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आशाओं की जीत, भाजपा की हार व कांग्रेस का पटाक्षेप
हितेश शंकर
7 फरवरी की शाम। चुनाव केन्द्रों पर ईवीएम सील होतीं इससे भी पहले दिल्ली के 'एक्जिट पोल' विशेषज्ञ मोदी लहर का तिलिस्म टूटने की अपनी-अपनी परिभाषा के साथ तैयार बैठे थे। कुछ उसी तरह, जैसे सरकारी दफ्तर में लोगों को पता होता है कि दोपहर में किसके टिफिन से क्या निकलेगा, परिभाषाएं बाहर आने लगीं। सप्ताहांत में सब कुछ ना कुछ मीठा जरूर लाएंगे। हलवा, खीर, कस्टर्ड या मिठाई। कम या ज्यादा। लेकिन, मीठा। हर 'झोले' से निकली परिभाषा कम या ज्यादा, एक सी थी। 'यह मोदी की हार है। यह अमित शाह की हार है। यह भाजपा का उतार है। यह राष्ट्रीय अस्मिता और सबल राष्ट्र के पक्षकारों की हार है।'
हार, हार, हार। हा..हा..हा…। चलो कुछ मीठा हो जाए।
वैसे, भाजपा की 'सीटें' कितनी कम होंगी या आम आदमी पार्टी को अधिकतम कितनी सीटें मिलेंगी, इसकी सटीकता से विमर्शकारों को कोई मतलब नहीं था। हर स्थिति के लिए पत्ते तैयार..
भाजपा जीती तो – 'सब कुछ झोंकने के बाद, यह जीत भी कोई जीत है?'अगर भाजपा पिछले प्रदर्शन को दोहराती, तो- '2013 से अब तक वहीं के वहीं, यह हार नहीं तो क्या है?'और भाजपा की एक भी सीट घट जाती, तो- बल्ले-बल्लेऽ…
'मैंने कहा था ना? …मैंने तुमसे पहले कहा था। हां, तुमने भी कहा था। दोनों ने कहा था। हम सब ने कहा था। चलो कुछ मीठा हो जाए!!'
विशेषज्ञ इस बात से बेपरवाह थे कि जनता के मन को वे कितनी बारीकी से पढ़ते हैं। वे इस बात से भी बेपरवाह थे कि उनमें से किसी के पास सही जानकारी नहीं है, किसी के पांव जमीन पर नहीं हैं। वे सिर्फ इस बात पर आल्हादित थे कि उनके हाथ एक मुद्दा आने वाला है जिसे वे मुगदर की तरह घुमा सकते हैं। उनके विरुद्ध, जिनके विरोध में हमेशा उनके झोले में एक परिभाषा तैयार रही है। तीन दिन बाद जब नतीजे आए, भाजपा तीन पर सिमट गई और आम आदमी पार्टी को ऐतिहासिक जनादेश मिला। सब सर्वेक्षण, सब अंदाजे, सब भविष्यवाणियां, धूल में मिल गए। यह जनाकांक्षाओं का ऐसा गुबार था जिसकी किसी ने कल्पना नहीं की थी। ऐसे में सबका ध्यान सिर्फ और सिर्फ भाजपा पर केंद्रित करते हुए गलत सर्वेक्षणों के सूरमा और हवाई विशेषज्ञों की टोलियां धूल झाड़कर फिर से खड़ी हो गईं…'हमने कहा था ना!'
