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कश्मीर में 67 वर्ष की अराजकता और अशान्ति के लंबे दौर के बाद आखिरकार ऐसे संकेत आने शुरू हो गए हैं जो दिखाते हैं कि जम्मू-कश्मीर से अलगाववादियों और आतंकवादियों के दिन अब गिने-चुने हैं। यह लगभग तय है कि भारत के इतिहास में पहली बार भाजपा इस राज्य में निर्णायक भूमिका निभाने वाली है। फिर भले ही वह नेशनल कांफ्रेंस के साथ साझा सरकार के माध्यम से हो या पी.डी.पी. के साथ। यह बदलाव यकीनन भारत की मुख्यधारा से अलग लकीर पर चलने वाली यहां की राजनीति में एक बुनियादी परिवर्तन सिद्ध होगा।
जम्मू-कश्मीर के मामले में यह आशावाद आज इसलिए अर्थवान बन चुका है क्योंकि इस राज्य के तीन क्षेत्रों-जम्मू, कश्मीर और लद्दाख में से केवल कश्मीर घाटी ही अशांति और अस्थिरता की शिकार है। राज्य के भारतीय नियंत्रण वाले क्षेत्र में से कश्मीर घाटी का क्षेत्रफल 5 प्रतिशत से भी कम है। बाकी के 95 प्रतिशत इलाके वाले जम्मू और लद्दाख में कानून और शांति व्यवस्था पिछले छह दशक से भारत के किसी भी दूसरे इलाके के मुकाबले कहीं बेहतर और ज्यादा शांत चली आ रही है।
कई संकेत हैं जो नई आशा जगाते हैं। कश्मीरी मतदाताओं ने इस बार जैसा अंगूठा अलगाववादियों और आतंकवादियों को दिखाया है उसने इन भारत विरोधी ताकतों को भारी झटका दिया है। ऐसे तत्वों को सबसे बड़ी मायूसी सीमा पार से मिलने जा रही है जहां उनका असली आका और समर्थक पाकिस्तान खुद अस्तित्व के संघर्ष में बुरी तरह फंस चुका है। और सबसे बड़ी बात तो यह है कि कश्मीर घाटी में अलगाववाद और आतंकवाद का सबसे बड़ा पैरोकार संगठन ऑल पार्टी हुर्रियत कांफ्रेंस जबरदस्त भीतरी फूट, टकराव और भ्रष्टाचार के गहरे दलदल में फंसकर तड़फड़ा रहा है।
हुर्रियत कांफ्रेंस का गठन पाकिस्तान सरकार की पहल पर 1993 में भारत का विरोध करने वाले 23 कश्मीरी संगठनों को एकजुट करने के लिए किया गया था। तब से अब तक यह संगठन कई बार बंट चुका है। आजकल इसके तीन मुख्य धड़े हैं, जिनमें से एक के नेता सैयद अली शाह गिलानी हैं, दूसरे के मीरवाइज उमर फारुख और तीसरे के शबीर शाह हैं। विकिपीडिया के अनुसार आजकल हुर्रियत में 27 संगठन हैं, जिनमें पाकिस्तान सरकार की खुफिया एजेंसी आई़ एस़ आई. का नाम भी बाकायदा 21वें क्रमांक पर शामिल है। जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के यासीन मलिक अपनी दुकान सबसे अलग होकर चलाते हैं।
गिलानी की हताशा या 'आदर्शवाद'?
