोलॉजी संस्था ने भारत एवं यूरोप से 10-10 हजार लोगों के गुणसूत्रों के नमूने लेकर उन सबका 'वाइ' गुणसूत्र जिन विशेषताओं से बना है उसका गहन विश्लेषण किया। इसलिए अब संदेह के लिए कोई स्थान नहीं रहा।
देखा जाए तो रोमा समाज यूरोप के करीब हर देश के शहरों तथा गांवों में बसे हैं। वहां एकाध रोमा बस्ती जरूर दिख जाती है। जितने रोमा गांव के बाहर झोपडि़यों में बसे होते हैं लगभग उतने ही वहां के शहरी जीवन की हर धारा में घुले-मिले हैं। हैरानी की बात है कि यूरोप और अमरीका में प्रमुख भूमिका निभाने वाला यह समाज आज भी घुमंतू के तौर पर पहचाना जाता है। वे आज भी गांव के बाहर झोपड़ी अथवा लकड़ी की बल्लियों से बने घरों में रहते हैं। अभी भी अधिकांशत: उन्हें सम्मानजनक काम नहीं मिलता। किसी भी समाज से कोई घटक यदि किसी कारण से अन्य प्रदेश में जाता है, तब उसे गांव की सीमा के बाहर वहां के समाज में उपेक्षित के रूप में ही रहना पड़ता है। डॉ़ बाबासाहब अंबेडकर ने इस बारे में जो बात कही थी वह रोमा लोगों के बारे में ज्यों की त्यों खरी उतरती है। आज उन लोगों को रोजी कमाने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ती है, छोटे-मोटे काम करने पड़ते हैं, जैसे विभिन्न कार्यक्रमों में मनोरंजन करना, नृत्य करना, जादू के करतब दिखाना आदि।
भारत में भी जब अंग्रेजों की सत्ता जम रही थी तब जिन समाजों ने उनकी नाक में दम किया हुआ था ऐसे अनेक समाजों को अलग बांधकर बंद रखा गया था। आज भी यूरोप के रोमा लोगों की स्थिति इससे अलग नहीं है। उन्हें भी कुछ स्थानों पर अपराधी माना जाता है। पिछले 20-25 वर्ष में हिंदू स्वयंसेवक संघ तथा भारत में इंटरनेशनल सेंटर फॉर कल्चरल स्टडीज संस्था के कुछ कार्यकर्ताओं को ये लोग मिलने शुरू हुए थे। इससे आपस में जानकारी बढ़ाने का एक नया अध्याय शुरू हुआ। इससे पूर्व से इन रोमा लोगों ने दृढ़तापूर्वक यह कहना शुरू कर दिया था कि 'हम भारतीय हैं'।
रोमा लोगों के बारे में जो शोध हुए वे हैदराबाद स्थित सेंटर फॉर सेल्युलर एंड मोलिक्युलर बायोलॉजी में ही हुए। विश्व के अनेक स्थानों पर इस विषय के विशेषज्ञ शोधकर्ताओं ने उन्हें मान्यता भी दी। फिर भी विश्व के जाने-माने विश्वविद्यालयों और कई शोध संस्थाओं ने उस पर ध्यान नहीं दिया। उन्हें डर था कि ऐसा करने से कहीं दुनिया पर राज करने वाले यूरोपीय देशों का आधिपत्य नष्ट न हो जाए। इसी तरह अन्य भी कुछ कारण थे। एक बड़ा वर्ग यह मानने वालों का है कि यूरोप-बाल्टिक देशों के अनेक समाज और स्वयं जर्मनी में भी यूरोपीय सभ्यता का विकास भारत की आर्य सभ्यता से हुआ है। वहां यह डर आज भी है कि उनके विश्वास को मान्यता देने जैसा यह होगा। आज भी यूरोप एवं मुख्यत: बाल्टिक देशों में बहुत से लोगों का यह मानना है कि किसी भी सभ्यता से अनजान यूरोप को भारत से वहां गए जानकार लोगों ने ही योग, आयुर्वेद, संगीत, कला का परिचय करवाया है। ऐसा मानने वालों में कार्ल विल्हेम फ्रेडरिक श्लेगेल (1772-1829) भी थे। उनका कहना था कि भारतीय अध्ययनशील लोगों एवं सभ्य जीवनशैली जीने वालों की पहली बस्ती जर्मनी में आई तथा बाद में ग्रीस में। आज भी बाल्टिक देशों में भारत की सिंधु एवं सरस्वती नदियों के किनारों पर विकसित हुई वैदिक ज्ञान की एक परंपरा है। इसलिए रोमा लोगों को यूरोप के लोकजीवन में शामिल ही नहीं होने दिया जाता।