इस स्थिति पर हंसो चाहे रोओ, लेकिन वर्तमान भारतीय राजनीतिक विमर्श और इसे प्रस्तुत करने वालों का यह वास्तविक चित्र है। यहां बुद्धि के ठेकेदार गिरोह जनता और जनाकांक्षाओं पर चर्चा की बजाय भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेेवक संघ को घेरने का हर मुमकिन मौका तलाशते हैं। बहरहाल, 10 फरवरी को घोषित दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजे एक ठोस और बेलाग समीक्षा की दरकार जरूर रखते हैं। हर दल, उसके बल की तटस्थ समीक्षा। एक ऐसी निर्मम समीक्षा जहां व्यक्तिगत पसंद-नापसंद के लिए जगह ना हो और राष्ट्रविरोधी स्वर के लिए तो बिल्कुल नहीं। सिर्फ और सिर्फ भाजपा विरोध की बजाय इस समीक्षा के तीन अनिवार्य, और सीधे-सीधे परिणामों से प्रभावित पक्ष हैं। पहला आम आदमी पार्टी। दूसरी भाजपा और तीसरा देश का सबसे पुराना राजनीतिक दल, कांग्रेस। सबसे पहले बात आम आदमी पार्टी की। सपने में भी मोदी के डर से उठ बैठने वालों की बात जाने दीजिए। इन नतीजों ने बता दिया कि जनाकांक्षाओं का उभार राजनीतिक समीकरण किस अप्रत्याशित रूप से बदल सकता है। अरविंद केजरीवाल भारतीय राजनीति के नए नायक हैं। शिखर से शून्य पर पहुंचने और शून्य से फिर शिखर छू लेने वाले नाटकीय रूप से सफल राजनेता। 49 दिन की सत्ता, इसके बाद की थुक्का-फजीहत और बनारसी पटखनी के बाद भी अगर वह और उनकी पार्टी दिल्ली का दंगल जीतती है तो इसके लिए उनको बधाई बनती है। लेकिन इस सबके बावजूद, भाजपा और आआपा, या नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल, या लोकसभा चुनाव और दिल्ली विधानसभा चुनाव की परस्पर तुलना नहीं की जा सकती। मेरी राय में अलग-अलग व्यक्ति, परिस्थिति और परिणाम को विश्लेषण के लिए एक तराजू में तौलना समीक्षा से पूर्व तरकारी में मनचाहा छौंक लगाने जैसा काम है।
भाजपा और आआपा की तुलना नहीं हो सकती, यह कहने के पीछे किसी को तुच्छ या किसी को श्रेष्ठ कहने का भाव नहीं है। यहां बात उस वैचारिक परिपाटी की है जिसका जुआ कंधे पर लेकर किसी राजनीतिक दल को चलना होता है। भले ही कांग्रेस की कारगुजारियों से क्षुब्ध जनता ने दोनों को सराहा हो, लेकिन आआपा का सफर भाजपा के मुकाबले एकदम नया है। इतना नया कि उसे राह बदलने की भी छूट है। कांग्रेसी भ्रष्टाचार के विरोध में जिस पार्टी का बीज पड़ा वही पार्टी कांग्रेस को साथ लेकर सरकार बनाए और हेकड़ी से शुचिता के तर्क भी देती रहे। यह कारनामा केजरीवाल भले कर दिखाएं, भाजपा के लिए ऐसी कलाबाजियां खाना और फिर करतब को अपने समर्थकों के गले उतारना मुमकिन नहीं है। भले नरेंद्र मोदी हों, यहां राह बदलना मना है।
दूसरी बात है अरविंद केजरीवाल और नरेंद्र मोदी की तुलना। मेरी समझ से यह दो विपरीत व्यक्तित्वों की तुलना है। एक गरीब और सतत संघर्षांे से घिसकर निकला जनसेवक है और दूसरा राजस्व से जुड़ी चमकीली नौकरी से छिटका सितारा। एक की पृष्ठभूमि में अमरीकी वीजा का तिरस्कार है, दूसरे की पृष्ठभूमि अनाम विदेशी चंदे और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से मालामाल है। एक की रंगीन जैकेट पर चर्चा होती है, तो दूसरे के फटे स्वेटर पर। एक के 'बिजनेस क्लास' में उड़ने पर कोई बात नहीं करना चाहता, तो दूसरे के खिचड़ी जैसा सादा भोजन पसंद करने पर पर्दा पड़ा रहता है।
तीसरी बात है लोकसभा चुनाव से विधानसभा चुनाव की तुलना। पहले तो दिल्ली को देश मानने-बताने पर मेरी आपत्ति है। यहां भिन्न-भिन्न प्रांतों के लोग और उनके डेरे-बसेरे हैं यह ठीक बात है। परंतु वे अपने प्रांतीय सरोकारों और आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करते हों यह जरूरी नहीं। यह भी कड़वा सच है कि खुद दिल्ली की देश के बारे में समझ सीमित है। क्या पूर्वांचल को बिहार और सिर्फ भोजपुरी इसकी भाषा मानने वाली दिल्ली को आप देश मानेंगे? गोरखपुर और बलिया, अंगिका और बज्जिका को आप दिल्ली की समझ से किस खाने में रखेंगे? अगर यही पैमाना है तो दिल्ली से चलने वाली 'सप्तक्रांति' या यहां से गुजरने वाली 'हिमसागर एक्सप्रेस' के किसी डिब्बे को पूरा देश क्यों नहीं माना जाना चाहिए?
