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.सुनील भट्ट
26 जनवरी को भारत के सबसे लोकप्रिय कार्टूनिस्ट आऱ के़ लक्ष्मण का पुणे के दीनानाथ मंगेशकर अस्पताल में निधन हो गया। वे 94 वर्ष के थे। उनके निधन के साथ ही पत्रकारिता जगत में शोक की लहर दौड़ गई। कार्टून की दुनिया का मानो स्तम्भ चला गया। आऱ के़ लक्ष्मण को लोग उनके रचे 'कॉमन मैन' या 'आम आदमी' से ज्यादा पहचानते हैं। पुणे व मुंबई में तो 'आम आदमी' की मूर्तियाँ तक स्थापित की गई हैं। उनके बड़े भाई आऱ के़ नारायण की कहानियों पर बने टी.वी. सीरियल 'मालगुडी डेज' पर बने उनके स्केच आज भी लोगों की स्मृति में ताजा हैं। सोनी के सब टी़ वी़ चैनल ने उनके कार्टूनों को आधार बनाते हुए 'आऱ के़ लक्ष्मण की दुनिया' नाम से सीरियल भी बनाया।
राजनीतिक-सामाजिक कार्टून हमारे समाचार पत्रों व पत्रिकाओं का अभिन्न अंग रहे हैं। इनमें कई-कई कार्टूनिस्टों ने काफी अच्छा काम किया, पर जो लोकप्रियता आऱ के़ लक्ष्मण को मिली, उसका कोई सानी नहीं है। इसका मुख्य कारण है, उनका रचा हुआ 'कॉमन मैन' नाम पात्र, जो उनके कॉलम की परिधि से निकल कर समूचे भारतवर्ष के आम जन का प्रतीक बन गया। पाठकों को इस पात्र में अपनी झलक दिखाई देती है। वह धोती, कुर्ता और चारखाने की जैकेट पहनता है और एक मूकदर्शक की तरह अपने ईद-गिर्द की घटनाओं को हक्का-बक्का सा देखता रहता है। वह हर जगह मौजूद है। वह अकालग्रस्त क्षेत्रों में है, हवाई अड्डे पर है, सड़क के ट्रैफिक जाम में है, चुनाव की रैली में है। वह कुछ नहीं कहता। बस एक गवाह की तरह चुपचाप खड़ा देखता रहता है। वह घटनाओं का रचयिता नहीं, साक्षी है, ठीक भारत के आम नागरिक की तरह।
24 अक्तूबर, 1921 को मैसूर के एक तमिल परिवार में जन्मे रासिपुरम कृष्णास्वामी लक्ष्मण अपने भाइयों में सबसे छोटे थे। उन्हें आऱ के़ नारायण जैसे विख्यात लेखक के रूप में बड़ा भाई मिला, जिसने उन्हें शब्दों के इस्तेमाल में मितव्ययिता बरतनी सिखाई। यह सीख आगे चलकर उनके लिए काफी मददगार साबित हुई। अपने कैरियर की शुरुआत उन्होंने 'फ्री प्रेस जनरल' से की, जहां उन्हें बाला साहब ठाकरे के साथ काम करने का मौका मिला। कुछ समय बाद वे 'टाइम्स ऑफ इंडिया' में आ गए, जहां वे अगले पचास वर्ष तक काम करते रहे। उन्हें प्रसिद्धि अपने कॉलम 'यू सेड़ इट' से मिली। यह कॉलम 'नवभारत टाइम्स' में 'आप फरमाते हैं' के नाम से छपता था। इन पचास वर्षों में उन्होंने हजारों कार्टून बनाए। नेहरू से लेकर इन्दिरा गांधी, राजीव गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी तक सब पर उनके 'आम आदमी' की दृष्टि रही। उनके कार्टूनों के लिए उन्हें सराहना भी मिली, निंदा भी। भारत सरकार ने उन्हें अपने दूसरे सबसे बड़े सम्मान पद्म विभूषण से नवाजा। अपनी आत्मकथा 'द टनल ऑफ टाइम' में वे लिखते हैं, 'मैंने पाया लोग मुझे एक कार्टूनिस्ट नहीं, बल्कि एक विचारक, समाज सुधारक, राजनीतिक चिंतक इत्यादि समझते थे। मुझे पाठकों के पत्र मिलते थे, जिसमें लोग अपनी डाक, टेलीफोन, बिजली, नगर निगम की समस्याएं बताते।'
हिन्दी समाचार पत्रों व पत्रिकाओं में ज्यादातर हास्य की बजाय व्यंग्य को ज्यादा तरजीह दी जाती है। यह मानसिकता लेखन व कार्टून दोनों में दिखती है। व्यंग्य चोट करता है, हास्य गुदगुदाता है। दोनों का उद्देश्य चाहे एक हो, पर असर अलग होता है। बिना किसी को नाराज किए उसकी कमी बताना, वह भी कुछ इस तरह कि वह इसे स्वीकार कर ले, एक मुश्किल काम है। यह काम आऱ के़ लक्ष्मण ने कई बार किया। उनके बनाए कार्टूनों की एक खूबी यह थी कि वे बड़ी से बड़ी बात को बिना हो-हंगामा मचाए आसानी से कह देते थे। यह कोई संयोग नहीं है कि उनके कार्टून स्वतंत्र भारत का इतिहास जानने का एक अच्छा साधन माने जाते हैं और यह स्थिति तब है, जब एक कार्टून की उम्र एक दिन से ज्यादा नहीं होती। आजादी के पचास वर्ष पर उनका संकलन बिना किसी विचारधारा विशेष के बंधन में फंसे एक आम नागरिक की नजर से एक युग की कथा कहता चलता है। हम उन घटनाओं को एक निरपेक्ष दर्शक की नजर से देख पाते हैं। किसी विचारधारा को खुद से दूर रखते हुए मात्र एक दर्शक की दृष्टि से अपने ईद-गिर्द की घटनाओं को देखना एक विकट गुण है। ज्यादातर रचनाकार इस किस्म की नजर नहीं रखते हैं। यही कारण है कि लक्ष्मण के बनाए कार्टून आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने कल थे।
(यह आलेख केवल इन्टरनेट संस्करण के लिए है।)
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