विज्ञान का वह शोध कितना उपयोगी था, इस संदर्भ में उस पर अब और गौर किया जा रहा है। हैदराबाद स्थित कोशिका विज्ञान विभाग ने चूंकि इस पर शोध कार्य किया है, इसलिए इस ओर देखने का विश्व के जानकारों का दृष्टिकोण बदला है। आखिर 10 हजार लोगों के नमूने लेने और उनसे यह बात पता चलने पर ही यह विश्वास बढ़ा है कि उत्तर भारत के पुरुषों से उनके 'वाइ' गुणसूत्र मेल खाते हैं। कोई व्यक्ति मूलत: किस स्थान से है, यह स्पष्ट करने के लिए उपलब्ध इस विज्ञान का परिणाम केवल रोमा लोगों के बारे में ही सामने नहीं आया है। एक तरह से इसके कारण विश्व का इतिहास ही बदलना शुरू हुआ है। हैदराबाद में हुआ शोधकार्य डॉ. कुमारस्वामी के मार्गदर्शन में हुआ। उनके मत में ये सारे 10 हजार नमूने एक पिता सिद्धांत में दर्ज हैं। इनमें से अधिकतर नमूने भारत से हैं। इस पर जैसा भारत की एक प्रयोगशाला ने अध्ययन किया है उसी तरह बाल्टिक देशों में से एस्टोनिया में ऐसी ही जानकारी सामने आने पर केंब्रिज विश्वविद्यालय में उस पर हुआ शोध कार्य भी उतना ही महत्वपूर्ण साबित हुआ है। उनके मत में इसकी पूरी संभावना है कि रोमा भारत से ही वहां आए हैं। यह विषय जब दो वर्ष पूर्व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त 'नेचर' पत्रिका में आया, तब उस साप्ताहिक के संपादक मंडल ने एक शोध गुट की सहायता से फिर से नमूनों की जांच करवाई। केंब्रिज के डॉ. तुओमस नॉएल्स द्वारा किए गए इस शोध का ब्रिटेन की जिप्सी काउंसिल ने स्वागत किया। उनका कहना था कि इस संशोधन के कारण रोमा ब्रिटेन के पहले अनिवासी भारतीय साबित हुए हैं। लंदन के समाचार पत्र द टेलिग्राफ ने इस संपूर्ण शोधकार्य में 'हॅप्लोग्रुप एच. एल. एम. 82' गुणसूत्र होने तथा वह सभी रोमा पुरुषों में समान होने का उल्लेख किया। इस पर हुए शोधकार्य को विश्व के अनेक विश्वविद्यालयों में मान्यता मिली है।
रोमाओं की कहानियों में उल्लेख मिलता है कि 'उनके देश पर विदेशी संकट आने पर वे वहां से निकले'। भारत में मोहम्मद बिन कासिम सन् 710 में आया था तथा उसके 300 वर्ष बाद गजनी का महमूद आया था। कासिम ने भारत पर आक्रमण किया और लूट भी की। लेकिन उसके बाद वह भारत पर राज करने के लिए नहीं रुका, वह लौट गया। लेकिन फिर भी वह अफरातफरी 25-30 वर्ष चली थी। उस समय जिन इलाकों पर आक्रमण हुए उन्हीं इलाकों में रोमाओं का मूल स्थान है। उसके बाद गजनी का महमूद आया और उसने भारत पर 16 बार आक्रमण किया। वह इतिहास सब जानते हैं। गजनी के महमूद के 15 आक्रमणों ने पंजाब, उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत, सिंध और उत्तर प्रदेश के कन्नौज तक असर डाला। उस समय शुरू हुआ वह आक्रमण बाद में भारत में 1000 वर्ष तक कायम रहा। इसलिए यह जांचना आवश्यक है कि क्या पहली बार भारत