किसी ट्रेन की बोगी से राजधानी की तुलना कुछ लोगों को अखर सकती है, लेकिन यह सच है कि दिल्ली उतनी बड़ी नहीं जितनी मीडिया की नजर से दिखाई देती है। देश में कई जिले और यहां तक कि तहसीलें भूगोल के लिहाज से दिल्ली से ज्यादा बड़ी हैं। लेकिन पैरों के पास जलती तीली जंगल की आग से ज्यादा तपिश देती है, सो, मीडिया की नजर में दिल्ली पूरा देश है। दोनों चुनावों की तुलना पर अगली आपत्ति पहली से ज्यादा गंभीर है। लोकसभा चुनाव इस देश की जनचेतना का उभार था। छह दशक से समाज को बांटते, देशहित को दांव पर लगाते परिवार तंत्र की जकड़ से लोकतंत्र को मुक्त कराने का यह गंभीर आह्वान था। ऐसा राष्ट्रीय आह्वान जिसमें मुद्दे गंभीर थे और मतदाता राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्य को पूरा करने के लिए खड़ा हुआ था। दूसरी तरफ दिल्ली विधानसभा चुनाव और इसके परिणाम हैं। यहां व्यवस्था को ललकार भले क्रांति के अंदाज में दी गई, लेकिन उन्माद में झूमती टोलियों को मतलब की बात पहले ही कान में फूंक दी गई। मुफ्त में पानी मिलेगा, बिजली पूरी जलाओ दाम अब के मुकाबले आधा चुकाओ और वाई-फाई तो एकदम फ्री! यह फुसलाहट लुभावनी है और यहीं दोनों चुनावों का स्वर और स्तर अलग हो जाता है। वहां कर्तव्य आगे था, यहां अधिकार आगे है। वहां देश का देय चुकाने, इसे समृद्ध बनाने की अपील थी, यहां 'साड्डा हक' झपटने और मुफ्त के मजे लेने का वादा है। वहां जनचेतना थी, यहां जनाकांक्षा है। यही वह फर्क है जहां भाजपा और आआपा लोकतंत्र में अप्रत्याशित उत्कर्ष प्राप्त करने के बाद भी दो एकदम अलग-अलग दल हो जाते हैं।
अब बात परिणामों से सबसे ज्यादा प्रभावित (कम से कम प्रचारित तो यही किया जा रहा है) भारतीय जनता पार्टी की। 10 फरवरी को सुबह हुई समाचार चैनलों पर चुनाव रुझानों के साथ। पहले ही घंटे में कुछ दमकते चेहरों का रंग उड़ने लगा था। लकदक अंदाज में रौब से चलने वाले भाजपा के कई जननेता उस रोज नदारद थे। हमेशा घनघनाने और मिलाने पर पहली बार में आमतौर पर 'बिजी' मिलने वाले फोन 'स्विचऑफ' थे। मंगलवार सुबह का यह झटका संभवत: जितना तेज था उससे ज्यादा भाजपा नेताओं ने महसूस किया। टीवी कैमरा पर हार को शालीनता से स्वीकारते नेता-प्रवक्ता बाद में जब आपस में हार के वही कारण गिनाते नजर आए, जो उनके विरोधी बता रहे थे तो पार्टी-कार्यकर्ता दु:ख में डूब गए। क्या भाजपा ने यह चुनाव 'विरोधियों के दृष्टिकोण' से लड़ा था? यदि हां, तो इस हार का मलाल कम से कम दिल्ली इकाई को तो नहीं ही होना चाहिए? और यदि नहीं, तो इस परिणाम में हताश होकर बैठ जाने और कार्यकर्ताओं का दिल बैठाने वाली क्या बात है? दिल्ली ने भले ही आम आदमी पार्टी को सिर आंखों पर बैठाया है, लेकिन देश की राजधानी के दिल में भाजपा के लिए कमोबेश वही जगह है, जो 2013 के विधानसभा चुनाव में थी। 32.2 प्रतिशत स्वीकार्यता कुछ कम नहीं होती! भाजपा के पास उसकी स्वीकार्यता की वजह सम्मानजनक मत प्रतिशत और कार्यकर्ता का वह हौसला है जो बदलाव के इस अंधड़ में भी नहीं डिगा। उत्साह के वातावरण में भी आम आदमी पार्टी के रणनीतिकार अगर हैरान हैं तो सिर्फ एक वजह से। दिल्ली में 'आंधी के आम' खूब गिरे। भाजपा भले ही इन्हें बटोर नहीं पाई लेकिन उसकी अपनी झोली कमोबेश जस की तस है।