हुर्रियत कांफ्रेंस और अन्य कश्मारी संगठनों की हालत को समझने के लिए गिलानी के दो ताजा बयानों को देखना होगा। विधानसभा चुनाव में जनता के तमाचे से सुन्न पड़े गिलानी और हुर्रियत के नेताओं के लिए त्राल की घटना एक नियामत बनकर आई। पहले तो उन्होंने कश्मीर के त्राल में सेना के एक कर्नल और पुलिस के एक हेड कांस्टेबल की हत्या करते हुए मारे गए आतंकवादी को एक 'शहीद' के रूप में श्रद्धांजलि देकर पूरे भारत में अपनी थू-थू करवाई। लेकिन दो दिन के भीतर ही उन्होंने पाकिस्तान में 60 शिया मुसलमानों की हत्या को लेकर इस्लामाबाद की लकीर पर चलते हुए वहां के सुन्नी तकफ़ीरी और खुराजी मौलवियों को 'आतंकवाद का मसाला तैयार करने वाले जाहिल' बता दिया। त्राल की घटना के बहाने अपनी दुकान चमकाने के लिए यासीन मलिक भी बयान देने के लिए त्राल पहुंच गए।
पाकिस्तानी सुन्नी मौलवियों की आलोचना करते हए गिलानी यह भूल गए कि कश्मीर घाटी में शिया मुसलमान समाज को पिछले 40 वर्ष में मुहर्रम के दिन कभी ताजिए निकालने की इजाज़त नहीं दी जाती। क्योंकि सरकार के साथ-साथ आतंकवादी और अलगाववादी संगठनों पर पूरी तरह सुन्नी काबिज़ हैं। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा केवल भारत जैसे देश में ही संभव है कि वहां के मीडिया और बुद्धिजीवियों का एक प्रभावशाली वर्ग ऐसी सच्चाई पर तो आंखें बंद रखता है पर गिलानी जैसे नेताओं की मक्खी को प्रसाद की तरह श्रद्धा से सटकता है और उत्साह के साथ दुनियाभर में बांटता है।
कश्मीरी जनता का हुर्रियत को तमाचा
कश्मीरी जनता ने चुनाव बहिष्कार के लिए हुर्रियत की सारी अपीलों के बावजूद कड़ाके की सर्दी और बारिश की परवाह किए बिना विधानसभा के चुनावों में ऐसे उत्साह के साथ हिस्सा लिया कि अगले-पिछले सारे रिकार्ड टूट गए। जनता के इस तमाचे की झेंप मिटाने के लिए हुर्रियत के नेताओं और दिल्ली में उनके पैरोकारों ने कहना शुरू किया कि कश्मीरी जनता असल में नरेन्द्र मोदी और भाजपा को कश्मीर से बाहर रखने के लिए इतने उत्साह के साथ मतदान कर रही है। लेकिन चुनाव आयोग के आंकड़ों से पता चलता है कि कश्मीर घाटी में जिन 9 सीटों पर भाजपा ने अपने उम्मीदवार भी नहीं खड़े किए थे उनमें से 7 सीटों पर घाटी के मतदाताओं ने सबसे ज्यादा मतदान किया। उदाहरण के लिए खानसाहिब सीट पर 81़ 2 प्रतिशत मतदान हुआ, जबकि सोनावारी में 80़ 8, गुलमर्ग में 71़1, चंडूरा में 63़ 5, पट्टन में 58़ 7, संग्रामा में 58़ 6 और राजपोरा में 54़1 प्रतिशत मत पड़े।
कश्मीर में हुर्रियत का आतंक इतना गहरा रहा है कि पिछले अधिकांश चुनावों के समय सरकार और चुनाव आयोग के लिए मतदाताओं को मतदान केन्द्र तक लाना भी दूभर हो जाता था। चुनावों के दौरान इन लोगों का कश्मीरी जनता के बीच कैसा आतंक रहता था इसे समझने के लिए एक उदाहरण काफी होगा। 1996 के विधानसभा चुनाव के समय मतदाताओं को धमकाने और सरकार तथा सुरक्षा बलों का मजाक उड़ाने के लिए अलगाववादियों ने श्रीनगर के एक मतदान केन्द्र के सामने एक कलर टी.वी. रखकर उस पर यह पोस्टर लगा दिया, 'इस बूथ के पहले वोटर को यह टी.वी. तोहफे के तौर पर मुफ्त मिलेगा'।
नजरबंद और हुर्रियत का नाटक