में हुए इस जिहादी आक्रमण का रोमा लोगों ने प्रतिकार किया था इसलिए उन्हें निष्कासित होना पड़ा? उनके मत में सन् 1001 से 1026 के दौरान उन्हें भारत की मूल जाति से बहिकृष्त किया गया था अथवा वे अधिक उन्नति करने के लिए परदेस चले गए थे। यह ब्रिटेन के मीडिया का अनुमान है। यद्यपि उसने रोमा के ही भारत के डोमा समुदाय से होने का अनुमान व्यक्त किया है, लेकिन इस बारे में वस्तुस्थिति पुन: भारत के अन्य संदभोंर् के परिप्रेक्ष्य में जांचनी आवश्यक है। क्योंकि सन् 1001 से 1015 के दौरान भारत में जो घटनाएं घटीं, उस संदर्भ में इन घटनाओं की जांच आवश्यक है। लेकिन फिर भी इसमें एक भाग समान है कि 1000 वर्ष तक यहां पूरे भारत में और वहां यूरोप में रोमा ऐसा ही गुलामी का जीवन जी रहे हैं।
रोमा लोगों की कुल संख्या के बारे में हिंदू स्वयंसेवक संघ, जिसकी अनेक देशों में शाखाएं हैं, के अंतरराष्ट्रीय सह संयोजक श्री रविकुमार अय्यर ने जो जानकारी दी वह बड़ी ही अचंभित करने वाली थी। वे सन् 1982 से संघ के प्रचारक हैं और सन् 1992 से विदेश विभाग में कार्यरत हैं। उन्होंने कहा कि ऊपरी तौर पर देखा जाए तो रोमा यूरोप की एक घुमंतू जाति प्रतीत हो सकती है लेकिन उनका व्याप काफी बड़ा है। दुनिया को ज्ञात नाम जैसे चार्ली चैपलिन, औषधि के नोबल विजेता डा़ ऑगस्ट क्रग, जेम्स बाण्ड फिल्मों के हीरो शॉन कॉनरी, रोजर मूर रोमा तो हैं ही, लेकिन वे यह बताते हैं कि वे मूलत: भारत से ही आए थे।
पुराना उल्लेख सन् 1520 का है जब बहराम गुल एक भारतीय गायक को भारत से वहां ले गया था, जिसका उल्लेख रोमा के तौर पर आया है। विभिन्न वेबसाइट और पुस्तकों में रोमा लोगों की जो संख्या दी गई है, उससे तो वह निश्चित ही अधिक है, क्योंकि वहां की युवा पीढ़ी शिक्षा प्राप्त कर वहां की जीवनशैली स्वीकारते हुए रोमा लोगों की गांव से बाहर झुग्गी जैसी बस्ती में नहीं रहती। कागज पर वे रोमा ही हैं, लेकिन रोजमर्रा जीवन में उनकी पहचान अन्य नागरिकों जैसी ही है। शहर के बाहर झुग्गियों में उनकी बड़ी बस्ती होती है और वे मुख्यत: शारीरिक मेहनत के काम करते हैं। लेकिन हम यदि यही उनका परिचय मानें तो वह बड़ी भूल होगी, क्योंकि बहुत बड़े पैमाने पर उनकी नई पीढ़ी शिक्षा प्राप्त कर रही है। एक बार शिक्षा का अवसर मिलने पर वे किसी भी प्रतियोगिता में पीछे नहीं रहते। वे कई विश्वविद्यालयों में प्रोफेसर, कलाकार तथा छोटी-मोटी फैक्ट्रियों के मालिक भी हैं। रोमा लोगों में से कितनों ही को अपने-अपने क्षेत्र में अभूतपूर्व सफलता मिली है। इतना ही नहीं, जब भी अवसर मिलता है तब वे गर्व से कहते हैं कि वे मूलत: भारतीय ही हैं। उनके निजी संभाषणों में संस्कृत से लिए अनेक शब्दों का प्रयोग भी है। 'टेन कमांडमेंट्स' फिल्म में खलनायक का किरदार निभाने वाला कलाकार युएल ब्रायनर भी रोमा था। वह तो अंतरराष्ट्रीय रोमा संगठन का अध्यक्ष भी था। उसी तरह एल्विस प्रिस्ली अंतरराष्ट्रीय ख्याति के गायक रहे हैं। ये तो कुछ ही नाम हैं।