वैसे पार्टी के लिए जरूरत नतीजों पर चिंता जताने से ज्यादा चिंतन करने की है। भाजपा नेताओं को इस बात का जवाब तो देना ही चाहिए कि उनके पास विचार की पताका और हर परिस्थिति में डटे रहने वाले कार्यकर्ताओं के अलावा और कौन सी पूंजी है? संगठन और सत्ता में यदि कुछ लोगों को ऐसा लगता था कि पार्टी उनकी समझ-सूझ से कुलांचे भरने वाली 'मशीन' है तो यह भ्रम इन नतीजों के बाद टूट जाना चाहिए। यह कार्यकर्ता की तपस्या और विचार में निष्ठा का परिणाम है कि भाजपा की जमीन नहीं हिली। कार्यकर्ता के मन में रोपा राष्ट्रप्रेम का विचार ही भाजपा का संबल है। लोकसभा चुनाव में विजय के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का पार्टी कार्यालय दौरा भाजपा को याद करना चाहिए। विचार के प्रति निष्ठा, संस्थापकों की रखी लीक पर चलने का प्रण और किसी भी दल को ईर्ष्या हो ऐसे कार्यकर्ताओं की फौज। जिनके कंधों पर देश ने बड़ी जिम्मेदारियां दी हों वहां सुस्ती-मायूसी का क्या काम? पार्टी को मायूसी छोड़कर मंथन अवश्य करना चाहिए।
क्या नेताओं ने अपनी अतिशय स्वीकार्यता को लेकर कोई भ्रम तो नहीं पाला! या फिर व्यक्तिगत स्वीकार्यता पर मुहर लगवाने का आग्रह कहीं सीमा से बाहर तो नहीं चला गया! इन विषयों को सोचना-खंगालना भाजपा की अपनी जिम्मेदारी है। लोगों ने जो देखा वह यह कि मौसम कोई हो, मुकाबला कोई भी, भाजपा कार्यकर्ता निशान देखता है, नाम नहीं। व्यक्तिगत निष्ठाओं की राजनीति के दौर में भाजपा के लिए नतीजे सीटों के लिहाज से भले झटकेदार हों, मत प्रतिशत की दृष्टि से हौसला तोड़ने वाले हर्गिज नहीं हैं। और अंत में बात कांग्रेस की। कांग्रेस के लिए आआपा की आंधी और इसमें भी भाजपा का पूरे आधार को बनाए रखते हुए डटे रहना नींद उड़ाने वाली बात है। पार्टी के तारणहार 'युवराज' के खाते में एक बार फिर वही ख्याति है जो उन्हें विरोधियों का पसंदीदा बनाती है। प्रियंका को आगे करने की बात पार्टी के भीतर इतनी बार कही और आलाकमान द्वारा नकारी जा चुकी है कि अब यह कोई फर्क की उम्मीद नहीं जगाती। कांग्रेस की मुसीबत यह है कि अगर वह परिवार के भीतर ऐसा कोई क्रांतिकारी कदम उठाती भी है तो यह कुनबे के दीवालिया होने की चौक पर मुनादी करने सरीखा होगा। देश की सबसे बूढ़ी पार्टी ने इस तरह घुटने टेके हैं कि जल्दी उठ ही नही सकेगी। वैसे, कांग्रेस के इस दु:ख में बहुजन समाज पार्टी उसके साथ है जिसकी राष्ट्रीय पार्टी की साख जाती रही। रुतबा बचाने के लिए बसपा को कम से कम दो सीटें चाहिए थीं, लेकिन सिर्फ एक ही सीट पर उसका प्रत्याशी कुछ दम दिखा सका और अंतत: वह भी हार गया।
बहरहाल, दिल्ली का यह दंगल लोकतंत्र के आंगन में एक बुहारी तो दे ही गया। भारतीय चुनावी राजनीति का यह ऐसा मोड़ है जहां से साफ-साफ दो तरफा मुकाबले की राह तैयार होती है। अरविंद केजरीवाल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बधाई लेकर आगे बढ़ चुके हैं। भाजपा आगे बढ़ चुकी है। जल्दी ही फिर मुलाकात होगी, शायद बिहार में?
चुनाव नतीजों से भाजपा में मंथन का दौर, कांग्रेस का सफाया, तो उधर मुफ्त पानी, बिजली, वाई-फाई के वादों और दिल्लीवासियों की आकांक्षाओं से उपजे सवालों पर उड़ान भरने को तैयार केजरीवाल सरकार।
उस कराह और इस वाह का रिश्ता!
-किसी चैनल पर चुनावी चर्चा के दौरान एक स्वनामधन्य वामपंथी विशेषज्ञ का कहना था, 'आम आदमी पार्टी की इस उठान से पूरे देश के वंचित वर्ग (हैव नॉट्स) के मन में आशा जगी है।' सवाल उठता है कि ऐसी परिभाषाओं का फुग्गा फुलाने के पीछे कहीं उन वंचितों (हैव नॉट्स) का दर्द तो नहीं, जिन्होंने 65 वर्ष वैचारिक अखाड़ों में खूब मलाई मारी, लेकिन पिछले वर्ष 16 मई को लोकसभा नतीजों की घोषणा के बाद एकाएक रपट गए?
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