लेकिन इस बार हालत बदली हुई थी। मतदाताओं के उत्साह का आलम यह था कि मतदान के बहिष्कार की अपील करने वाले हुर्रियत और उसके साथी संगठनों में श्रीनगर की दीवारों पर न तो नारे लिखने की हिम्मत थी और न पोस्टर चिपकाने की। कश्मीरी अलगाववादियों के समर्थन में लिखने के लिए मशहूर दिल्ली वाली एक पत्रकार ने जब गिलानी से इन पोस्टरों और नारों के गायब रहने का सवाल पूछा तो बात-बात में डींगें हांकने वाले गिलानी का झेंप भरा जवाब था, 'भारत सरकार ने हमारे सभी नेताओं को हाउस-अरेस्ट (अपने घरों में नजरबंद) कर रखा है। ऐसे में भला कोई पोस्टर लगाने कैसे जा सकता है।' यह पत्रकार अगर श्रीनगर के किसी पुलिस अधिकारी या स्थानीय नेता से पूछतीं तो उन्हें पता चल जाता कि हुर्रियत और दूसरे कई अलगाववादी नेता किस तरह की नजरबंदी में रहते हैं? आजकल हुर्रियत के अलग-अलग धड़ों के नेताओं के आपसी रिश्तों का यह हाल है कि एक-दूसरे से अपनी जान बचाने के लिए वे अपने असर-रसूख का सहारा लेकर अपने लिए नजरबंदी की आड़ में पुलिस सुरक्षा लेकर रहते हैं। श्रीनगर में रहने वाले बेचारे गिलानी पिछले कई वर्ष से अपने शहर सोपोर जाने की हिम्मत भी नहीं जुटा पा रहे हैं।
हुर्रियत का भीतरी घमासान
कुछ बरस में कश्मीर के तीन चोटी के हुर्रियत नेताओं मीरवाइज मौलवी मुहम्मद फारुख, अब्दुल गनी लोन और प्रो़ अब्दुल अहद वानी की हत्या ने इस संगठन के भीतरी घमासान को पूरी तरह बेनकाब कर दिया है। शुरू-शुरू में तो हुर्रियत और दिल्ली में बैठे उसके समर्थकों ने इन हत्याओं में पुलिस और सुरक्षा बलों का हाथ होने का शोर मचाया। लेकिन बाद में उनके अपने ही एक पूर्व अध्यक्ष प्रो़ अब्दुल गनी भट्ट ने असलियत को जगजाहिर कर दिया। अपने एक सार्वजनिक बयान में उन्होंने कहा कि इन नेताओं की हत्या 'हमारे अपने लोगों' ने की।
अब हाल यह है कि ज्यादातर हुर्रियत धड़ों के नेताओं का प्रभाव क्षेत्र अपने कस्बे और मोहल्लों तक सीमित रह गया है। यह बात अलग है कि कश्मीर के बाहर भारतीय मीडिया और विदेशों में इन 'क्रांतिकारी' नेताओं की 'महान' छवि घाटी के पत्रकारों और दिल्ली में बैठे अपने सेकुलर समर्थकों और प्रगतिशील बुद्धिजीवियों के बयानों की बैसाखियों पर चलती है। इसी अंतरराष्ट्रीय छवि के आधार पर इन नेताओं को विदेशी सरकारों और संगठनों से मिलने वाला पैसा और महत्व तय होता है।
आए दिन ये नेता और भारतीय मीडिया में उनकी प्रचारक मंडली सुरक्षा बलों पर कश्मीरी युवकों की हत्या के आरोप लगाते हैं। लेकिन घाटी की जनता यह देखकर बहुत आहत है कि पिछले बीस वर्ष से इनमें से एक भी नेता का बच्चा पुलिस गोली का शिकार नहीं हुआ। होता भी कैसे? खुद तो ये नेता पुलिस की सुरक्षा में सलामत रहते हैं और उनके बच्चे लंदन, न्यूयार्क और बेंगलूरू में ऐश से रहते हैं, पढ़ाई और नौकरियां करते हैं। इस बार के चुनाव में जनता के बदले हुए तेवर हुर्रियत और दूसरे नेताओं की पोल खुलने का संकेत
देते हैं।
घाटी से आने वाले संकेत दिखाते हैं कि फरवरी के मध्य तक यह तय हो जाएगा कि वहां की सरकार में भाजपा किसके साथ मिलकर सरकार बनाती है-पीडीपी के साथ या नेशनल कांफ्रेंस के साथ? इस बीच घाटी के हर 'ब्रांड' वाले हुर्रियत के नेता और आतंकवादियों के पैरोकार संगठन नेशनल कांफ्रेंस और पी.डी.पी. नेताओं को भाजपा से हाथ मिलाने के खिलाफ चेतावनियां भी दे चुके हैं और अपीलें भी कर चुके हैं। सरकार किसी भी गठबंधन की हो पर दो बातों का होना अवश्यंभावी है। एक तो यह कि जम्मू-कश्मीर की राजनीति छह दशक तक कश्मीर घाटी की बंधुआ मजदूरी से मुक्त होकर अब राष्ट्रीय मुख्यधारा के साथ बहेगी। और दूसरे यह कि हुर्रियत और दूसरे अलगाववादियों के दबदबे को कफन ओढ़ाकर खाके-सुपुर्द किया जाना तय है। -विजय क्रांति
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और सेंटर फॉर हिमालयन स्टडीज एंड एंगेजमेंट के चेयरमैन हैं)
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