सन् 1930 में दक्षिण अमरीका के ब्राजील देश के राष्ट्राध्यक्ष रहे वाशिंगटन लुइस परेरा डिसुजा की आज के ब्राजील के निर्माण में अहम भूमिका रही है। सन् 1956-60 के दौरान ब्राजील के ही राष्ट्रपति रहे जुसेलिनो कुबित्शेक को तो अपने रोमा होने का इतना गर्व था कि उन्होंने राष्ट्रपति भवन में रोमा लोगों के लिए एक स्वतंत्र स्थान रखा था। रोमा की संस्कृत-प्रधान भाषा और अपने मूलत: भारतीय होने का वे उल्लेख भी करते थे। रोमा में बड़ा पद प्राप्त करने वालों की जिस तरह एक लंबी सूची है उसी तरह उनकी समस्याओं की सूची भी बड़ी है। चूंकि वे ईसाई नहीं हैं। वे ईसाई नहीं बनते इसलिए हिटलर ने 5000 रोमा लोगों को मार डाला था, उन्हें जिंदा जलाया गया था। उससे पूर्व उन्हें गुलाम बनाने और जब वे आनाकानी करने लगे तो उन्हें मार डालने के प्रयोग पिछले 500 वर्ष में कई बार हुए हैं। कोलंबस के बाद स्पेन एवं पुर्तगाल के लोग उन्हें अमरीका में गुलाम के तौर पर ले गए थे। तब से अमरीका में रोमा लोगों का अस्तित्व देखने में आता है। अमरीका के राष्ट्रपति पद पर कोई रोमा व्यक्ति कभी आसीन नहीं हुआ, लेकिन कई राष्ट्रपतियों के अभिभावकों में से कुछ लोगों के रोमा होने के उल्लेख हैं।
जैसा पहले बताया, हर क्षेत्र में अच्छी सफलता पाने वाले रोमाओं की सूची भी बड़ी है। लेकिन ऐसे चुनिंदा लोगों की सूची से उनकी आज की स्थिति का आकलन नहीं हो सकता। अधिकांश रोमा आज भी शहर के बाहर ज्यादातर कच्चे घरों में रहते हैं। यूरोप के अनेक देशों में इन लोगों के देश छोड़कर जाने पर पाबंदी है। वहां कई तो घुमंतू जीवन छोड़कर एक स्थान पर रहने लगे हैं। वहां उनकी शिक्षा में अच्छी उन्नति हुई है, लेकिन वे केवल स्थानीय भाषा बोलते हैं। इन रोमा लोगों की भाषा में संस्कृत के शब्दों का मेल है। लेकिन स्थानीय सभ्यता, शिक्षा पद्धति और लोकजीवन का हिस्सा बनने के बाद कितने ही अपनी रोमा पहचान छुपा भी लेते हैं। इस बारे में कोई शिकायत होने का भी कारण नहीं है, लेकिन अगर उनकी क्षमता का जायजा लिया जाए तो रोमा लोगों की क्षमता का सही-सही आकलन होता है। अन्यथा यह आम मान्यता है कि 'उन्हें अक्ल ही नहीं है'।
एक बात सच है कि उनकी जीवनशैली देखें तो वे निश्चित ही भारतीय हैं, यह सुनिश्चित हो जाता है। उनके यूरोप जाने को लेकर कई तरह की मान्यताएं हैं। एक है कि एलेक्जेंडर के साथ अनेक भारतीय लोग यूरोप में गए, हो सकता है वे रोमा ही थे। ऐसे कई उल्लेख हैं कि वहां के अनेक राजा बड़ी संख्या में भारतीयों को अपने साथ ले गए ताकि उनके दरबार में कोई भारतीय कलाकार रहे। पांचवीं सदी से रोमा लोगों की वहां बस्ती है। पर्शियन राजा के एक भारतीय गायक को साथ ले जाने का उल्लेख मिलता है। भारत में जब विदेशी हमले हुए तब अनेक लोग निष्कासित किए गए जो यूरोप तथा मध्य एशिया में गए। सेवा इंटरनेशनल संस्था के अंतरराष्ट्रीय संयोजक श्री श्याम परांडे ने भी इस विषय में अध्ययन के बाद कई महत्वपूर्ण जानकारियां दी हैं। कई महत्वपूर्ण संदर्भ हंै जिन पर गौर करना आवश्यक है। बौद्ध परंपरा के विचारक तथा सुप्रसिद्ध गांधीवादी भिक्खु चमनलाल ने इस पर बड़ा काम किया है। उनकी इस विषय पर रोशनी डालने वाली दो पुस्तकें हैं। इन पुस्तकों के विषय यूरोप के रोमा समुदाय तक सीमित नहीं है़ं,बल्कि विदेशों में गए भारतीयों पर ये केन्द्रित हैं। आज वे पुस्तकें अच्छी मार्गदर्शक हैं। पहली पुस्तक है 'इंडिया: द मदर ऑफ अस ऑल' और दूसरी, 'हिंदू अमेरिका'। इन पुस्तकों के नाम ही उनके विषय स्पष्ट कर देते हैं। पांचों महाद्वीपों में फैले हिंदुओं में भारत से जुड़ने की तीव्र इच्छा थी। लेकिन नेहरू शासन उस ओर अनदेखी करता रहा। रोमा लोगों में तो उस समय बहुत बड़ी चेतना आई थी। उनका सपना था कि, उन्हें उनकी मातृभूमि फिर से स्वीकारे। लेकिन आज भी यह सब सपना ही बना हुआ है। उनमें भी अपने देश की प्रगति में शामिल होने की इच्छा है। भिक्खु चमनलाल ने नेहरू से किया अपना पत्र व्यवहार विस्तार में इस पुस्तक में छापा है।
भारत के अनेक जानकारों को शायद इस रोमा समाज के बारे में जानकारी होगी, लेकिन आमतौर पर भारत में उनकी अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। लेकिन अब कई लोग उनसे संपर्क साधे हुए हैं। इन सब लोगों को उनकी मातृभूमि से जोड़ने की आवश्यकता है। ऐसा केवल रोमा समाज के संदर्भ में नहीं है बल्कि हर महाद्वीप में भारतीयों से कई सदियों पहले से संबंध रखने वाले समाज हैं। दो वर्ष पूर्व आस्ट्रेलिया के कुछ शोधकर्ताओं द्वारा किए शोधकार्य में पाया गया कि भारत एवं आस्ट्रेलिया का 4000 से 40000 वर्ष पूर्व का संबंध हो सकता है। यह शोध अमरीका की 'प्रोसिडिंग ऑफ नेशनल एकेडमी ऑफ साइन्सेज' संस्था ने प्रकाशित भी किया था। दक्षिण अमरीका के अनेक समाजों के लोगों में आज भी यह भावना है कि 'हम मूलत: भारतीय हैं'। दक्षिण पूर्व एशिया की स्थिति से सब परिचित हैं। चीन से भी भारत के 2000 वर्ष पहले से सांस्कृतिक संबंध रहे हैं। चीन के संयुक्त राष्ट्र में राजदूत हू शी ने संयुक्त राष्ट्र संघ में अपने भाषण में कहा था, 'भारत का चीन पर 2000 वर्र्ष तक वर्चस्व था, लेकिन उसे कभी अपना एक भी सैनिक वहां भेजने की जरूरत नहीं पड़ी'। यह घटना सन् 1938 से 42 के दौरान की है जब वे राजदूत थे। चीन की तरह ही विश्व के हर देश पर भारत का सांस्कृतिक एवं राजनैतिक प्रभाव था। 1000 वर्ष तक भारत पर विदेशाी राज रहा था इसलिए आज ये सभी संदर्भ विस्मृत हो चुके हैं। लेकिन जरा सा याद करें तो वे फिर से सामने आ
सकते हैं। भारत पर गजनी के महमूद का आक्रमण होने के बाद पहले 400 वर्ष गजनी के प्रदेश, यानी जहां आज अल कायदा का आतंक है, पर वहां के उग्रवादियों का ही राज रहा था। बाद में 400 वर्ष मंगोलिया से आए हुए मंगोलों का। उसके बाद 200 वर्ष ब्रिटिशों का राज रहा। भारत को स्वतंत्रता मिलने के बाद भी यहां की विदेश नीति अपने लोगों को संगठित करने की बजाए वैश्विक कूटनीति के कबूतर उड़ाने में व्यस्त रही थी। आज तक क्या हुआ, इस पर चाहे जितनी चर्चा की जाए, लेकिन उससे ज्यादा कुछ नहीं निकलेगा। लेकिन आज रोमा दिवस पर हम उनके विषय में गौर करें तो शायद इसी से एक नए युग का आरंभ हो।
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